तुमने क्यों न कही मन की?
रहे बंधु तुम सदा पास ही-
खोज तुम्हे, निशि दिन उदास ही-
देख व्यथित हो लौट गयी मैं,
तुमने क्यों न कही मन की?
तुम अंतर मैं आग छिपाए
रहे द्रष्टि पर शांति बिछाये
मैं न भूल समझी जीवन की
तुमने क्यों न कही मन की?
खो मुझको जब शुन्य भवन मे
तुम बैठे धर मुझे नयन में
कर उदास रजनी योवन की
कहते करुण कथा मन की!
मैं न सुधा लेकर हाथो मे
आई उन सुनी रातो मे
स्मिति बन कर न जीवन की
मैं बन गयी व्यथा जीवन की!
जग मैं मैं अब दूर जा चुकी
रो रो निज सुख दुःख सुला चुकी
अब मैं केवल विवश बंधन मे
कहते क्यों मुझ से मन की?
तुमने क्यों, न कही मन की?