द्वितीय विश्व युध्द के बाद भारत के लोक सास्कृतिक कलाकारो ने भारतीय जन नाटय संघ आई.पी.टी.ए. (इप्टा) की स्थापना की। साहित्यकारो ने प्रगतिशील लेखक संघ (पी.डब्लू.ए.) का संगठन किया। इस पर्वतीय प्रदेश के नगरो पर भी भारतीय जन नाटय संघ का प्रभाव पडा। इस पर्वतीय क्षेत्र के नगरो विशेषतः अल्मोडा, नैनीताल, गढवाल की यह विशेषता रही है, कि राष्ट्रीय स्तर पर हो रहे आन्दोलन राष्ट्रीय विकास की चेतना से ये अछूते नही रहे। राष्ट्रीय आन्दोलन मे इस क्षेत्र का योगदान अविस्मरणीय है।
सांस्कृतिक चेतना का जहाँ तक प्रश्न है इस संदर्भ मे ये क्षेत्र कुछ पिछडे कहे जा सकते है। अल्मोड़ा मे यूनियन क्लब नामक संस्था कभी-कभी होली की बैठको के साथ ऐतिहासिक नाटको का मंचन भी कराती थी। श्री बाँके लाल शाह उस समय के सर्वश्रेष्ठ रंगकर्मी थे। जन नाटय संघ के अनुभवो ने इस वातावरण को नया रुप तथा अन्र्तदृष्टि प्रदान की।
मोहन उप्रेती का मानना है कि इप्टा ने लोक कला के पुनःजागरण का कार्य किया। जो एक ऐतिहासिक कदम था इसमें लोक धुनों का प्रयोग कर जन आकाक्षाओं की ओर मोड़ दिया तांकि वे साम्राज्यवाद, राजशाही, असमानता को दूर करने हेतु जन आन्दोलन का रूप ले सकें। अल्मोड़ा में स्थापित लोक कलाकार संघ इसी प्रकार का प्रयास था। इप्टा ने लोक कला को इस रूप में लाने का प्रयास किया। 1950 से पूर्व तक अनेक सांस्कृतिक संस्थाएं बनी तथा टूटी अन्तः 1950 में यूनाइटेड आर्टिस्ट की स्थापना हुयी।
यही संस्था विभिन्न संघर्षो के पश्चात 1955 मे लोक कलाकार संघ मे परिणित हो गई। यह नाम तत्कालीन सूचना व शिक्षा मंत्री पं कमलापति त्रिपाठी द्वारा किया गया था। लोक कलाकार सघं की अल्मोडा की उत्पति में एक चेतना निहित थी। जिसे सांस्कृतिक चेतना कहा जा सकता है। लोक कलाकार संघ के मुख्य प्रबंधक बाॅके लाल शाह सास्कृतिक आन्दोलन मे श्री मोहन उप्रेती के अग्रज थे।वे रंगमच के महत्वपूर्ण रंगकर्मी, निर्देशक व कुशल संगठन कर्ता थे। उन्होने चालीस के दशक में पहले यूनियन क्लब तथा पचासवे दशक में लोक कलाकार संघ की स्थापना मे अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। 1960 तक उन्होने त्याग और ईमानदारी के साथ लोक कलाकार संघ नामक संगठन को न केवल आगे बढाया बल्कि प्रतिकूल परिस्थितियो मे इसका संरक्षण भी किया।
इतिहास के उस काल मे रंगकर्म को समाज की प्रतिक्रिया वादी सोच का शिकार होना पड़ता था। अतिवादी तथा रुढिवादी समाज संस्कृति के बदलते परिवेश से अनूकूलन करने मे स्वयं को असमर्थ पा रहा था। प्रतिक्रिया स्वरुप संस्कृतिकर्मियो का अनेक प्रकार के व्यग्यो से अपमान किया जाता था। रंगकर्मी व लोक कलाकार संघ के संस्थापक सदस्य बाॅके लाल शाह अपने संस्मरणों को सुनते हुए कहते है कि अल्मोडे के जातिवादी तथा रुढिवादी समाज मे काम करने का कठिन अनुभव जीवन में मैंने पाया है। यूनाइटेड आटिस्ट द्वारा मंचित चैराहे की आत्मा नामक नाटक ने न केवल मंचन की दृष्टि से तकनीकी की दृष्टि से नाटको के विषय की दृष्टि से एक परिवर्तन लाने का प्रयत्न किया, जिसने आगामी संस्कृति कर्म तथा संस्कृतिकर्मियो के कार्य पर अपना प्रभाव डाला।
सांस्कृतिक गतिविधियो की श्रंखला को आगे बढाते हुयें सितम्बर सन 1952 मे नैनीताल मे शरदोत्सव का आयोजन हुआ। शरदोत्सव मे अखिल भारतीय नाटक प्रतियोगिता के लिये ब्रजेन्द्र लाल शाह द्वारा लिखित व निर्देशित नाटक "चैराहे की आत्मा" के लिये आत्मा को चुना गया। इस प्रतियोगिता के संचालन हेतु संयुक्त कलाकारों की नवोदित संस्था दि यूनाईटेड आर्टिस्ट अल्मोड़ा की स्थापना की गयी। यही लोक कलाकार संघ के रुप मे जन्म लेने वाली संस्था का आगाज था। लोक कलाकार संघ ने न केवल सांस्कृतिक चेतना को जाग्रत किया अपितु ग्यारह वर्षो तक शिक्षा संस्थाओं मे प्रशंसनीय कार्यक्रम प्रस्तुत किये।
