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    शिवदेव जोशी - कर्माचल का शिवाजी

    शिवदेव जोशी (1713-1772): गाँव झिझाड़, अल्मोड़ा। 18वीं सदी में कुमाऊँ की राजनीति के 'कौटिल्य' नाम से प्रसिद्ध इतिहास पुरुष शिवदेव जोशी अपूर्व शौर्य, साहस, बुद्धि, कूटनीति और अनन्य राजभक्ति के असाधारण उदाहरण रहे। वयोवृद्ध इतिहासकार श्री नित्यानन्द मिश्र जी ने इन्हें कर्माचल का शिवाजी कह कर सम्बोधित किया है। इन्हीं वीर पुरुष का संक्षिप्त परिचय यहाँ प्रस्तुत है-


    1730 का साल भारतीय इतिहास का संक्रमण का युग था। एक ओर विशाल मुगल साम्राज्य की तीव्र गति से अवनति, दूसरी ओर उतनी ही तीव्रता से महाराष्ट्र के पेशवाओं का उत्कर्ष और तीसरी ओर भारत के समुद्री तट पर योरोपीय शक्तियों का व्यापार के साथ-साथ अपनी सत्ता स्थापित करने का स्वप्न। इसी समय गंगा के उत्तरी उर्वरा भाग पर अफगान रोहेले हावी हो गए। देश की इस डांवाडोल स्थिति का प्रभाव कुमाऊँ पर भी पड़ा।


    1729 में राजा अजीत चन्द की हत्या हो गई थी। वैसे 1720 से ही कुमाऊँ का अधःपतन शुरु हो गया था। राजा देवी चन्द की विलासिता का लाभ उठाया उनके मंत्री माणिक बिष्ट और उसके पुत्र पूरन मल ने। सत्ता के लोभी इन मंत्रियों ने रन जी पटोलिया की सहायता से कोटा-भाबर में देवीपुर के राजप्रासाद में राजा देवीचन्द की हत्या करवा दी थी। राजा निसन्तान थे। बिष्टों ने अपनी सत्ता कायम करने के लिए राजप्रासाद की एक राजचेली के पुत्र को सिंहासन पर बैठा दिया। महर-फड़त्यालों ने राजा रुद्रचन्द के पोते नारायण चन्द, जो किसी समय भागकर नेपाल चला गया था, के पुत्र कल्याण चन्द को डोटी से लाकर चन्दों के सिंहासन पर बैठाया। कल्याण चन्द ने बड़ी क्रूरता से काम लिया। सत्ता को दृढ़ करने के लिए उसने चन्दों के दूसरे वंशधरों का अन्त करना प्रारम्भ कर दिया। सैकड़ों ब्राह्मण परिवारों की आँखें निकलवा दीं। कहते हैं इस क्रूरतम कृत्य से सात बड़े भगोने आँखें जमा हुई थीं। इस क्रूर अत्याचार से कई ब्राह्मण परिवार कुमाऊँ से भाग गए या भूमिगत हो गए। राजा कल्याण चन्द ने 25 वर्षीय युवक शिवदेव जोशी को राजदरबार में बुलाया और उसकी प्रतिभा को देखकर उसे तराई-भाबर में व्यवस्था स्थापित करने के लिए भेज दिया।


    तीस साल तक कुमाऊँ की राजनीतिक बागडोर जोशी के हाथ में रही। उसने अपनी प्रतिभा,प्रवन्ध पटुता और बौद्धिक गरिमा से कूर्माचल की राजनीति को स्थायित्व प्रदान किया। कुमाऊँ पर रोहेलों का आक्रमण हुआ। स्वतंत्रता सात महीने के लिए छिन गई। अपने अपूर्व साहस और बुद्धि से इस युवक न अपन देश को स्वतंत्र करवाया। कुछ ही वर्षों में उसने क्रूर, अत्याचारी, संकीर्ण और कृपण राजा कल्याण चन्द का पूर्ण विश्वास जीत लिया।


    1743 में रोहेला सेना हाफिज रहमत खाँ, पैदा खाँ और बख्शी सरदार खाँ के नेतृत्व में कुमाऊँ के दक्षिणी भाग में प्रवेश कर गई। रोहेलों का पूरी तैयारी के साथ रुद्रपुर पर आक्रमण हुआ। शिवदेव जोशी ने पूरी शक्ति से मुकाबला किया, किन्तु उचित तैयारी के अभाव में उसे पीछे हटना पड़ा। रोहेला सेना भीमताल, रामगढ़ और प्यूडा के रास्ते अल्मोड़ा पहुंच गई। राजधानी पर रोहेलों का अधिकार हो गया। कुमाऊँ के इतिहास में यह असाधारण घटना है। लगभग आठ-नौ सौ वर्षों की अक्षुण स्वतंत्रता खतरे में पड़ गई। रोहेलों ने जम कर मंदिरों को तोड़ा और लूटा। राजा कल्याण चन्द जान बचाकर गैरसैण (गढ़वाल) की ओर भाग गया। इस बीच तेजी से घटना चक्र घटे। कैड़ेरों में जोशी की बची खुची सेना का रोहेला सेना के साथ भीषण युद्ध हुआ। पर विजयश्री भाग्य में नहीं बदी थी। द्वाराहाट के पास गढ़वाल और कुमाऊ की सम्मिलित सेना ने अफगान सेना का विरोध किया, पर यहाँ भी पराजय हाथ लगी। अंततः सन्धि के उपरान्त रोहेले सात महीने यहाँ राज्य कर लौट गए।


