इस कविता में कुमाऊँ के लोगों से गौर्दा आह्वान करते हुए कहते हैं, कि सुनों कुमाऊँ के लोगों कुली बेगार मत देना चाहे उसके लिए तुम्हें कितनी भी मार क्यों न झेलनी पड़े।
मुल्क कुमाऊॅं का सुणि लिया यारो, झन दिया कुल्ली बेगार।
चहि पड़ी जा डंडे की मार। जेल हुणी लै होवौ तय्यार।।
तीन दिन ख्वे बेर मिल आना चार। आखां देखूनी फिर जमादार।
घर कुड़ि बांजि करि छोड़ि सब कार। हाॅंकि लिजाझा माल गुजार।।
पाकि रूंछ जब ग्यूं धानै सार। दौरा करनी जब हुनी तयार।
हूंछिया कास ऊ अत्याचार। मथि बटिर वर्ष छ मूसलाधार।।
बरदैंस लीछिया तब तय्यार। फिर लै पड़न छि ज्वातनै कि मार।
तवैं लुकछियां हम गध्यार। द्वी मुनि को बोझ एका क ख्वार।।
भाजण में होलो चालान त्यार। भुख मरि बेर घर परिवार।
भान कुनि जांछि कुथलिदार। ख्वारा में धरंछी ढ़ेरों शिकार।।
टट्टी को पाट ज्वाता अठार। ताजि ताजि चैंछ दूधैकि धार।
खोलि लिजांछ गोरू थोकदार। सोचि लियौ तुम दुःख आपार।।
भंगि बणूछिया अपने रिस्यार। खूॅंटा मिनूछिंयो रिस्तेदार।
घ्वाड़ा मलौ कुछं सईस म्यार। पटवारि चपरासि अरू पेशकार।।
टरंदलि खल्लंसि आया सरदार। बावर्चि खनसाम तहसीलदार।
घुरूवा चुपुवा नपकनी न्यार। बैकरन की अति भरमार।।
दै दूध अंडा मुर्गी द्वि चार। को पूछौ लाकड़ा घास का भार।
बाड़ बाड़ा माललै भरनी पिटार। अरू रात दिना पड़नी गौंसार।।
भडुंवा डिप्टी का छन वार पार। अब कुल्ली नी द्यूंकै करो करार।
कानून न्हांति करि है विचार। पाप बगै हैछ गंगज्यू धार।।
अब जन धरौ आपणा ख्वार। निकाली धरौ आपणा ख्वार।
निकाली नै निकला दिलदार। बागेश्वर है नी गया भ्यार।।
कौतिक देखि रया कौतिकार। मिनटों में बन्द करो छ उतार।।
कुली बेगार की उपरोक्त कविता कुली बेगार आन्दोलन के दौरान न केवल गायी गयी बल्कि कविता ने जनान्दोलन को धारा देने का पुनीत कार्य भी किया। चॅंकि गौर्दा स्वयं बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे वे स्वयं भी इन गीतों को गाकर लोक चेतना जागृत करने का भरसक प्रयास करते।