नरसिंह देव (ई. सन 1000 में विद्यमान): कार्तिकेयपुर (जोशीमठ) के परम प्रतापी कत्यूरी नरेश शालिवाहन (ई. सन 850 के आसपास) की चौदहवीं या पन्द्रहवीं पीढ़ी के राजा। इस राजवंश में उत्पन्न राजा वसन्तन, निम्बर और सलोणादित्य के परिवारों ने 740 ई. से 1000 ई. तक शासन किया। नरसिंह देव का सम्बन्ध इस वंश के चौथे परिवार से था। कार्तिकेयपुर (जोशीमठ) से राजधानी को मानस भूमि में कत्यूर घाटी में लाने वाले राजा नरसिंह देव ही थे। इस सम्बन्ध में एक अनुश्रुति इस प्रकार कही जाती है- एक दिन राजा नरसिंह देव जब आखेट को गए थे तो नृसिंहावतार ने ब्राह्मण के वेश में आकर रानी से भोजन मांगा। भोजन के उपरान्त वह राजा के पलंग पर लेट गया। आखेट से लौटने पर राजा ने अपने पलंग पर अपरिचित को देखकर तलवार से उसकी बांह काट डाली। ब्राह्मण की बांह से रक्त की जगह दूध की धार देखकर राजा समझ गए कि वह कोई देवात्मा है। ब्राह्मण ने राजा से कहा- "मैं नृसिंह अवतार हूं। तुझ पर प्रसन्न होकर मैं तेरी राज सभा में आया था। तूने यह अपराध कर दिया है। अतः तू इस पुनीत ज्योतिर्धाम (जोशीमठ) को छोड़कर कत्यूर चला जा। जो घाव मेरे हाथ में दिखाई दे रहा है, वहीं घाव तू मन्दिर में नृसिंहावतार की पत्थर की मूर्ति में भी देखेगा। जब यह मूर्ति खण्ड–खण्ड हो जायेगी और हाथ भी नहीं रहेगा तो तेरा वंश समाप्त हो जाएगा।" जोशीमठ में नृसिंह देवता के मन्दिर पत्थर की नृसिंह मूर्ति का एक हाथ दूसरे हाथ से बहुत पतला और क्षीण है। लेखक ने सन 1959 में अपनी आंख से वह मूर्ति ऐसी स्थिति में देखी थी।
राजा ने मानस भूमि में गोमती नदी के तट पर करवीरपुर में अपनी नई राजधानी की स्थापना की। यह स्थान कत्यूरी राज्य के केन्द्र में स्थित था। यहां से मानस भूमि, डोटी (नेपाल) और केदार भूमि के बचे हुए प्रदेश पर शासन करना अपेक्षाकृत सरल था। यहां सोमेश्वर, बागेश्वर, जोशीमठ, कर्णप्रयाग, चम्पावत आदि के आने-जाने वाले मार्ग मिलते थे। बहुत सम्भव है कि यहां पहले से ही किसी मण्डल का प्रशासक रहता हो। राजा नरसिंह देव का अभी तक कोई अभिलेख, मुद्रा या ताम्रशासन उपलब्ध नहीं हुआ है।
चमोली जिले में गाए जाने वाले जागरों से स्पष्ट होता है कि राजा असन्तिदेव से जोशीमठ छीन कर नृसिहदेव ने उत्तरी भारत में जोगियों की एक फौज खड़ी की थी और दिल्ली की तुर्क सल्तनत के विरुद्ध ग्रामीण जनता को संगठित किया। जागरों में जिन अश्वारोही जोगियों का उल्लेख मिलता है, हरू, सैम और गोरिया के समान उन नाथ पंथी जोगियों को कबीरदास और तुलसीदास ने भी देखा था।
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