डॉ. शिव प्रसाद डबराल | |
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जन्म | नवम्बर 13, 1912 |
जन्म स्थान | ग्राम गहली, पट्टी डबरालस्यू, गढ़वाल |
पिता | श्री कृष्णदत्त डबराल |
माता | श्रीमती भानुमती डबराल |
पत्नी | श्रीमती विश्वेश्वरी देवी |
शिक्षा | पी.एच.डी. - विषय "उत्तराखण्ड के पशुचारक भोटांतिक" |
मृत्यु | नवम्बर 24, 1999 |
अन्य नाम | चारण, इनसाइक्लोपीडिया ऑफ उत्तराखंड |
ओजस्वी नाटककार, सरस साहित्यकार, मूर्धन्य इतिहासकार, भूगोलविद (पीएच. डी.), सिद्धहस्त ज्योतिर्विद, तंत्र-मंत्र के ज्ञाता, भविष्य का पूर्वानुमान करने वाले सिद्धि प्राप्त साधक, उत्तराखण्ड के जन-जीवन, इतिहास, भूगोल, पुरातत्व, धार्मिक एवं सामाजिक मान्यताओं पर अब तक अंकेले और सर्वाधिक शोधपरक ग्रन्थों के रचनाकार। स्वयं में एक पुस्तकालय। एक अकेला व्यक्तित्व, जहां ज्ञान की थाह नहीं।
प्रारंभिक जीवन
शिवप्रसाद डबराल का जन्म पौड़ी के गहली गांव में 13 नवम्बर सन 1912 को हुआ था उनके पिता कृष्णदत्त डबराल पेशे से प्राइमरी विद्यालय में प्रधानाध्यापक थे और उनकी माता भानुमती डबराल गृहणी थी। शिवप्रसाद डबराल जी की प्रारंभिक शिक्षा मांडई व गढ़सिर के प्राइमरी स्कूल से पूरी हुई और मिडिल की परीक्षा वर्नाक्युलर एंग्लो मिडिल स्कूल सिलोगी (गुमखाल) से उत्तीर्ण की। उनका विवाह 1935 में विश्वेश्वरी देवी से हो गया था। शिवप्रसाद डबराल ने मेरठ से बी.ए. और इलाहाबाद से बी.एड. किया। भूगोल एम.ए उन्होंने आगरा विश्वविद्यालय से किया। विद्यार्थी जीवन से ही इन्होंने ज्ञान को व्यवहार पक्ष में ढाला। डॉ. डबराल का समग्र व्यक्तित्व सरलता और सादगी की भावभूमि में उत्थित हुआ। कार्यक्षेत्र का शुभारम्भ अध्यापन से किया। कुछ समय हि.प्र. में अध्यापन किया देश विभाजन के बाद लौट आए। शिवप्रसाद डबराल ने डी.ए.बी. कॉलेज दुगड्डा में सन 1948 में प्रधानाचार्य की नौकरी की जहाँ वे 1975 में सेवानिवृत होने तक प्रधानाचार्य के पद पर रहे। 1962 में "उत्तराखण्ड के पशुचारक भोटांतिक" विषय पर इन्होंने पी.एच.डी. की सम्मानजनक उपाधि प्राप्त की। Shiv Prasad Dabral Biography - Encyclopedia of Uttarakhand
साहित्यिक जीवन
भूगोल से आप एम.ए. पी.एच. डी. थे, किन्तु आठ वृहद भागों में उत्तराखण्ड का अप्रतिम इतिहास लिखकर एक महान इतिहासकार के रूप में सत्यापित हुए। इन्होंने अपनी रचनाधर्मिता मूलतः एक अनुवादक और तदनन्तर एक ओजस्वी नाटककार के रूप में प्रारम्भ की। गुहादित्य, गोरा बादल, महाराणा संग्राम सिंह, पन्ना धाय, हिरोल (अमर सिंह), वीर हम्मीर, जुझार सिंह बुन्देला इनके देशभक्तिपूर्ण वीर रस से छलकते हुए नाटक हैं। इनमें से कतिपय नाटक मंच पर सफलतापूर्वक अभिनीत भी हुए हैं। वीर रस के प्रति इनकी सहज अनुरक्ति थी। इसी लिए इन्होंने अपने प्रकाशन का नाम वीरगाथा प्रकाशन रखा। नाटक विधा से पूर्व ये सरस कवि रहे। ग्यारहवीं कक्षा में पढ़ते समय इन्होंने श्रीमती कामिनी राय की बंग्ला कविता का हिन्दी पद्यानुवाद 'महाश्वता पुण्डरीक' नाम से किया था। मूल बंग्ला छन्द अमिताक्षर को इन्होंने रूपधनाक्षरी में उतारा। बालोपयोगी साहित्य का भी इन्होंने सृजन किया है। हुतात्मा परिचय नरेन्द्र हिन्दी रीडर, गृहस्थी का धर्म, धर्म प्रवेशिका, धर्म शिक्षा (4 भाग) इत्यादि इनकी चर्चिंत एवं प्रशंसित पुस्तकें हैं। कवि के रूप में इनकी पहचान कराने वाली इनकी कृतियाँ हैं: संघर्ष संगीत, अतीत स्मृति. जन्माष्टमी, बुद्धबुद्ध, महाश्वेता पुण्डरीक, वीर, अंत्याक्षरी।
