ये सामान्यत: अनाज को खेतों में बोने (बुवाई) के समय उपयोग में लाये जाते हैं। आजकल रासायनिक खाद को भी टुपर में रखकर खेतों में छिड़का जाता है। इसके अलावा काफी कम मात्रा में अनाज इत्यादि ले जाने में टुपरों का प्रयोग होता है।
इनके अलावा लोहे से बने उपकरण भी कृषि कार्यों में प्रयोग में लाये जाते रहे हैं। जिनमें मुख्यतया कुट्टो या मिदुर (कुदाल), आंशि या दातुल, दतैई या बरयांठ (बड़ी दराती), रमट, कशि, छुमड़ि दाँति, बेल्यचा,फडू (फावड़ा) बौहन्न शामिल हैं, जिन्हें स्थानीय कारीगरों द्वारा तैयार किया जाता है। आजकल कुदाल बनाने में 75 रुपये, रमट 500 रुपये, दराती 75 रुपये की लागत आती है। रमट के भेकन (हत्था) में 50 रुपये का खर्चा आता है। यह प्राय: बांज की लकड़ी का बना होता है।
कृषि के अलावा वहां का जीवन जंगलाें पर भी निर्भर है। घास, लकड़ी, जानवरों के लिए बिना सूखी पिरूल-पत्तियाँ सभी के लिए जंगलों पर ही आश्रित जीवन यहाँ देखने को मिलता है।
सूखी पत्तियां-पिरूल इत्यादि लाने के लिए भिमूल के पौधों से प्राप्त रेशे से तैयार खारा प्रयोग में लाया जाता है। इसमें एक बार में ढेर सारा पिरूल इत्यादि सूखी पत्तियां लायी जा सकती हैं। कई बार पिरूल इत्यादि सूखी पत्तियों के बीच में घास या छोटी लकड़िया डालकर भी खारा में रखकर लायी जाती हैं। जाल की तरह बुना हुआ खारा लगभग गोलाकार होता है और इसका ऊपरी सिरा थोड़ा खुला हुआ होता है। इस पर खिसकाने वाली एक रस्सी लगी हुई होती है जिसकी सहायता से इसका मुख सूखी पत्तियां भरने के बाद बंद किया जाता है।
ऊंचे वृक्षों से सूखी लकड़ियां तोड़ने के काम में घुल्यांस प्रयोग में लाया जाता है। घुल्यांस दरअसल लकड़ी का ही एक बड़ा व उचित मोटाई का डंडा होता है जिसका एक सिरा थोड़ा मुड़ा होता है। इस मुड़े हुए भाग से ही सूखी लकड़ी को झटका देकर तोड़ा जाता है। कई बार इस डंडे को किसी अन्य बड़े डंडे पर अच्छी तरह बांधकर इसका उपयोग ऊंचे वृक्षों से लकड़ी तोड़ने में किया जाता है।
घास लाने के लिए मुख्यतया डोके या डाला प्रयोग में लाया जाता है। लम्बी घास को रस्सी से बांधकर भी लाया जाता है। कई बार औरतें घास के कई तिनकों को आपस में लपेटकर रस्सी तैयार कर लेती हैं जबकि डोके भिमूल और रिंगाल के डंठलों व रेशों से तैयार किये जाते हैं। कीप के आकार का डोका पीठ पर बाँधकर उठाया जाता है। घास ढोने के अलावा यह अनाज व गोबर इत्यादि ले जाने में उपयोग में लाया जाता है। बड़ा डाला लगभग 75 रुपये में तैयार होता है।
परन्तु बढ़ते पलायन, उपजाऊ समतल कृषि योग्य इलाकों में मकान निर्माण की बढ़ती प्रवृत्ति के कारण घटते खेत-सेरे, जंगली जानवरों का गांव-घरों, खेतों तक पहुंचने से चौपट होती खेती, काश्तकारों-कारीगरों की उपेक्षा, दूधारू जानवरों को पशुधन के रूप में अपनाने की बढ़ती प्रवृत्ति के परिणामस्वरूप आवारा पशुओं में वृद्धि व आधुनिक यांत्रिक उपकरणों को अपनाने से पहाड़ की विषम भौगोलिक परिस्थितियों के अनुरूप सदियों से प्रयोग में लाये जा रहे पहाड़ की संस्कृति व परम्परा से जुड़े ये पारम्परिक कृषि उपकरण प्रचलन से बाहर होते जा रहे हैं। नि:संदेह इस ओर ध्यान देना, आज समय की महती आवश्यकता है।
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