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    पुरुषोत्तम पन्त - कुमाऊँ के राबर्ट ब्रूश

    पुरुषोत्तम पन्त (निधन तिथि- 1590: अनुमानित): गाँव उपराड़ा जिला पिथौरागढ़ के मूल निवासी। कूर्मान्चल नरेश रुद्रचन्द के सेनापति । अद्भुत क्षमतावान, कुशाग्र बुद्धि, उदार चरित्र, धैर्य, उत्साह, लगन और कर्मठता का महान धनी पुरुष पुरखू पन्त (पुरुषोत्तम पन्त) को कुमाऊँ के इतिहास में राबर्ट ब्रूश कहा जाता है। पुरुषोत्तम महाराष्ट्रीय ब्राहमण जयदेव शर्मा के चौथे पुत्र भवदास पन्त के वंशधर थे, जो पूर्वकाल में किसी समय यहां आकर बस गए थे। उन्हीं पुरखू पन्त की ऐतिहासिकता की संक्षिप्त गाथा यहां प्रस्तुत है:-


    राजा रुद्रचन्द के पिता बालो कल्याणचन्द अपने जीते जी सीरागढ़ (जोहार, दारमा और असकोट) को अपने राज्य में नहीं मिला सके। और इसी घोर अवसाद में राजा स्वर्ग सिधार गए। मृत्यु का वरण करने से पूर्व राजा ने अपने मन की व्यथा से अपने पुत्र और रानी को अवगत कराया। साथ ही कहा कि उसकी दिवंगत आत्मा को शान्ति तभी मिलेगी जब सीरागढ़ चन्द राज्य में मिल जाएगा। प्रथा के अनुसार राजा की चिता के साथ रानी सती नहीं हुई और इस संकल्प के साथ जीवित रही कि पति की आत्मा की शान्ति के बाद ही वह सती होगी। इधर राजा रुद्रचन्द ने 6 बार सीरागढ़ पर आक्रमण किए, किन्तु हर बार शर्मनाक पराजय का मुंह देखना पड़ा। वह पिता की आत्मा की शान्ति के लिए पिता को दिया वचन नहीं निभा सक रहा था। घोर अवसाद, निराशा और ग्लानि के क्षणों में राजा रुद्रचन्द को नींद नहीं आ रही थी। क्या राणा, रौतेला, रावत, कठायत, ढेक, कार्की, तड़ागी, महर, बिष्ट, कैड़ा और बोरा राजपूतों के शस्त्र इतने कुन्द निकले? इसी सोच में राजा रुद्रचन्द मन ही मन घुले जा रहे थे। राजा ने मंत्री, राजगुरु, आमात्य, शाहू, रतंगली, चौधरी, सेना के अधिकारी बुलाए और अपने मन की व्यथा व्यक्त करते हुए उन्हें युद्धों का अनुभवी वीर, साहसी और लगन का महान सेनापति लाने को कहा, ताकि सीरागढ़ और बधाणगढ़ पर विजय पाई जा सके। चांपी के माण्डलिक आनन्द पाण्डे ने तुरन्त कहा, "महाराज एसा व्यक्ति है। उसका नाम पुरुषोत्तम पन्त है।" राजा के आदेश पर पुरखू पन्त को दरबार में उपस्थित किया गया। उन्हें सेनापति नियुक्त किया गया।


    पुरुषोत्तम पन्त ने सबसे पहले सीरागढ़ को जीतने का बीड़ा उठाया। अपनी छोटी सेना की टुकड़ी लेकर वह सोर घाटी में आ गए। दुर्ग के पास भयंकर युद्ध हुआ, किन्तु दुर्ग पुरखू पन्त के हाथ नहीं आया। धुन के पक्के पुरखू पन्त ने एक के बाद एक चार आक्रमण किए। हर बार पराजय हाथ लगी। गंगोली आकर उन्होंने सेना संगठित की और पुनः प्रचण्ड वेग से सीरागढ़ पर आक्रमण किया। जोहार वाला मार्ग काट दिया। चुनपाथा के मुख्य द्वार को अवरुद्ध कर दिया गया। रसद और पानी के अभाव में राजा हरिमल्ल और उसके सैनिक दुर्ग का मुख्य द्वार खोलकर रामगंगा की दूसरी ओर से डोटी (नेपाल) चले गए। सीरागढ़ पुरुषोत्तम पन्त के हाथ आ गया। शाके 1503, भाद्रपद के शुक्ल पक्ष की नौमी है। शनिवार है। राजधानी चम्पावत में सर्वत्र उल्लास और उत्साह है। आज राजधानी के दुर्ग में सीरागढ़ के विजेता, डोटी का मान मर्दन करने वाले तेजस्वी सेनापति पुरुषोत्तम पन्त का अभिनन्दन होना है। राजा रुद्रचन्द ने उपस्थित जन समूह के समक्ष सिंहासन से उठकर उन्हें गले लगाया। पाग और बहुमूल्य तलवार के साथ एक ताम्रपत्र देकर सम्मानित किया। कई गांव उन्हें जागीर में दिए। राजा रुद्रचन्द की अभिलाषा पूरी हुई। दिवंगत राजा बालो कल्याण चन्द की आत्मा को शान्ति प्राप्त हुई होगी। इसके बाद राजा कल्याणचन्द की पत्नी सती हो गई।


