नरेन्द्र शाह- राजा (राज्यकालः 1919-1946): जन्मः प्रताप नगर राजभवन में। टिहरी रियासत के पूर्व नरेश। राजा सुदर्शन शाह के बाद लम्बे समय तक टिहरी रियासत का राजमुकुट धारण करने वाले नरेश आधिकारिक तौर पर ब्रिटिश राजमुकुट के प्रतिनिधि वायसराय की ओर से 'महाराजा' का पद प्राप्त करने और 11 तोपों की सलामी का सम्मान पाने वाले रियासत के पहले नरेश।
प्रारम्भिक जीवन
नरेन्द्र शाह की आयु 15 वर्ष से भी कम थी, जब इनके पिता कीर्तिशाह की 25 अप्रैल, 1913 को मृत्यु हुई। नरेन्द्र शाह के वयस्क होने तक राज्य के संचालन हेतु एक संरक्षण समिति बनाई गई। उक्त समिति में कमिश्नर कुमाऊँ की संस्तुति पर शैमियर नामक एक अंग्रेज सिविलियन अफसर को भी नियुक्त किया गया। शैमियर ने 1917 तक काम किया। तब सरकार ने उसके स्थान पर म्यूर नामक एक अंग्रेज सिविलियन अफसरे को नियुक्त किया। समिति के दूसरे सदस्य दीवान हरिकृष्ण रतूड़ी थे। समिति के सचिव के रूप में भवानी दत्त उनियाल ने कार्य किया। इस बीच नरेन्द्रशाह को मेयो कालेज, अजमेर भेज दिया गया। इस कालेज में हिन्दुस्तान भर के देशी रजवाड़ों के राजकुमारों को शिक्षा दी जाती थी। अभी राजकुमार नरेन्द्र शाह विद्याध्ययन कर ही रहे थे कि प्रचलित प्रथा के अनुसार संरक्षण समिति ने इनके विवाह का प्रबन्ध कर लिया। 2 फरवरी, 1916 को मात्र 18 वर्ष की आयु में इनका विवाह हिमाचल स्थित क्यूँठल रियासत के राजा विजयसेन की दो पुत्रियों से सम्पन्न हुआ। इन दोनों सगी बहिनों के नाम हैं-कमलेन्दुमति और इन्दुमति
ब्रिटिश सरकार द्वारा प्राप्त उपाधियां
शिक्षा प्राप्त कर लेने के पश्चात 21 वर्ष की आयु में 4 अक्टूबर, 1919 को विजयादशमी के पवित्र अवसर पर नरेन्द्र शाह को राज्याधिकार प्राप्त हुआ। पौलिटिकल एजेन्ट विंढम ने राजधानी पहुंचकर सरकारी फरमान पढ़कर सुनाया और सरकार की ओर से राजा के लिए भेजे गए 'लेफ्टिनेन्ट' का मानद पदक उन्हें पहनाया। 1921 में ब्रिटिश सरकार ने सी.आई.ई.; 1929 में मेजर; 1931 में 'सर' और के.सी.एस.आई. की उपाधियां प्रदान कीं। 1936 में राजा और उसके उत्तराधिकारियों को 'महाराजा' का पद दिया गया। महाराजा साहब की अनुभवशीलता और शिक्षाप्रेम को देखकर बनारस हिन्दू वि.वि. ने 1937 में इन्हें एल.एल.डी. (डा. आफ ला) की उपाधि देकर सम्मानित किया।
राजव्यवस्था के लिए बनाई कई योजना
महाराजा नरेन्द्र शाह ने राज्य की व्यवस्था को नवीन स्वरूप देने के लिए कई योजनाएं बनाई थी; किन्तु उनमें कुछ ही सफल हो सकीं। इनके राज्यकाल में पूर्व की अपेक्षा भूमि की अधिक प्रामाणिक पैमाइश करवाई गई। भू–व्यवस्था अधिकारी के रूप में जोधसिंह नेगी का कार्यकाल खासा चर्चित रहा। 'विशाल कीर्ति' के सम्पादक सदानन्द कुकरेती, महानन्द रतूड़ी, दीवान भवानी दत्त उनियाल और हरिकृष्ण रतूड़ी ने भी भू-व्यवस्था कार्य में प्रशंसनीय कार्य किए। नेलंग, जादुग, हरसिल में रहने वाले जाड–भोटान्तिकों के लिए डुण्डा में 'गुनसा' (शीतकालीन शिविर) बनवाया।
