जिस तरह मध्यकाल में पिथौरागढ़ जनपद की भूमि में सोर में बमसीरा में मल्ल, अस्कोट में पाल और गंगोली में मणिकोटी नामक छोटे राज्य थे, उसी तरह चम्पावत जनपद में भी 'राजबुंगा' और 'बाणासुर' के किले में दो राज्यों की लोक परम्परा जीवित है। चम्पावत की आधुनिक तहसील के भवन वाले राजबुंगा में शासन करने वाले चन्द वंश के पूर्वज इलाहाबाद के समीप झूसी (प्राचीन प्रतिष्ठानपुर) से आये थे और सुई-बिशंग के बाणासुर के किले में शासन करने वाले शासक कत्यूर से चम्पावत आये। पुरुषोत्तम सिंह के गया शिलालेख में वर्णित कुमाऊँ के तीन राजा जयत्तुंगसिंह, कामदेवसिंह और पुरुषोत्तम सिंह (ज्ञात तिथि 1269 ई.) ने सुई-बिशंग से ही शासन किया होगा। ये दोनों राज्य 1402 ई. तक विद्यमान थे जिसका पता मनटांडे के नौले में उत्कीर्ण ज्ञानचंद और सोनपाल के सम्मिलित शिलालेख से चलता है। पांच पंक्ति का यह शिलालेख निम्नवत पढ़ा गया है
1. ॐ स्वस्ति श्रीशाके 1324 मासे 1 दिन-2
2. श्री ज्ञानचन्द विजयराज्यस्य श्री चन्द्र माला अतिपुरी।
3. श्रीमदु सम विप्र कि वापिका राई श्रीसोनपाल भात सभे।
4. सुभम् स्वपुत्र परिवार सहित सोनपाल चिरमजीवी भवतु।
5. टका पचास चलगि सुभम् भवतु सूत्रधार पद्मावत।
अर्थ - ॐ कल्याण हो! राजा ज्ञानचन्द की विजय के उपलक्ष्य में 1402 ई. के चैत्र मास की द्वितीया को राजा सोनपाल की ओर से पचास टका व्यय कर श्री चन्द्रमाला अतिपुरी ने भव्य नौले का निर्माण करवाया। नौले का शिल्पी पद्मावत है। अपने पुत्र और परिवार सहित सोनपाल चिरंजीवी रहें। शिल्पी का भी कल्याण हो।
इस लेख में ज्ञानचन्द के लिए कोई राजकीय उपाधि प्रयुक्त नहीं है लेकिन सोनपाल को 'राई' कहा गया है। संसारमल के 1442 ई. के बत्यूली ताम्रपत्र के अनुसार मल्ल राजा के अधीन चौवालीस 'राई' उपाधि के शासक थे (श्रीशाके 1364 वैशाख मासे सोमवती अमावाश्यायां तिथी राहुग्रस्त नक्षत्रे महाराजाधिराज बलिनारायण चौवालीस राई राजान का भतर संसारमल चिरं जयतु)। गोरिल देवता के जागर में भी उसके पिता का नाम 'हलराईक' और दाद का नाम 'झलराई' कहा जाता है जो धौली नदी के किनारे स्थित धुमाकोट के शासक थे। श्री बद्रीदत्त पांडे ने पाली पछाऊँ से प्राप्त कत्यूरी राजाओं की बंशावली में 'फेणबराई, केशबराई, अजबराई, गजबराई आदि नाम दिए हैं (कुमाऊं का इतिहास, पृष्ठ 219-220)। जोशीमठ की गुरुपादुका में भी कत्यूरी राजा आसन्ति देव को आसन्तिराई और बासन्तीदेव को बासन्तीराई लिखा हुआ है। इन उल्लेखों से यह संभावना बनती है कि चम्पावत जनपद में मनटॉडे के नौले पर उत्कीर्ण लेख से ज्ञात राई राजा सोनपाल कत्यूरी शाखा से सम्बन्धित था। मल्लयुग (1034-1622 ई.) में नेपाल में डोटी से लेकर गढ़वाल में कालसी तक तथा उत्तर में कैलास से लेकर दक्षिण में शिवालिक तक 'राई' स्तर के राजा शासन करते थे। उनका प्रधान 'रैका' अर्थात् राईयों का महाराजाधिराज कहलाता था। गढ़वाल के विविध गढ़ों की लोकगाथाओं से पता चलता है कि ये छोटे शासक पूर्णतया स्वतंत्र एवं सार्वभौम थे। केन्द्रीय सत्ता उस समय पूर्णतया निर्बल थी।
