घुरदेव जी (अनुमानित जीवन कालः 11वीं-12वीं सदी): मूल निवास- धार, गुजरात। गढ़वाल में घुरदड़ा वंश की गुसाई जाति के मूल पुरुष। लगभग 12वीं सदी में घुरदेव जी गुजरात से चान्दपुर गढ़ आए थे। अपनी ताकत और प्रभाव से घुरदेव जी इस क्षेत्र में एक छोटे से गढ़ के अधिपति बन गए। इनकी दो पत्नियों में से एक गुजरात की थी और दूसरी 'सुन्दरा' नाम की कैत्यूरा वंश की थी। पहली पत्नी से जन्मी कन्या का ब्याह धुरदेव जी ने लखीमपुर (खीरी) के चन्देल वंशीय युवक से किया था। घुरदेव जी के तीन पुत्र हुए थे। ये तीनों तेजस्वी और शौर्यवान थे। इन तीनों की शादियाँ गढ़वाल तथा कुमाऊँ से थीं। चान्दपुर गढ़ में बड़ी पत्नी के देहावसान के बाद घुरदेव जी ने माण्डाखाल और विहोलगाड इलाके से आक्रमण कर पाव, ताल, धारकोट, सन्यूँ, मरखोला से पिनानी, दमदेवल तक के आबाद इलाके अपने अधीन कर लिये थे। इस प्रकार ये छोटे-से इलाके के जागीरदार हो गए। बाद में इन्होंने इलाके के केन्द्रीय गांव मरखोला की सीमा तथा ग्राम धारकोट के नजदीक एक गढ़ की रचना की। इलाके में थात (रौत) स्थापित की और पश्चिमी नयार नदी से मिलने वाली एक गुप्त सुरंग का निर्माण करवाया। इस प्रकार घुरदेव जी गढ़पति बने और उस गढ़ का नाम 'घुरदेवगढ़' पड़ा।
तत्कालीन राजा-महाराजा और मुसलमान बादशाहों ने घुरदेव जी के वंशजों को सिविल और फौजी खिताब 'गुसांईं' से सम्मानित किया। कालान्तर में इनके वंशज 'घुरदड़ा गुसांई' कहलाने लगे। उल्लेखनीय है, गुजरात में इनकी जाति 'दरबार ठाकुर' थी जो गढ़वाल में आगमन के पश्चात विलुप्त हो गई।
घुरदेव जी के निधन के बाद उनकी कैंत्यूरा जाति की पत्नी सुन्दरा ने घुरदेवगढ़ के नजदीक ग्राम ताल में एक पृथक गढ़ 'रानीगढ़' का निर्माण करवाया। 'घुरदेवगढ़' और गुप्त सुरंग का ग्राम मरखोला तथा 'रानीगढ़' का ग्राम ताल रेवेन्यू रिकार्ड में ब्रिटिश काल से थन्डरगढ़ (गरजना या कड़कना) नाम अंकित है। स्व. श्री हुकमसिंह गुसांई, रिटायर्ड कानूनगो, ग्राम धारकोट वालों ने जिलाधिकारी, पौड़ी गढ़वाल से घुरदेवगढ़ का नाम गलत लिखे जाने और उसमें आवश्यक परिवर्तन करने के सम्बन्ध में पत्र व्यवहार किया, किन्तु अभी तक स्थिति यथावत है ('गढ़ गौरव' मासिक कोटद्वार)।
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