    कत्यूरी साम्राज्य के पतन के बाद समस्त राज्य छोटे-छोटे टुकड़ों के बंट गया था। बिसौद, अल्मोड़ा (खगमरा), स्यूनराकोट, सोमेश्वर, द्वार, पाली, सल्ट, मानील और कत्यूर में प्राचीन कार्तिकेयपुर के राजाओं के बंशधर राज्य करते थे। पन्द्रहवीं सदी के अन्तिम दशक में राजा कीर्तिचन्द ने बिसौद, खगमरा, स्यूनराकोट और सोमेश्वर के दुर्ग ले लिए। कोसी और गगास नदियों के बीच का प्रान्त चन्दों के हाथ आ गया। कीर्तिचन्द ने पाली पर आक्रमण किया। लखनपुर के कत्यूरी राजा का दुर्ग ले लिया। फल्दाकोट के खाती जाति के क्षत्रियों को युद्ध में पराजित किया। इस क्षेत्र में राजा ने अपने अनुयायीं महर, ढेक और खड़ायत बसाए। कोटा, भाबर, कोटली जीतता हुआ राजा कीर्तिचन्द माल–भाबर में जसपुर तक बढ़ गया था।
    राजा रुद्रचन्द ने अपने सेनापति पुरुषोत्तम पन्त की सहायता से 1581 में सीरागढ़ पर आधिकार कर लिया था। अब उसका ध्यान गोमती की सुरम्य तथा उर्वरा घाटी की ओर गया। रुद्रचन्द ने अपने सनापति को उसके दूसरे वचन की याद दिलाई। दूसरा वचन बधाणगढ़ को जीत लेने का था। पुरुषोत्तम पन्त न अपने शूरवीर भाई बिदु पन्त, भागी पन्त, माघी पन्त और गंगोली के अन्य शूरवीरों के साथ गोमती की घाटी में प्रवेश किया। कत्यूर में गरुड़, बैजनाथ और निकटवर्ती थोड़े से ग्रामों पर कत्यूरी राजा सुखलदेव का शासन था। राजा सुखलदेव गढ़नरेशों से मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध रखता था, ताकि समय आने पर दोनों मिलकर उभरती चन्द शक्ति का मुकाबला कर सकें। आज वह समय आ गया था। पुरखू पन्त की सेना ने कत्यूर उपत्यका को उजाड़ डाला और राजा सुखलदेव को उसके परिवार के साथ बन्दी बना दिया। कहते हैं, बाद में सुखलदेव का वध कर दिया गया।


    बधाणगढ़ को जीतना राजा रुद्रचन्द को बहुत मंहगा पड़ा। युद्ध में गढ़राज्य के एक पड्यार राजपूत के हाथों पुरखू पन्त को प्राण गंवाने पड़े। उस जगह का नाम खण्ड तोली (खणतोली) है। इस वीर का सिर काटकर गढ़वाल के राजा के पास श्रीनगर भेज दिया गया। श्रीनगर जाते रास्ते में जहां-जहां पड्यार राजपूतों ने पड़ाव डाले, गढ़वाल के राजा ने वे सब गाँव उन्हें 'रौत' में दे दिये। ऐसा भय था उस वीर सेनापति का। गंगोली के पास कई वीर उस युद्ध में मारे गए थे। वह स्थान आज भी 'गंग्वाल घत्कौण' (गंगोली के वीरों का हत्या स्थल) कहलाता है। इस वीर पुरुष के वंशधर आज भी बेणीनाग के पास काने, पाली, स्यूनराकोट, खणतोला गावा में रहते है। इनके बड़े भाई भागी पन्त का बुंग (दुर्ग) बिचला दानपुर में नाकुरा पट्टी के पास एक शिखर पर था (कूर्मान्चल गौरव गाथा' और अन्यत्र से)


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