बत्यूली और काशीपुर से प्राप्त चन्दों की वशावली के साथ एक दूसरे राजवंश के नाम भी दिए हुए हैं। इनमें अन्तिम नाम सौपाल अथवा सौनपाल का है। काशीपुर के पुस्तनामे से यह प्रतीत होता है कि 'बिजड़' नामक राजा से शुरू होने वाले इस वंश के चौदह राजाओं ने चम्पावत से सोमचन्द के वंशजों को हराकर वहाँ अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया था। अधिक संभावना यही है कि बत्यूली और काशीपुर की वंशावली से ज्ञात राजा सोनपाल ही मनटांडे शिलालेख का राई सोनपाल है और उसके पूर्वज बिजड़, जीजड़, जाजड़, जड़, कालू, कलसू, जाहल, मूल, गुणा, पीड़ा, नागू, भागू और जयपाल ने सुई-बिशंग में बाणासुर के किले से शासन किया होगा।
चम्पावत के वालेश्वर मन्दिर से कार्तिकेयपुर के राजा देशटदेव का ताम्रपत्र मिला है। उसके पुत्र पद्मटदेव के शासन के अन्त में एक अकाल पड़ा। कार्तिकेयपुर में अकाल पड़ने से पद्मटदेव ने सुभिक्षपुर नाम से नई राजधानी स्थापित की। उसका पुत्र सुभिक्षराज था जिसे बदरीनाथ ताम्रपत्र में एक भुवनाविख्यात शत्रु को परास्त करने का श्रेय दिया गया है। यह वन विख्यात शत्रु गजनी का सुल्तान महमूद था। मीरात-ए-अल मसूदी नामक पुस्तक से पता चलता है कि महमूद के सेनापति मसूद को बहराइच के युद्ध में पर्वतीय राजा सहरदेव ने परास्त किया था।
पनार और काली नदी के तटवर्ती ग्रामों का पुरातात्विक सर्वेक्षण न होने से अभी चम्पावत जनपद का इतिहास क्रमबद्ध नहीं हो पाया है। सेनापानी का बौद्ध स्तूप, काकड़-बाराकोट में स्थित गुप्तकालीन कोकवराहतीर्थ, वराहमुदाण का लोहार्गल तीर्थ और मानसखण्ड का 'बौद्ध-तीर्थ' अभी भी शोधार्थियों और सक्षकों की प्रतीक्षा कर रहे हैं। उत्तराखण्ड के ऐतिहासिक क्रम के लिए झूसी और चम्पावत स जुड़ी लोकपरम्पराओं का संकलन भी आवश्यक है। चम्पावत के गाँवों में यह विश्वास है कि सोमचन्द बदरीनाथ की यात्रा के लिए अपने पुरोहित हरिहर के साथ पहाड़ में आया और यहाँ की राजकुमारी से विवाह कर चम्पावत के राजबुंगा में बस गया। यह तिथि 685 ई. की है। कुछ वर्षों बाद चन्द राजा के नि:संतान होने पर झूसी से थोर अभयचंद नाम का राजकुमार बुलाया गया जो अपने साथ सुधानिधि चौबे नामक ज्योतिषी को भी लाया। लोहाघाट से थोर अभयचंद का 989 ई. का ताम्रपत्र मिला है। यह संभावना बनी हुई है कि गुमदेश में भी कोई स्थानीय सत्ता थी।
हमसे वाट्सएप के माध्यम से जुड़े, लिंक पे क्लिक करें: वाट्सएप उत्तराखंड मेरी जन्मभूमि
हमारे YouTube Channel को Subscribe करें: Youtube Channel उत्तराखंड मेरी जन्मभूमि