KnowledgeBase


    घनश्याम रतूड़ी 'सैलानी'

    hargovind pant

    घनश्याम रतूड़ी 'सैलानी'

    जन्ममई 18, 1934
    जन्म स्थानग्राम- चरिगाड़, टिहरी
    शिक्षासंस्कृत तथा ज्योतिष
    व्यवसायलेखक, समाज सेवक
    मृत्यु1999

    घनश्याम रतूड़ी का जन्म एक सामान्य पुरोहित परिवार में 18 मई 1934 को हुआ था। जिनको हम घनश्याम सैलानी के नाम से जानते हैं। टिहरी जिले के चरिगाड़ गाँव में जन्मे घनश्याम रतूड़ी का परिवार पर्वतीय क्षेत्र में पूजा-पाठ व कर्मकाण्डों के द्वारा अपनी आजीविका चलाता था। किन्तु घनश्याम ने बाल्यावस्था से ही रूढ़ियों के खिलाफ बगावत की। वे बाल्यावस्था से तार्किक व प्रगतिशील विचारधारा के थे।


    किशोरावस्था में अपने परिवार व समाज की रूढिवादी सोच के विरूद्व जाकर उन्होनें हरिजन के घर सत्यनारायण कथा का पाठ किया। उस समय वे हरिद्वार में संस्कृत तथा ज्योतिष का अघ्ययन कर रहे थे। कथा वाचन प्रारम्भ करते ही एक तथाकथित ऊँची जाति के युवक ने उनके इस कृत्य के लिये उलाहनाए दी। इस घटना ने बालक घनश्याम के अन्दर विद्रोह के बीज पैदा कर दिये संस्कृत तथा ज्योतिष का अघ्ययन कर वे अन्धविश्वास के विरोधी बन गये व अस्पृश्यता निवारण के आन्दोलन सक्रिय हो गये। यही बालक बड़ा होकर शोषितों व वंचितों का साथ देकर उत्तराखण्ड ही नहीं अपितु देश विदेश तक में लोककवि घनश्याम सैलानी के नाम से विख्यात हुआ। सैलानी 1951 में टिहरी आ गये जहाँ उन्होंने अस्पृश्यता, अन्धविश्वास एवं सामाजिक रूढियों के विरूद्व विद्रोह का विगुल बजा दिया। सर्वोदय, चिपको, भूदान, मद्यनिषेध आदि जैसे बड़े आन्दोलनों में जीवन भर भाग लिया। सन 1988 में इन्होंने थाईलैंड की राजधानी बैंकाक में अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण गीत महोत्सव में भारत का प्रथिनिदित्व किया था, पर्यावरण सेवक पुरस्कार से पुरस्कृत हुए।


    2 दिसम्बर 1997 को गीतों एवं कविताओं के माध्यम से व्यापक आन्दोलन करने वाले लोक कवि एवं गीतकार घनश्याम सैलानी कभी न समाप्त होने वाली यात्रा पर निकल पड़े। चिपको आन्दोलन की जन्म स्थली के निवासी सैलानी से कवि, संगीकार व गायक प्रेरणा लेते आये हैं। न केवल सामान्य जन, वरन गाँधीवादी परम्परा के सामाजिक कार्यकर्ताओं के लिये भी उनके गीत ऊर्जा के प्रमुख स्रोत रहे है।


    उत्तराखण्ड के विभिन्न आन्दोलन व घनश्याम सैलानी

    लोक कवि सैलानी मामूली कवि, गीतकार व गायक नहीं थे, वे उत्तराखण्ड के महान विद्रोही कवि थे। ऐसे कवि व गीतकार का मिलना दुर्लभ है, जो अपने गीतों को गाने के लिये ठीक वहीं पहुँच जाये, जहाँ दुःख दर्द हो और जहाँ उसे दूर करने के लिये कोई जनान्दोलन चल रहा हो। घनश्याम सैलानी ऐसे लोककवि थे जिन्होने न केवल अपने गीतों में गढवाल की मिट्टी के दुःख दर्द को समेटा, अपितु वे हारमोनियम लटकाकर उन जगहों पर पहुँच जाते, जहाँ इस दुख-दर्द से लोग पीड़ित रहे हो। जंगल बचाने का चिपको आन्दोलन हो चाहे भैसों की बलि की कुप्रथा का विरोध या शराब के ठेकों के विरूद्व मोर्चा खोलना हो या पयार्वरण के बचाने के किसी भी गांधीवादी संघर्ष में पीछे नहीं रहे घनश्याम सैलानी।