29 जून 1955 मे यूनाइटेड आर्टिस्ट का नाम बदलकर लोक कलाकार संघ कर दिया गया। इस संस्था को बनाने की सहमति विश्व विख्यात नर्तक उदय शंकर तथा विख्यात रंगकर्मी तथा फिल्मी कलाकार पृथ्वीराज कपूर ने भी दी थी। लोक कलाकार संघ के सदस्यो ने अनेको कार्यक्रम अल्मोड़ा तथा अल्मोड़ा के बाहर प्रस्तुत किये। 1956-57 मे जार्ज मार्शल ने लोक कलाकार संघ पर एक संस्मरण भी लिखा। सितम्बर 1955 मे इसे सोसाइटीज रजिस्ट्रेशन एक्ट के अन्तर्गत रजिस्टर्ड करा दिया गया। अक्टूबर 1955 को राष्ट्रीय संगीत नाटक अकादमी द्वारा व 7 नवम्बर 1955 को केन्द्रीय सूचना मंत्रालय के गीत-नाटय विभाग द्वारा इस संस्था को मान्यता प्रदान की गई। यह संस्था 1952-62 तक ही सक्रिय रह सकी।
शनैः-शनैः लोक कलाकार संघ का विघटन होने लगा। जो इस संघ के पतन का भी कारण बना। इस संस्था का पतन का एक कारण यह भी था कि इसके अधिकांश सदस्य रोजगार की तलाश मे अल्मोडा़ से बाहर चले गये। बाहर जाने वाले सदस्यो मे संस्था के प्रमुख सदस्य मोहन उप्रेती, नईमा खान व लेनिन पंत का दिल्ली जाना संस्था के लिये क्षति सिद्ध हुआ। बाॅके लाल शाह जैसे व्यक्तित्वो के चले जाने से भी सास्कृतिक आन्दोलन की गति पर विराम लग गया। मात्र दस वर्षो के अन्तराल मे इस संस्था ने अपनी रचनात्मक, भावनात्मक प्रस्तुतियो से पूरे भारत मे अपनी पहचान बना ली। ब्रजेन्द्र लाल शाह लोक कलाकार संघ से इसकी स्थापना से इसके पतन तक जुडे रहे।
उन्होने लोक कलाकार संघ के लिये मंचित होने वाले नाटकों की न केवल रचना की बल्कि उनका निर्देशन भी किया। बहुत से लाकगीतों को जो संरक्षण के अभाव मे विलुप्त प्राय होने वाले थे संरक्षण देकर पुर्नजीवित करने का कार्य शाह ने किया। इस प्रकार वे लोक कलाकार संघ से अभिन्न रुप से जुडे़ थे।
बेडु पाको बारा मासा गीत का प्रदर्शन ब्रजेन्द्र व मोहन उप्रेती ने इसी मंच के माध्यम से अक्टूबर 1952 में किया था। यह नृत्य -इतना लोकप्रिय हुआ कि इसका प्रदर्शन रगकर्मी मोहन उप्रेती व उनकी टोली द्वारा दिल्ली मे भी प्रस्तुत किया गया। तथा यह गीत भारत सहित मास्को रेडियो तथा अन्य समाजवादी देशो के रेडियो स्टेशनो से अनेक वर्षो तक प्रसारित किया गया। इसी तथ्य से इस गीत की लोकप्रियता का अनुमान लगाया जा सकता है। मोहन उप्रेती भी लोक कलाकार संघ से अभिन्न रुप से जुडे रहे। बेडु पाको गीत की सफलता ने लोक संगीत इस पर्वतीय क्षेत्र के लोक संगीत की ओर न केवल, आम जनता का बल्कि रचनाकारों का ध्यान भी आकर्षित किया।
ब्रजेन्द्र शाह द्वारा रचित जाग रहा इन्सान गीत लोक कलाकार संघ के प्रत्येक सांस्कृतिक प्रदर्शन मे गाया जाने वाला महत्वपूर्ण गीत बन गया। 1953 में लखनऊ मे अल्मोड़ा कल्चर सेंटर के द्वारा तारा चन्द्र सती के नेतृत्व मे प्रस्तुत लोक कला आधारित कार्यक्रम तथा ब्रजेन्द्र द्वारा लिखित आधुनिक मेघदूत ने कुमाऊँ लोक गीतो व लोकनृत्यो को बृहद रुप से राष्ट्रीय पटल पर लाने का शुभारम्भ किया।
नई सांस्कृतिक चेतना का प्रादुर्भाव आकस्मिक रुप से घटित होने वाली घटना नही है। सांस्कृतिक चेतना को पुष्पित तथा पल्लवित होने में पीड़ियों का समय लगता है। लोकजीवन ही सामाजिक तथा सांस्कृतिक जीवन का आधार है तथा समाज के सभी पक्षों की लय सुर ताल निधार्रित करता है। 21वी सदी के दूसरे दशक मे पहुॅचने के वावजूद रूढ़ियाँ अंधविश्वास साम्प्रदायिकता उस लाक जीवन मे घुसपैठ करके बैठे हुए हैं जिसे इस नयी सदी के सांस्कृतिक आन्दोलन का सूत्रधार होना चाहिये था।
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