नरेंद्र नगर की स्थापना
रियासत में प्रचलित बरा और बेगार जैसी कुप्रथाओं से प्रजा में व्याप्त भारी असन्तोष को देखते हुए 1920 में राजा ने इसके उन्मूलन की घोषणा की। किन्तु पटवारी लोग घोषणा के बाद भी प्रजा से बेगार लेते रहे। (कर्मभूमि (साप्ताहिक) 15.3.42)। इसी वर्ष महाराजा ने यातायात विभाग को सुव्यवस्थित किया। 1921 में ओडाथली नामक स्थान पर नरेन्द्र नगर की स्थापना की। यहां पर भव्य राजप्रासाद (एनेक्सी और रिज हाउस), सेक्रेट्रीएट भवन, हेलि हास्पिटल, डाकघर, स्कूल, कर्मचारी निवास, व्यापारियों के लिए दुकानें आदि का निर्माण करवाया। सम्पूर्ण नगर का निर्माण कार्य लगभग 10 वर्षों में पूरा हुआ। 10 वर्षों में निर्माण कार्य पर लगभग 30 लाख रुपए व्ययं हुए। नरेन्द्र नगर के निर्माण के साथ ही ऋषिकेश से नरेन्द्र नगर तक 10 मील लम्बे मोटर मार्ग का भी निर्माण कार्य प्रारम्भ हुआ। पहली बार गांवों में पंचायत व्यवस्था लागू करवाई गई। चीफ कोर्ट के अतिरिक्त 'हजूर कोर्ट' की स्थापना की। राजा स्वयं इस कोर्ट में बैठकर अपीलें सुनते थे। विद्या प्रसार और चिकित्सालयों की स्थापना पर विशेष ध्यान दिया गया।
अत्यधिक उतार-चढ़ाव पूर्ण रहा राज्यकाल
महाराजा नरेन्द्र शाह का राज्यकाल अत्यधिक उतार-चढ़ाव पूर्ण रहा। जनता में भारी असन्तोष, द्वितीय महायुद्ध, राष्ट्रीय विचारधाराओं का फैलाव, टिहरी राज्य प्रजामण्डल की स्थापना, तिलाड़ी का लोमहर्षक कांड, देशप्रेमी सुमन की क्रूरतम यातनाओं के बाद टिहरी जेल में मृत्य; गढ़वाल की पत्रकारिता पास विश्वम्भर दत्त चन्दौला को रवांई काण्ड की सही खबर प्रकाशित करने पर एक वर्ष कारावास की सजा; गढ़वाल के नामी गिरामी वकील तारादत्त गैरोला पर मानहानि का मुकदमा, राष्ट्रीय सना (आई.एन.ए.) में रियासती नवयुवकों का प्रवेश आदि घटनाएं इन्हीं के राज्यकाल में हुई।
मित्यु
महाराजा नरेन्द्र शाह का व्यक्तिगत जीवन सादा और शुचिपूर्ण था। कहते हैं, शराब को इन्होंने कभी छुआ तक नहीं था। 26 मई 1946 के दिन इन्होंने राजसिंहासन त्याग दिया और अपने बड़े पुत्र राजकुमार मानवेन्द्र शाह को राजगद्दी सौंप दी। इनकी छोटी रानी इन्दुमती का 4 फरवरी, 1944 को एक कार दुर्घटना में निधन हो गया था। 1950 में इनकी भी नरेन्द्रनगर राजप्रासाद के निकट एक कार दुर्घटना में मृत्यु हो गई।
महाराजा साहब विद्वानों का बड़ा सम्मान करते थे। कई विद्वानों, दार्शनिकों और योगियों से उनका घनिष्ट परिचय था। सर्वपल्ली डा. राधाकृष्णन्, कु. मीरा बेन, स्वामी ज्ञानानन्द, गोस्वामी गणेश दत्त इनमें प्रमुख थे। महाराजा नरेन्द्र शाह गढ़वालिया के साथ सदा गढ़वाली में ही बात करते थे।
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