अंग्रेजी और हिन्दी लेखन पर समान अधिकार रखने वाले डॉ. डबराल, जिन्होंने अपना लेखकीय उपनाम 'चारण' रख छोड़ा था, ज्योतिष, विशेषकर ग्रह स्थिति विश्लेषण में सिद्धहस्त थे। अत्यधिक एकान्त प्रियता और अनेक अतियों के कारण ये समाज में अटेपटे ही रहे, किन्तु इनके संस्थापित व्यक्तित्व ने शोधार्थियों को जो दिया वह शताब्दियों को कृतज्ञता का पाठ पढ़ाने के लिए पर्याप्त है।
इतिहासकार के रूप में
"इनसाइक्लोपीडिया ऑफ़ उत्तराखण्ड" के नाम से विख्यात डॉ. डबराल उत्तराखण्ड के अकेले इतिहासकार हैं, जिन्होंने यहाँ के पुरातत्व और इतिहास पर सर्वाधिक शोधपरक लिखा है। उत्तराखण्ड के इतिहास में रुचि रखने वाले सामान्य पाठक आज भी इतिहास के नाम पर पण्डित हरिकृष्ण रतूड़ी लिखित 'गढ़वाल का इतिहास' और पण्डित बद्रीदत्त पाण्डे लिखित 'कुमाऊँ का इतिहास' से ही परिचित हैं। डॉ. डबराल ने अधुनातन खोजों से प्राप्त निष्कर्षों का भरपूर प्रयोग कर कुमाऊँ का इतिहास, रियासत टिहरी का इतिहास और गढ़वाल का इतिहास लिखा है। आज हम उत्तराखण्ड के इतिहास के फासले को जिस 'मील के पत्थर' से नाप रहे हैं, वह है डॉ. शिव प्रसाद डबराल। डॉ. डबराल के कतिपय इतिहास ग्रन्थों को यद्यपि उ.प्र. हिन्दी संस्थान द्वारा पुरस्कृत किया गया और कई संगठनों द्वारा उन्हें सम्मानित भी किया गया, किन्तु उनके लेखन का यह मूल्यांकन सिन्धु में बिन्दु जैसा है। इतिहास और पुरातत्व पर उन्होंने अकेले इतना लिख छोड़ा है कि शोधार्थियों के लिए आने वाले 20-25 वर्षों के लिए पर्याप्त है।
270 रुपये पेंशन के बावजूद अपने इतिहास को सहेज कर रखने के लिए अपने शोध में कमी न आने दी। अपनी जमीन और अपनी प्रेस बेच दी। शिवप्रसाद डबराल ने अपनी पुस्तक 'कुमाऊं का इतिहास' की भूमिका में लिखते हैं - छः वर्षों तक सूरदास बने रहने के कारण लेखन कार्य रुक गया था। प्रकाशन कार्य में निरंतर घाटा पड़ने से प्रेस बेच देना पड़ा। ऑपरेशन से ज्योति पुन: आने पर पता चला कि दर्जनों फाइलें, जिसमें महत्वपूर्ण नोट्स थे, शायद रद्दी कागजों के साथ फेंक दी गईं हैं। कुमाऊँ का इतिहास भी गढ़वाल के इतिहास के समान ही छः सौ पृष्ठों में छपने वाला था। इस बीच कागज़ का मूल्य छः गुना और छपाई का व्यय 16 गुना बढ़ गया था। छः सौ पृष्ठों का ग्रन्थ छपने के लिए 35000 रुपयों की आवश्यकता थी। इतनी अधिक राशि जुटाना सम्भव नहीं था। 76 की आयु में मनुष्य को जो भी करना हो तुरंत कर लेना चाहिए। दो ही साधन थे। भूमि बेच देना और पांडुलिपि को संक्षिप्त करना। अस्तु मैंने कुछ राशि भूमि बेचकर जुटाई तथा कलम कुठार लेकर पांडुलिपि के बक्कल उतारते-उतारते उसे आधा, भीतरी, 'टोर' मात्र बना दिया। किसी चिपको वाले मित्र ने मुझे इस क्रूर कार्य से नही रोका!"
