गढ़वाली (1905-1950) - गढ़वाली पर्वतीय क्षेत्र में राजनैतिक और सामाजिक चेतना के प्रसार का सक्षम माध्यम बना। गढ़वाली के सम्पादक गिरिजादत्त नैथाणी, तारदत्त गैरोला और विशम्भर दत्त चन्दोला मूलतः नरमवादी और सुधारवादी थे। गढ़वाली प्रारम्भ से ही उदारवादी और गोखले शैली का पक्षधर रहा।
गढ़वाली ने स्थानीय और राष्ट्रीय समस्याओं को साथ-साथ उठाया। स्थानीय समस्याओं में कुली बेगार, जंगलात, नायकोद्धार, महिला जागृति, शिक्षा प्रसार, छुआछूत, गाड़ी सड़क आदि पर लेख और सम्पादकीय लिखे। इन सम्पादकीयों में ब्रिटिश सरकार की प्रशंसा करते हुए सरकार से इन समस्याओं का निवारण करने के लिए प्रार्थना की गयी है। सन् 1914 के पश्चात अन्य पत्रों के सम्मिलित होने पर गढ़वाली ब्रिटिश सरकार के शोषक स्वरूप को अधिक प्रभावशाली ढंग से व्यक्त करने लगा।
कुली बेगार के सम्बन्ध में प्रारम्भ में गढ़वाली बेगार उन्मूलन की अपेक्षा बेगार को संशोधित करने, इसकी अधिकता पर रोक लगाने, पटवारियों-ग्रामप्रधानों पर नियंत्रण रखने और अंग्रेज पर्यटकों और सरकारी अफसरों को नरमी बरतने के लिए अनुरोध करने वाले लेखों एवं सम्पादकीयों तक सीमित था। गढ़वाली कुली बेगार प्रथा में सुधार हेतु कुली ऐजेन्सी खोलने का पक्षधर था। गढ़वाली 1920 तक कुली ऐजेन्सी कायम रखने पर ही जोर देता रहा, किन्तु 1921 में बागेश्वर के उत्तरायणी मेले में कुली बेगार के विरूद्ध जनता की उग्रता ने उसके दृष्टिकोण को बदल दिया। गढ़वाली ने बागेश्वर तथा उसके बाद के घटनाक्रम को विस्तार से प्रकाशित किया ओर कुली प्रथा का अन्त राजा और प्रजा दोनों के हित में आवश्यक बताया।
जंगलात सुधार के आन्दोलन पर भी गढ़वाली ने पर्याप्त लिखा। सितम्बर, 1917 में जंगलात की सख्ती शीर्षक से जंगलात के प्रबन्ध से उत्पन्न कष्टों का वर्णन किया। गढ़वाली ने शिक्षा, महिला जागृति, अछूतोद्धार और नायक प्रथा जैसे सामाजिक सुधारवादी आन्दोलनों के प्रति अधिक तीव्रता से लिखा। गढ़वाली के सम्पादक विशम्भर दत्त चन्दोला ने कन्या विक्रय पर सर्वप्रथम लेख प्रकाशित किया। बम्बई में बेची गयी पर्वतीय कन्याओं के सम्बन्ध में सूचना एकत्र करने वह बम्बई भी गए। गढ़वाली ने पर्वतीय क्षेत्र को कौंसिल में प्रतिनिधित्व देने के लिए समय-समय पर लिखा।
राष्ट्रीय आन्दोलन में गढ़वाली के सम्पादक उदारवादी कांग्रेसी के रूप में प्रत्यक्ष भागीदारी कर रहे थे। गढ़वाली के प्रकाशन के समय स्वदेशी आन्दोलन चल रहा था। गढ़वाली ने स्थानीय जनता को स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग करने के लिए प्रेरित किया। सन् 1919-20 में ब्रिटिश सरकार की दमनात्मक कार्यवाहियों रौलेट बिल, जालियांवाला कांड आदि का गढ़वाली ने विरोध किया। परन्तु गढ़वाली असहयोग आन्दोलन का पूर्णतः विरोधी था। असहयोग आन्दोलन के पश्चात होने वाले दंगों का कारण गढ़वाली ने असहयोग की नीति को ही माना।
गढ़वाली टिहरी रियासत में भी प्रचलित पत्र था। टिहरी राज्य की समस्याओं को भी वह समय-समय पर उठाता रहा। रियासत की समस्याओं के सम्बन्ध में उसकी खोजबीन और स्पष्टता असाधारण थी। सन् 1930 में चंदोला रंवाई कांड का विस्तृत समाचार प्रकाशित करने के कारण इसे टिहरी रियासत से प्रताड़ित होना पड़ा था। बाद के वर्षों में गढ़वाली अनियमित रहा। कुछ वर्षों के प्रकाशित अंक भी अप्राप्य हैं। अनियमित प्रकाशन तथा कुछ नये राष्ट्रवादी पत्रों के उदय के कारण स्थानीय राष्ट्रीय आन्दोलन पर इसका प्रभाव भी कम होता गया। तथापि बीसवीं सदी के प्रथम दो-ढाई दशकों में दूरस्थ जनता को राष्ट्रीय चेतना से जोड़ने में गढ़वाली का महत्वपूर्ण स्थान है।
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