    घनश्याम सैलानी लोककवि के रूप में अपनी संपूर्ण ऊर्जा व ओजपूर्ण रूप में जनान्दोलनों में उपस्थित रहते। गोमुख, गंगोत्री, गंगा तथा हिमालय की सोच में सदा डूबे रहते थे। धार्मिक रूढिवादिता के वे नितांत विरोधी थे। टिहरी रियासत की राजशाही में रहते हुए भी वे छुआछूत के विरूद्व चले आन्दोलन में कूद गये। 1960 तक वह सर्वोदय आन्दोलन के लिये पूर्णतः समर्पित हो गये।


    चिपको आन्दोलन तथा घनश्याम सैलानी

    1972 में वनान्दोलन की गूंज उत्तराखण्ड की भूमि में साफ-साफ सुनाई देने लगी थी। यह आन्दोलन गढवाल में तिलाड़ी गोलीकाण्ड से शुरू होकर अब वनों को बचाने की लड़ाई में बदल रहा था। उत्तरकाशी, टिहरी व चमोली इस संघर्ष की गरमी से जूझ रहे थे। आन्दोलन की गहमा-गहमी में डूबे इन्हीं दिनों उन्होंने एक गीत रचा। 1972 में उत्तरकाशी से चमोली जाते हुए 11 दिसम्बर की रात उन्होंने यह गीत लिखा-
    "चिपक जाओ पेड़ो पर।

    कटने मत दो।

    वन सम्पदा लुटने मत दो।"


    इसी गीत से चिपको का जन्म हुआ। उत्तराखण्ड के पर्वतीय क्षेत्रों में चल रहा यह आन्दोलन जो वन सम्पदा को बचाने के लिये चलाया जा रहा था इस गीत के बाद 'चिपको आन्दोलन' के नाम से विख्यात हो गया। राजेन टोडरिया लिखते हैं- "इसके बाद 15 दिसम्बर को गोपेश्वर में एक बड़े जुलूस में इस गीत को पहली बार सार्वजनिक रूप से गाये जाने के बाद यह गी चिपको आनदोलन का मुख्य गीत बन गया।"


    घनश्याम सैलानी जो इस गीत के रचयिता थे इस गीत को मैगाफोन हारमोनियम के साथ टिहरी, चमोली, उत्तरकाशी आदि जिलों में गात हुए गाँव-गाँव पहुंचे। सच्चे आन्दोलनकारी की भांति चिपको की चेतना गाँव-गाँव पहुँचाने वाले सैलानी दुर्गम क्षेत्रों से हार नहीं माने।


    1980 से उन्होने उत्तराखण्ड के गांवों की पदयात्रा शुरू की और 6 वर्षो तक उत्तराखण्ड के गांवों की दुर्गम चढाइयाँ चढ़ते हुए लक्ष्य का प्रचार प्रसार किया। पहाड़ो में वनो के कटान से जन जीवन को अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है। भूस्खलन, बाढ़ तथा रोजगार के अभाव में पलायन प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से वन सम्पदा की हानि के दुष्परिणाम है। सैलानी इन दुष्परिणामों से भली-भांति परिचित थे। क्योंकि वे लोक कवि थे तथा लोक लोक जीवन व संस्कृति से भली-भांति परिचित थे।/p>

    नशाबन्दी आन्दोलन में घनश्याम सैलानी

    1971 में जब पूरा उत्तराखण्ड शराब विरोधी आन्दोलन से तप रहा था तब सैलानी स्वरचित गीत "शराब के दैत्य" भागायेंगे के आह्वान गीत को गाते हुए इन जलूसों व प्रदर्शनों की अगुवाई कर रहे थे। उस आन्दोलन में शराब के विरूद्ध हुए प्रत्येक प्रदर्शन व जूलूस में उनका लिखा गीत (हिटौ दिदी, हिटौ भूल्यो, चला गौ बचैला) (चलो बहिनो, चलो भाइयों/अपना गाँव बचायेंगे) गाया गया।