डबराल जी ने उत्तराखंड के पुरातत्व और इतिहास पर बीस पुस्तकें लिखी। उत्तराखंड के जनजीवन पर पांच पुस्तकें लिखी और प्रकाशित की। डबराल ने गढ़वाली भाषा की 24 पहले से प्रकाशित दुर्लभ पुस्तकों को विस्तृत भूमिका के साथ पुनः प्रकाशित कर लुप्त होने से बचाया। मौलाराम की पांडुलिपि ढूंढकर लुप्त होने से बचाई। शिवप्रसाद डबराल ने 40 साल तक हिमालय और उसके इतिहास पर शोध किया उन्होंने उत्तराखंड का इतिहास 25 भागों में लिखा। उत्तराखंड के इतिहास से जुड़ी उनकी कुछ किताबें निम्न हैं:
⚬ अलकनंदा उपत्यका गोरख्याणी पहला भाग (पर्वतीय राज्यों का विध्वंस)
⚬ गोरख्याणी दूसरा भाग (पराजित होकर प्रत्यावर्तन)
⚬ टिहरी गढ़वाल राज्य का इतिहास भाग पहला
⚬ टिहरी गढ़वाल राज्य का इतिहास भाग दूसरा
⚬ श्री उत्तराखंड यात्रा दर्शन उत्तराँचल
⚬ हिमांचल का प्राचीन इतिहास उत्तराखंड का इतिहास (बारह भागों में)
⚬ उत्तराखंड के अभिलेख एंव मुद्रा प्राग-ऐतिहासिक
⚬ उत्तराखंड कत्युरी राजवंश – उत्थान एंव समापन
⚬ गढ़वाल पर ब्रिटिश शासन-भाग पहला
⚬ गढ़वाल पर ब्रिटिश शासन-भाग दूसरा
⚬ भोलाराम गढ़राज वंश
⚬ उत्तराखंड के भोटान्तिक उत्तराखंड के पशुचारक
विलक्षण प्रतिभा के धनि डॉ शिव प्रसाद डबराल
बहुत कम लोग जानते हैं कि डॉ. शिव प्रसाद डबराल ने जीवन के प्रथम चरण में जन विरहित, विविक्त, भयावह स्थानों में प्रखर एकान्त-साधना की थी। इसीलिए जीवन में ये 'अकुलोभय' व्यक्तित्व के धनी रहे। अमावस्या की रात और ठिठुरती शीत में ये बिना किसी कष्ट का अनुभव किए यात्रा पर निकल सकते थे। तंत्र योग साधना से इन्होंने भूख-प्यास पर भी विजय प्राप्त कर ली थी। पृथ्वी को बिछौना और आकाश को ओढ़ना बनाकर ये सहज भाव से सो सकते थे। प्रधानाचार्य पद पर रहते हुए भी वेशभूषा में सादगी के इकाई अंक पर ही सुस्थित धर्मा बने रहे। सूर्य के प्रकाश से दीप्त टिमटिमाने वाले दर्पण की प्रतिछाया इन पर कभी नहीं पड़ी। अपने आप में ये पूर्ण सन्तुष्ट थे। इनकी भौतिक आवश्यकताएं न्यूनतम थी।
साहित्यकार पार्थ सारथि डबराल कहते हैं- "इनमें एक विलक्षण प्रतिभा थी कि साधारण वस्तु को भी ये सूक्ष्मता से देखकर अपनी मान्यता और धारणा निर्धारित कर लेते थे।' युवावस्था में एक बार आप तिमली गाँव गए। वहां के बंशेश्वर महादेव मंदिर का अवलोकन करने लगे। सूक्ष्म निरीक्षण उपरान्त इन्होंने एक नई बात को उद्घाटित किया कि "जिस व्यक्ति ने यह मंदिर बनवाया होगा, वह सिद्ध तांत्रिक रहा होगा।" लोगों ने जब आधार पूछा तो डॉ. डबराल ने कहा- "मंदिर का द्वार दक्षिणाभिमुखी है। सिद्ध तांत्रिक पण्डित दामोदर डबराल, तिमली गाँव वालों द्वारा बनवाया गया था यह मंदिर। जीवन के प्रारम्भ में डा. डबराल भी आगम की सिद्धि प्रक्रिया से गुजर चुके थे।" Shiv Prasad Dabral Biography - Encyclopedia of Uttarakhand
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