पाण्डुकेश्वर उत्सव जिसे स्थानीय स्तर पर 'जांती का मेला' भी कहा जाता है, गढ़वाल मंडल के चमोली जनपद में बद्रीनाथ धाम से 12 कि.मी. पूर्व विष्णुगंगा के बायें तट पर स्थित पांडुकेश्वर नामक स्थान पर हर 6 साल में आयोजित किया जाता है। कहा जाता है कि पहले यह प्रतिवर्ष आयोजित किया जाता था अब हरिद्वार के कुम्भ और अर्धकुम्भ के अवसर पर ही होता है। इसमें अन्य लागों के अतिरिक्त गढ़वाल के सीमावर्ती क्षेत्रों के जनजातीय लोगों तथा अल्मोड़ा जनपद के दोरा के दोरियालों की विशेष भागीदारी रहती है। नौ से ग्यारह दिन तक चलने वाले इस उत्सव का शुभारम्भ माघ मास की संक्रान्ति को किया जाता है। इसमें घण्टाकर्ण, कैलास आदि देवताओं को मंदिर से बाहर निकाला जाता है।
इसे उत्सव के अंतिम दिन का विशेष आकर्षण होता था घंटाकर्ण के पस्वा द्वारा आरक्त तप्त जांती को सिर पर घुमाना। एतदर्थ उत्सव की पूर्वरात्रि को आग का धूना (अलावा) जलाकर उन पर लोहे की तिपाई (जांती) को आरक्त होने तक तपाया जाता था। उसके लाल हो जाने पर जगरिये के द्वारा घंटाकर्ण के आवाहन करके पस्वा पर उसका अवतरण करवाया जाता था। देवता का अवतरण हो जाने पर वह व्यक्ति उस अग्नितप्त आरक्त जांती को अपने दोनों हाथों से उठाकर सिर के ऊपर ले जा कर नाचता था और फिर उसे वहीं रख देता था। इसके बाद कुबेर का पस्वा (डंगरिया) धूनी में कूद पड़ता था और उस पर अग्नि का कोई प्रभाव नहीं होता था।
पस्वा के द्वारा जांती किस दिन उठाई जायेगी इस का निर्णय उत्सव के दौरान पंचों द्वारा किया जाता है जो संक्रान्ति के 7वें, 9वें या 11वें किसी भी दिन हो सकता है। इस संदर्भ में शेरिङ, ए.सी. (1906:73) का कहना है, "घंटाकर्ण एवं कुबेर की अपरिमित शक्ति पर यहां के लोगों की इतनी गहन आस्था है कि इनकी पूजा के समय आवेश में आकर वे कितने असंभव कृत्य कर डालते हैं यह पांडुकेश्वर के जांती के मेले में प्रत्यक्षतः देखा जा सकता है, जबकि घंटाकर्ण का पस्वा लोहे की आरक्त तप्त जाती को अपने सिर और पीठ पर रख लेता है और कुबेर का औतारी धधकते हुए अंगारों में कूद पड़ता है और रत्ती भर भी आंच नहीं आती है। पस्वाओं क इन चामत्कारिक कृत्यों को देखने के लिए दूर-दूर तक के लोग आते थे" (अपिच देखें- ओकले, पृ. 334 भी)।
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