    मातृ शक्ति को पहचानकर सैलानी ने पहाड़ की महिलाओं को शराब के विरूद्ध खड़ा कर दिया। उन्होंने पहाड़ में स्वस्थ तथा निव्र्यसनी समाज की स्थापना की दिशा में महत्वपूर्ण कार्य किया। 1960 के बाद से ही व्यसन विरोध सर्वोदय का हिस्सा था, तत्पश्चात, सक्रिय नशा विरोधी आन्दोलन भिलंगना घाटी में फैला और 1971 में पराकाष्ठा पर पहुँचा। सैलानी इस आन्दोलन में एक सामाजिक कार्यकर्ता तथा लोक गायक के रूप में सक्रिय थे।


    आन्दोलन के अंतिम चरण में वे अपने सहयोगी चंडी प्रसाद भट्ट के साथ सप्ताहों तक भूमिगत रहे और फिर टिहरी में गिरफ्तार हुए। उन दोनों को एक ही हथकड़ी पहनायी गई। छठे दशक के अन्त में शराब विरोधी आन्दोलन के समय सैलानी के गीतों की लोगों को संगठित व उद्धेलित करने की अनूठी शक्ति को पहचाना जाने लगा था।


    वे सम्पूर्ण तेज व ऊर्जा के साथ लोगों के बीच मौजूद रहे सैलानी के गीतों ने पहाड़ में एक स्थाई एवं आत्मनिर्भर समाज के निर्माण में महत्पूर्ण योगदान दिया है। उन्होंने दबे हुए और थके हुए लोगों में आत्मविश्वास जगाकर नये युग का सूत्रपात किया।


    सर्वोदय तथा घनश्याम सैलानी

    1951 में मीरा बहन के पशुलोक से भिलंगना घाटी में गेंवली ग्राम में पहुँचने पर मीरा बहन से सम्पर्क के कारण घनश्याम सैलानी का झुकाव ग्रामीण विकास और गाँधीवादी विचारधारा की ओर गया। यही सर्वोदय आन्दोलन के व्यपक प्रसार का समय था। 1956-57 से सैलानी सक्रियता से इसमें जुट गये। 1956 में सिल्यारा में नवजीवन आश्रम की स्थापना और विमला व सुन्दर लाल बहुगुणा द्वारा सामाजिक कार्य प्रारम्भ करने हेतु जो कार्यक्रम जुडे़, सैलानी उन में प्रमुख थे।


    वे बहुगुणा के सहयोगी मित्र थे। 1960 से पूरी तरह सर्वोदय आन्दोलन में आ गये। उन्होंने सेवापुरी (वाराणसी) में विधिवत ग्राम सेवा का प्रशिक्षण भी लिया। ग्राम स्वराज अभियान तथा गाँव-गाँव यात्राओं की शुरूआत हुई। उत्तराखण्ड में तब तक मान सिंह रावत, सुन्दरलाल बहुगुणा, चंड़ी प्रसाद भट्ट, घनश्याम सिंह भंडारी, राधा बहन जैसे कार्यकर्ता उभर चुके थे। घनश्याम सैलानी ने विभिन्न आन्दोलनों में एक जागरूक व सजग संस्कृतिकर्मी की भूमिका का निर्वहन किया है। चिपको आन्दोलन में लोक की थात व मातृशक्ति को आन्दोलन से जोड़ने में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा। उत्तराखण्ड के गढ़वाल अंचल के दुर्गम क्षेत्रों में स्वयं अपनी उपस्थिति द्वारा उन्होने मद्य निषेध, चिपको तथा सर्वोदय आन्दोलनों की जो अलख जगायी व अन्य संस्कृतकर्मियों के लिये सदेव प्रेरण स्रोत रहेगी। उनके गीत सदा प्रगतिशील सोच की पैरवी करते हैं। इसी कारण उनके गीत समाजिक आन्दोलनों में आशाओं का संचार करते रहे।


    उत्तराखंड मेरी जन्मभूमि वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप उत्तराखंड मेरी जन्मभूमि

    हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें: फेसबुक पेज उत्तराखंड मेरी जन्मभूमि

    हमारे YouTube Channel को Subscribe करें: Youtube Channel उत्तराखंड मेरी जन्मभूमि

    Leave A Comment ?