फतेह शाह- राजा (1655-1715): गढ़वाल नरेश मेदिनी शाह के सुपुत्र। 1667 में शासन सम्भाला। इनका राज्यारम्भ दिग्विजय से प्रारम्भ होता है। सर्वप्रथम इन्होंने सिरमौर राज्य पर चढ़ाई की और वहां के राजा को बन्दी बना लिया। पांवटा में सिक्ख गुरु गोविन्द सिंह के साथ युद्ध किया। 1692 में शिवालिक के पार सहारनपुर के मैदानों में गुर्जर सरदारों पर आक्रमण किया। नीती घाटी पार कर तिब्बत में दापा पर अधिकार किया। सिक्खों के सातवें गुरु हरराय के पुत्र और आठवें गुरु हरिकृष्ण के सौतेले भाई गुरु रामराय को मुगल बादशाह औरंगजेब की सिफारिश पर दून घाटी में खुड़बुड़ा, राजपुर और चामासारी नाम के तीन गाँव गुरुद्वारे के लिए जागीर में दिए। बाद में इनके पौत्र गढ़वाल नरेश प्रदीप शाह ने धामावाला, मिट्टूवाला, पण्डितबाड़ी और धरतावाला नाम के चार और गाँव गुरद्वारे को प्रदान किए। गुरु रामराय ने धामावाला में गुरुद्वारे की स्थापना की। बाद में इनका विधवा श्रीमती पंजाब कौर ने इसे विशाल स्वरूप प्रदान किया। गुरु का डेरा हो जाने के कारण इस जगह का नाम डेरा' बिगड़कर 'देहरा' प्रचलित हो गया और 'दून' शब्द जुड़कर देहरादून हो गया।
गढ़वाल और कुमाऊँ के राजाओं के पारस्परिक राजनैतिक सम्बन्ध कभी सौहार्दपूर्ण नहीं रहे। यह अपने आप में एक लम्बी और कष्टपूर्ण गाथा है। अकेले राजा लक्ष्मीचन्द ने गढ़वाल पर सात बार आक्रमण किए और हर बार उसे शर्मनाक पराजय झेलनी पड़ी। लज्जा के मारे सातवीं पराजय पर महिलाओं के वस्त्रों में डोली पर बैठकर जान बचाकर अल्मोड़ा पहुंचा। आठवीं बार एक वर्ष की मंत्र साधना के बाद उसने फिर गढ़वाल पर आक्रमण किया। इस बार भी विजय हाथ नहीं लगी। किन्तु सीमावर्ती गांवों में भारी लूटपाट कर राजधानी लौटा। इस लूटपाट को विजय का रूप देकर कुमाऊँ भर में खुशियाँ मनाने का एलान कर दिया गया। तभी से कुमाऊँ में 'खतड़वा' का त्योहार "गैडा की जीत, खतड़ की हार", "गैड़ा पड़ो श्योल, खतड़ पड़ो भ्योल" की आवाज के साथ आशि्वन की संक्रांति की सांय प्रतिवर्ष मनाया जाता है। यह त्योहार आज भी गढ़वाल और कुमाऊँ के पूर्व काल में रहे वैमनस्य को ताजा करता है।
गढ़वाल-कुमाऊँ के ऐसे शत्रुतापूर्ण वातावरण में राजा फतेह शाह को राज्य प्राप्त हुआ। सिरमौर, पांवटा, दापा और सहारनपुर के युद्धों के बाद राजा फतेह शाह को पूरे वारह वर्ष कुमाऊँ से सटी राज्य की पूर्वी सीमा की सुरक्षा पर लगे। उन दिनों कुमाऊँ नरेश गढ़वाल पर आक्रमण करना अपना सर्वप्रथम कर्तव्य समझते थे। 1698 में कुमाउंनी सेना ने पिंडर घाटी पर धावा बोल दिया। थराली तक का सारा इलाका तहस-नहस क़र दिया। अगले वर्ष रामगंगा को पार किया और मल्ला सलाण परगने की साबली, खाटली और सैंधार पट्टियों को लूटा। 1701 में गढ़वाली सेना ने भी आगे बढ़कर गिंवाड़ और चौकोट इलाके को तहस-नहस कर दिया। 1703 में कुमाउंनी सेना महलचौंरी (गढ़वाल) से कुछ ऊपर तक पहुंच गई। 1707 में उसने विचला चौकोट, जूनियागढ़, पनुवाखाल के रास्ते आगे बढ़कर पुराने चांदपुरगढ़ को भी भूमिसात कर दिया।
उन दिनों सीमावर्ती इलाकों में अनिश्चय और अराजकता का वातावरण छाया रहता था। प्रतिवर्ष दोनों ओर की सेनाएं शत्रु पक्ष के इलाके में लूटपाट मचाती रहती थीं। बेचारे किसानों को विश्वास नहीं होता था कि जिस फसल को वो बो रहे हैं, उसे वे काट भी सकेंगे या नहीं। उस समय की दुर्दशा वर्णन- "गढ़वाल कटक, कुमाऊँ सटक; कुमाऊँ कटक, गढ़वाल सटक" उक्ति से मिलता है। 1708 में कुमाऊँ में राजा जगतचन्द गद्दी पर बैठे। गद्दी पर बैठते ही उसने लोहबा में लूटपाट की और पनुवाखाल के ऊपर लोहबागढ़ में अपनी एक फौजी चौकी स्थापित की। 1709 में कुमाउंनी सेना ने श्रीनगर पर धावा बोल दिया। राजा फतेह शाह ने अपने को युद्ध के लिए असमर्थ पाकर राज्य का भार राज्य के दीवान श्री शंकर दत्त डोभाल और फौजदार पुरिया नैथाणी के सूपूर्द कर परिवार के साथ देहरादून आ गए। राजा जगतचन्द ने श्रीनगर में भरपेट लूटपाट की; अन्त में पुरिया नैथाणी के समझाने पर श्रीनगर एक ब्राह्मण को दान में दे दिया। राजा फतेह शाह ने आकर बाद में सारी स्थिति को संभाला और कुमाऊँ के अन्दर तक के कुछ इलाके फिर से प्राप्त कर लिए।
राजा फतेह शाह धार्मिक विचारों के एक उदार और दानी राजा थे। साहित्य, संगीत और कलाप्रेमी थे। उन्होंने अनेक साहित्यकारों और कला-प्रेमियों को अपने दरबार में प्रश्रय दिया था। 'फतेह शाह यशोवर्णन' और 'फतेह प्रकाश' ग्रन्थों से इनके राज्य की व्यवस्था, प्रताप और साहित्यानुराग का पता चलता है। इनके दरबार के नवरत्न थे- सुरेशानन्द बड़थ्वाल, खेतराम धस्माणा, रुद्रीदत्त किमोठी, हरि दत्त नौटियाल, वासवानन्द बहुगुणा, शशिधर डंगवाल, सहदेव चंदोला, कीर्तिराम कैंथोला और हरिदत्त थपलियाल। ये सभी अपने-अपने विषयों में पाण्डित्य पूर्ण थे (गढ़वाल की दिवंगत विभूतियाँ और गढ़वाल गौरव गाथा से)।
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