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    भजन सिंह ‘सिंह’

    ‌उत्तराखंड अध्यात्म एवं साहित्य के साधकों की साधना एवं प्रेरणा स्थली के रूप में सदा-सदा से विख्यात रहा है। इसी कड़ी में कफोला वंश के अध्यापक पिता रतनसिंह बिष्ट के परिवार पौड़ी जनपद पट्टी सितोनस्यूं ग्राम कोटसाड़ा में एक बालक का जन्म हुआ। जन्मते ही माता के स्वर्ग सिधारने से बुआ के असीम लाड़-प्यार तथा पिता के अनुशासन में वह बालक भजन सिंह (जन्म 29 अक्टूबर 1905 - मृत्यु 10 अक्टूबर 1996) तपे हुए सोने की भाँति निखरता चला गया। परिवार की दुर्बल आर्थिक स्थिति के साथ ही स्वाध्याय एवं परिश्रम के बल पर भजन सिंह ने अपने विशिष्ट व्यक्तित्व का निर्माण किया। देश की पुरातन सभ्यता एवं संस्कृति से उन्हें विशेष लगाव एवं गर्व था, साथ ही हिन्दी तथा गढ़वाली भाषा के संवर्धन में उन्हें गहरी एवं समान रुचि थी । समाज के असहाय और निर्बल वर्ग के प्रति उनकी गहरी सम्वेदना थी। सामाजिक बुराईयों, अंधविश्वासों एवं कट्टर पंथियों के वे सदैव घोर विरोधी रहे। अराष्ट्रीय, अमानवीय तथा अवैज्ञानिक दृष्टिकोण के प्रति विद्रोही किन्तु संयत तेवरों के कारण ही समालोचकों ने उन्हें "मर्यादित विद्रोह के अथक साधक" कहा। अपनी इन्हीं विशेषताओं के कारण 'सिंह' 'उत्तराखण्डी कबीर' कहलाए। 'सिंह' जी ने 'लोकगीत' एवं 'लोकोक्ति' संकलन के द्वारा भी गढ़वाली साहित्य की भी वृद्धि की। गढ़वाली कविता में काव्य शास्त्रीय परम्पराओं यथा - राग, रस-छन्द, अलंकार तथा गजलों, बहरे तबील आदि के प्रयोगों ने गढ़वाली कविता को अनूठी प्रौढ़ता एवं लोकप्रियता प्रदान की। उनकी अनेक गढ़वाली कविताएँ गढ़वाल के लोकगीतों की भाँति प्रसिद्ध हैं तथा उनकी बहुत सी रचनाएँ कैसेट रूप में भी प्रचलित हैं। उनका 'खुदेड़-बेटी' गीत-


    "बौडी-बौडी ऐगे ब्वै, देख पूष मैना।
    गौं कि बेटी ब्वारी ब्वैे मैत आई गैना।"
    (सिंहनाद) इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है।


    ‌श्री भजन सिंह की गढ़वाल के वैभवशाली अतीत के प्रति गहरी जिज्ञासा थी। उन्होंने उत्तराखण्ड के इतिहास के विवादित विषय आर्यों का आदि निवास को लेकर तीस (30) वर्षों के गहन अध्ययन, मनन, अनुसंधान के द्वारा इस सम्बन्ध में भ्रामक तथ्यों को दूर करने का प्रयत्न किया (गढ़वाल का अधिकांश पर्वतीय क्षेत्र दुर्गम रहा है। राजनैतिक महत्वाकांक्षियों यहाँ का लक्ष्य कम ही रहा। परिणामत: अंग्रेजों के आने से पहले सामान्य जनता एवं इतिहासविदों तक को यहाँ की अपर्याप्त जानकारी रही और यह क्षेत्र भ्रान्तियों, गलत फहमियों से घिरा रहा) और भारतीय एवं पाश्चात्य विद्वानों एवं ग्रन्थों के सुस्पष्ट तथ्यों तथा प्रमाणों के साथ "आर्यों का आदि निवास मध्य हिमालय" सिद्ध किया। इसी क्रम में उनकी 'उत्तराखण्ड के वर्तमान निवासी', 'गढ़वाल और उसके कानूनी ग्रन्थ', 'कालिदास के ग्रन्थों में गढ़वाल' आदि शोधपूर्ण लघु पुस्तकें प्रकाशित हुईं। गद्य एवं पद्य विधाओं को मिलाकर उन्होंने गढ़वाली एवं हिन्दी की 20 से अधिक कृतियों के माध्यम से साहित्य की महान सेवा की। उनकी सर्वप्रथम कृति 'अमृता वर्षा' किशोर वय का सफल प्रयास कहा जा सकता है। इसमें सिंह जी का जीवन-दर्शन उदात्त विचार, भाव-प्रवणता बीज रूप में स्पष्ट दृष्टिगोचर होते हैं। इस पुस्तक में चौदह-पन्द्रह वर्षीय बालक द्वारा सामाजिक कुरीतियों, ज्वलन्त समस्याओं एवं राष्ट्रीय-चेतना से सम्बन्धित कविताएँ कवि की अन्तर्दृष्टि एवं गहन संवेदनशीलता का परिचय दे देती हैं यथा -


    "हा! सर्व गुण सम्पन भारत आज दीन-मलीन है।
    था, जो जगत गुरु आज देखो ज्ञान-चक्षु विहीन है।"


    ‌उल्लेखनीय है कि कवि का समस्त साहित्य-सृजन आजीवन मातृशक्ति, मातृभाषा एवं मातृभूमि को समर्पित रहा। उनकी ‘माँ' खण्डकाव्य कृति मातृशक्ति के चरणों में चढ़ाया गया एक श्रद्धासुमन है। समस्त सृष्टि की स्त्री प्रजाति मात्र में अपनी सी माँ का मातृत्व अनुभव करना, वात्सल्य तलाशना सिंह के इस काव्य में उद्घाटित हुआ है। कल्पनातीत संवेदनशीलता तथा असाधारण भाव-भंगिमा 'माँ' काव्य की विशिष्टता है। एक सामान्य विषय को लेकर उसमें एक असामान्य प्रबन्ध लिख डालने की एक विशिष्ट परम्परा का सूत्रपात भी इस खण्डकाव्य के द्वारा हुआ है। इस रचना में कवि का एकमात्र संदेश है। -


    "पाठकगण!निस्वार्थ प्रीतिकर, माँसा कोई नहीं कहीं।
    है सागर का पार, किन्तु माँ के गुण-ऋण का पार नहीं।।


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