    1745 के चैत्र महीने में एक बार फिर अफगान सेना रामनगर, बेतालघाट के कोसी मार्ग से अल्मोड़ा पर आक्रमण करने की तैयारी कर रही थी। शिवदेव जोशी ने अपने चुने हुए वीर सनिका का लेकर अफगानों के मुख्य केन्द्र बाराखेड़ी पर प्रचंड वेग से आक्रमण कर दिया। कड़ाके की ठड में यह युद्ध प्रातःकाल के समय हुआ। इसी स्थान पर अपनी पूर्व पराजय का प्रतिशोध लेने शिवदेव स्वयं सेना की अग्रिम पंक्ति में थे। उनकी रगों में अपूर्व उत्साह, अदम्य आत्मविश्वास, अप्रतिम शौर्य भरा था। भयकर प्रतिशोध की ज्वाला उनके हृदय में धधक रही थी। इस बार यदि स्वतंत्रता गई तो सदा के लिए गई। जान की बाजी लगाकर शिवदेव के उत्साहवर्धक नेतृत्व में कुमाउंनी वीरों ने अफगान शिविर पर धावा बोल दिया। शिवदेव जोशी और उनके चाचा हरिराम जोशी ने इस युद्ध में अद्भुत शौर्य दिखला कर कुमाऊं की स्वतंत्रता की रक्षा की। यह युद्ध इतना निर्णायक सिद्ध हुआ कि अफगान सेना कोटा भाबर, रामनगर, काशीपुर, जसपुर से हटकर रोहेलखण्ड की ओर चल दी। कुमाऊँ की लाज रह गई।


    राजा कल्याण चन्द ने अपने विश्वस्त सेनापति शिवदेव जोशी का सम्मान किया। समस्त तराई–भाबर का प्रबन्ध उसके हाथों में सौंप दिया। शिवदेव जोशी और हरिराम जोशी को स्यूनरा पट्टी (बारामण्डल) में गंगोला की कोटुली, कोटा में मलका का टांडा और मुड़िया (बाजपुर) में मौजा ठुली ढेहरी के गाँव जागीर के रूप में दिए। शाके 1677 का ताम्रपत्र इसका साक्षी है। शिवदेव जोशी की अटूट स्वामीभक्ति, अद्भुत कार्यक्षमता, प्रबन्धपटुता का राजा कल्याण चन्द पर गहरा प्रभाव पड़ा। बाद में राजा ने जोशी को तराई-भाबर सम्बन्धी सम्पूर्ण अधिकार दे दिए। उन्हें बख्शी की उपाधि दी और सूबदार नियुक्त किया। जोशी ने अधिक संख्या में सैनिक भर्ती किए। नगरकोट पंजाब से आए नगरकोटियों को सेना में भर्ती किया। मेवाती और हेड़ियों को संगठित किया। सुरक्षा के लिए रुद्रपुर, बाराखेड़ी, कोटा, काशीपुर में दुर्गों (गढी) की मरम्मत करवाई।


    इस बीच घटनाक्रम बदला। अवध के नवाब के आदेश पर उसके चकलादार तेजूगौड़ ने तराई परगना, सरबना पर अधिकार कर लिया। जोशी ने सरबना पर आक्रमण कर दिया। युद्ध मे शिवदेव जोशी बुरी तरह घायल हुए। तेजूगौड़ ने उन्हें बन्दी बनाकर अवध भेज दिया। वहां शिवदेव एक वर्ष तक बन्दी रहे। मोहम्मद शाह के दबाव डालने पर अवध के नवाब ने जोशी को मुक्त किया।


    सन् 1748 में राजा कल्याण चन्द का स्वास्थ्य अत्यन्त गिर गया। उत्तराधिकारी राजकुमार दीपचन्द अभी नाबालिग था। राजा ने जोशी को राजकुमार दीपचन्द का संरक्षक नियुक्त किया। कुछ ही दिनों बाद राजा कल्याण चन्द की मृत्यु हो गई। शिवदेव जोशी ने दीपचन्द के राज्याभिषेक होने तक राज्य का प्रबन्ध किया। सन् 1772 में एक दिन काशीपुर में भाड़े के सैनिकों ने धोखे से जोशी का वध कर दिया। (कुछ इतिहासकार इस घटना को अल्मोड़ा में घटित होना बताते हैं)।


    जोशी के निधन के बाद कूमान्चल का सौभाग्य सूर्य अस्त हो गया। 30 वर्षों तक कुर्मान्चल के इस महान प्रशासक ने राज्य की स्वाधीनता, चन्द राजवंश की मान प्रतिष्ठा, गौरव-गरिमा सुरक्षित रखी। कल्याण चन्द्रोदय काव्य के छठे और सातवें सर्ग में कवि शिवानन्द पाण्डे लिखते हैं- शिवदेव जोशी युद्ध के समय घोड़े से उतरकर 'सहज जमीन' में लड़ाई करता था। वह दोनों हाथों से तलवार चलाता था।


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