आजाद हिन्द फौज का रण बांकुरा महेंद्र सिंह बागड़ी - ऐसे शायद बहुत कम फौजी होंगे, जिन्होंने दो-दो महायुद्ध लड़े हों, उसके बाद आजादी की लड़ाई भी लड़ी हो। महेन्द्रसिंह बागड़ी का जन्म सन् 1886 में उस समय के अल्मोड़े जिले के मल्ला दानपुर पट्टी के बागड़ गांव में हुआ। वे 1914 में सेना में भर्ती हुए। सूबेदार बने। फरवरी 1942 में अंग्रेजी फौज की मलाया में हार हुई। वे जापान के राजनैतिक कैदी बने। उसी समय वहाँ ज्ञानी प्रीतमसिंह, कप्तान मोहनसिंह के प्रयासों से 'आजाद हिंद फौज' बनी। उसमें महेन्द्रसिंह भी शामिल हो गए।
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने मुक्ति सेना यानी आजाद हिंद फौज की कमान संभाल ली। 'दिल्ली चलो' का नारा दिया। महेन्द्र सिंह बागड़ी को नेताजी ने सेकण्ड इन्फैंटरी रेजीमेन्ट की तीसरी पल्टन की कमान सौंपी। फरवरी 1945 को महेन्द्र की बटालियन को पूर्वी भारत के निकट 'पोपा' भेजा गया। इधर आसमान घनघोर बादलों से गरज रहा था। मूसलाधार बारिश शुरू हो गयी थी। 30 मार्च को काव्यू में बागड़ी ने जिस शौर्य वीरता का परिचय दिया, उससे अंग्रेजी फौज के छक्के छूट गए। जंग जारी थी। सिपाही कीचड़ में फंस रहे थे। एक-एक कदम बढ़ना पहाड़ लग रहा था। दवाएं, राशन, हथियार कम पड़ रहे थे। 22 अप्रैल 1945 को टौंडविगी के दक्षिण में बागड़ी शत्रु टैंकों से घिर गए। मुकाबले के लायक न सेना थी न अम्यूनेशन (हथियार)। विकल्प था समर्पण या वीरगति। उन्होंने शेष साथियों के सामने स्पष्ट किया - "हमें दुश्मन ने चारों तरफ से बुरी तरह घेर लिया है। ऐसी अवस्था में हम या तो अपमानजनक ढंग से शत्रु के सामने आत्मसमर्पण कर दें, अथवा सच्चे सिपाही की तरह लड़ते हुए अपनी जान दे दें। मैं स्वयं कायर अंग्रेजों के सामने आत्म समर्पण नहीं करूंगा। अंतिम समय तक लडूंगा।"
सौ सैनिकों के साथ अंग्रेजी टैंकों पर हमला बोल दिया। हथ गोलों और पेट्रोल बमों से एक टैंक, बख्तर बंद गाड़ी बरबाद कर दी। दूसरे पर हमला करते वक्त गोली लगी। वीर मातृभूमि का सपूत महेन्द्र सिंह बागड़ी शहीद हो गया। अपना और पूरे उत्तराखंड का माथा ऊँचा कर गया।
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