अब छाया में गुंजन होगा, वन में फूल खिलेगे
दिशा दिशा से अब सौरभ के धूमिल मेघ उठेंगे
जीवित होंगे वन निद्रा से निद्रित शेल जगेंगे
अब तरुओ में मधू से भीगे कोमल पंख उगेगे
मेरे उर से उमड़ रही गीतों की धारा
बनकर ज्ञान बिखरता है यह जीवन सारा
किन्तु कहा वह प्रिय मुख जिसके आगे जाकर
मैं रोऊ अपना दुःख चटक सा मंडराकर
किसके प्राण भरू मैं इन गीतों के द्वारा
मेरे उर से उमड़ रही गीतों की धारा
मेरे कांटे मिल न सकेगे क्या कुसुमो से
मेरी आहे मिल न सकेगी हरित द्रमो से
मिल न सकेगे क्या शुचि दीपो से तम मेरा
मेरी रातो का ही होगा क्या न सबेरा
मिथ्या होगे स्वप्न सभी क्या इन नयनो के
मेरे..
चाह नहीं है, अब मेरा जीवन शीतल है
द्वेष नहीं है, अब मेरा उर हो गया सरल है
गयी वासना, गया वासनामय योवन भी
मिटे मेघ, मिट गया आज उनका गर्ज़न भी
मैं निर्बल हु पर मुझको ईश्वर का बल।