भारत में रंगमच व नाटकों की दृष्टि से सबसे अधिक समृद्व बंगाली व मराठी नाट्य परम्परा रही है। बंगाली व मराठी में क्रमशः 1795 व 1843 में प्रथम नाटक मंचित किये गये। हिन्दी नाटकों का यदि उल्लेख किया जाय तो 1868 में "जानकी मंगल" नामक सर्वप्रथम मंचित किया गया है। प्रान्तीय व स्थानीय नाटकों का आगाज इन्हीं से प्रेरणा लेकर हुआ। देश के विभिन्न भागों में नाट्य विद्या में लेखन कार्य आरम्भ किया।
सन् 1911 में पौड़ी के भवानीदत्त थपलियाल "सती" ने "जय विजय" नाटक लिखकर गढ़वाली रंगमच का शुभारम्भ किया। गढ़वाली भाषा के प्रथम नाटककार प. भवानी दत्त थपलियाल का जन्म 1867 में गढ़वाल की पट्टी मवालस्यूं के खैड़ ग्राम में हुआ। प. भवानीदत्त के पिता विष्णुदत्त पटवारी थे। इन्होने अंग्रेजी मिडिल तक शिक्षा प्राप्त की तथा उसके पश्चात् इनकी नियुक्ति देहरादून कलैक्ट्रेट में हो गयी। सरकारी सेवा में ही इन्होने विभिन्न स्थानों का भ्रमण किया। मेरठ में मेलाधिकारी का उत्तरदायित्व निवर्हन करते समय इनका संपर्क पारसी नाटक कंपनियों नौटंकी आदि से हुआ जिनका इन पर गहरा प्रभाव पड़ा। तथा यहीं से इन्हें नाटक लिखने की प्रेरणा प्राप्त हुई।
भवानी दत्त ने दो नाटको की रचना की। पहला "जय विजय" सन् 1911 में तथा 'प्रहलाद' सन् 1914 में। सन् 1914 में प्रथम विश्व युद्ध आरम्भ हो जाने के कारण 'प्रहलाद' नाटक काफी लम्बे समय पश्चात् प्रकाशित हुआ। वे गढ़वाली भाषा के प्रथम नाटककार थे। उनके द्वारा रचित "प्रहलाद" सन् 1930 में प्रकाशित हुआ वे समाज से जुड़े हुए व्यक्ति थें।
1908 में कोटद्वार में हुए भातृ मण्डल के प्रथम अधिवेशन में उन्होने पहाड़ा की जनता का आह्वान किया था। "अरें पर्वत निवासी जाग, अब रात खुलीगे"
थपलियाल के प्रथम नाटक की कथावस्तु पौराणिक है। पौराणिक कथावस्तु का चयन कर के उन्होने तत्कालीन पर्वतीय समाज में प्रचलित बहुपत्नी प्रथा के दुष्परिणामों पर नाटक के माध्यम से टिप्पणियाँ की। नाटक के दों अंको में ही कथा को समेटा गया है।
भवानी दत्त थपलियाल को गढ़वाली नाटकों का जनक भी कहा जाता हैं। उनके नाटकों में मनो विनोद के माध्यम से व्यंग्य कर सामाजिक समस्याओं को इंगित किया गया। उनके द्वारा रचित नाटक यद्यपि पौराणिक कथाओं पर आधारित है परन्तु तत्कालीन ही नहीं आज भी प्रेरणा के स्त्रोत बने हुए हैं। उनके द्वारा रचित कविता "कलयुगी" दुष्ट व्यक्ति के आडम्बर तथा आचरण की निंदा करती है। एक समाज सुधारक होने के नाते वे इस बात को भली भाँति जानते थे कि आपसी द्वेष ईष्र्या, एक दिन समाज की जड़ों को खोखला कर देगी।
स्वतन्त्रता पूर्व उत्तराखण्ड में राष्ट्रीय आन्दोलन के प्रसार की गति अत्यन्त धीमी थी। रूढ़िवादी परम्पराएं समाज में अपनी पैठ बना चुकी थी। राष्ट्रीय आन्दोलन में भाग लेने से पूर्व जनता को अपनी बुराइयों व कुरीतियों से परिचित होना तथा उनका विरोध करना आवश्यक था। थपलियाल जी के नाटकों ने इन कुरीतियों पर व्यंग्य कर जनता को इस ओर आगाह करने का कार्य किया। अतः भवानीदत्त थपलियाल ने अपरोक्ष रूप से आन्दोलनों के लिय पृष्ठभूमि तैयार कर उन्हें प्रेरित करने में कार्य किया। जैसा कि वे नाटक की भूमिका में लिखते है। "जनता के मनोरजंन दुव्र्यसनों के भंजन तथा दुराचारों के भंजनार्थ।"