Folk Songs


    आकांक्षा

    मैं बनू वह वृक्ष जिसकी स्निग्ध छाया मे कभी
    थे रुके दो तरुण प्रणयी,फिर न रुकने को कभी
    मैं बनू वह शैल जिसके, दीन मस्तक पर कभी
    थे रुके दो मेघ क्षण भर, फिर न रुकने को कभी
    मैं बनू वह भग्न गृह, जिस के निविड़ तम में कभी
    थे जले दो दीप क्षण भर, फिर न जलने को कभी
    मंगलो से जो सजा था मधुर गीतों से भरा
    मैं बनू वह हर्ष, जाता जो न फिरने को कभी

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