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    पौड़ी गढ़वाल का स्वतंत्रता संग्राम में योगदान -1

    सन् 1798 के आरम्भ में अल्मोड़ा पर गोरखा शासन की पताका लहराने लगी थी, अगले ही वर्ष उन्होंने गढ़वाल पर भी आक्रमण किया, लेकिन इस ओर उनकी प्रगति काफी धीमी रही, 1799 से उन्हें 1804 तक जाकर गढ़वाल में सफलता मिली, और वे वहां के शासक बन सके। गोरखा शासन में दासप्रथा से जनता त्रस्त रही, उनके समय में यह प्रथा काफी विकृत हो चुकी थी। हरिद्वार में उन्होंने एक दास बाजार कायम कर रखा था, जिसके बारे में एक प्रत्यक्षदर्शी अंग्रेज 'रेपर' ने 1808 में लिखा था कि "हर की पैड़ी की ओर जाने वाली घाटी की जड़ में गोरखा चौकी है जहां पर पहाड़ से दासों को लाकर बेचने के लिए प्रदर्शित किया जाता है। ये लोग सैकड़ों की संख्या में प्रति वर्ष बाजार में बेच दिये जाते हैं। ये दास पहाड़ के भीतरी भागों से हरिद्वार में 10 रूपये से 150 रू. की दर से बेचे जाते हैं।" उस समय के करों और अन्य कष्टों का उल्लेख करते हुए अल्मोड़े के एक कवि गुमानी ने लिखा है:
    दिन दिन खजाना का भार का बोकनाले
    शिव शिव चुलने बालने का केका
    तदपि मुल्क तेरो छोड़ने कोई भाजा
    इति बदति गुमानि धन्य गोरखाली राजा।


    1814 में अंग्रेजों ने गोरखों पर आक्रमण किया और भयंकर युद्ध के बाद गोरखों को सन्धि करने के लिए बाध्य किया। आन्तरिक मतभेदों के कारण गोरखाओं को बराबर असफलता का सामना करना पड़ा अन्ततः 27 अप्रैल 1815 को लड़ाई बन्द हो गयी। 2 दिसम्बर 1815 को अंग्रेजों के साथ हुई सन्धि में काली से पश्चिम का पहाड़ी प्रदेश पूरा का पूरा अंग्रेजी सरकार को मिल गया। गढ़वाल में 1815 की जुलाई की सिंगोली सन्धि के उपरान्त अंग्रेजों ने महाराजा सुदर्शन शाह से 'गढ़वाल' का हिस्सा प्राप्त किया। अतः गढ़वालियों में उस समय तक गोरखा आक्रमण की भयावहता के सामने, अंग्रेजों के प्रति सम्मान की भावना थी। लेकिन कालान्तर में अंग्रेजों की नीतियों ने ब्रिटिश गढ़वाल में जन आन्दोलनों को भड़काया।


    बीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक में अंग्रेज शासकों ने पहाड़ी क्षेत्र में जंगलों की नई प्रशासनिक व्यवस्था प्रारंभ कर स्थानीय जनता के परम्परागत अधिकारों का दमन करना प्रारम्भ कर दिया, गांव के निवासियों कि निःशुल्क सविधायें समाप्त कर दी गईं। फलतः ग्रामीण जनता में असन्तोष फैलने लगा। अतः गढ़वाली ग्रामीणों/किसानों ने एक आन्दोलन शुरू किया, जिसे जंगलात आन्दोलन के नाम से जाना जाता है।


    समयानुसार गढ़वाली युवकों ने अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त की तथा वापस गढ़वाल की धरती पर आये तो उन्हें अहसास हुआ कि हमें गढ़वाल में नष्ट एवं भ्रष्ट हो चुकी राजनीतिक प्रशासनिक व्यवस्था में परिवर्तन करना है। ऐसे सुधारवादी निचारधारा के समर्थक व्यक्तियों में रायबहादुर तारादत्त गैरोला, गिराजादत्त नैथानी, चन्द्रमोहन रतूड़ी के नाम उल्लेखनीय हैं। इसी विचारधारा तहत कुछ संस्थायें भी खोली गईं, जैसे – 'गढ़वाल सभा' 'गढ़वाल यूनियन' आदि महत्त्वपूर्ण हैं।


    समाज सुधार आंदोलन में इन विद्वानों का ध्यान तत्कालीन मुख्य समस्या – 'कुली बेगार-प्रथा' की ओर गया। पालकी डोला प्रथा के प्रति भी नाराजगी जाहिर की गई। यह कु प्रथा "कुली बेगार प्रथा" के नाम से प्रसिद्ध है। इसमें बिना मजदूरी दिये काम करवाया जाता था, जिसका जनता में भारी विरोध था।


    गढ़वाल में जंगलात की कुव्यवस्था व दमन कारी कानून एवं 'बेगार प्रथा' ने जनमानस में एक राजनीतिक चेतना जागृत की। सर्वप्रथम श्री तारादत्त गैरोला ने प्रांतीय कौन्सिल में इस प्रथा का जोरदार विरोध किया। 1908 में श्री जोध सिंह नेगी ने जिले में कुली 'बेगार प्रथा' की समस्या के समाधान हेतु "ट्रान्सपोर्ट एण्ड सप्लाई कोअपरेटिव सोसायटी” नामकी संस्था बनाई। इस संस्था ने 1908 से 1920 तक कार्य किया।


    विभिन्न प्रकार की समस्याओं से निकलकर गढ़वाल के लोगों में अंग्रेजी शासन के विरुद्ध आवाजें उठने लगी थीं। 1919 में मुकन्दी लाल वैरिस्टर इंग्लैण्ड से वापस पहाड़ में आये तो समस्त जागरुक नेताओं व जनता में उत्साह की लहर दौड़ गई। तथा नेताओं ने राष्ट्रीय आन्दोलन में कूदने की तैयारी की। इस पंक्ति में सर्वप्रथम श्री अनसूइया प्रसाद बहुगुणा थे, जो कि अखिल भारतीय कांग्रेस के सदस्य बने, उन्होंने श्री मुकन्दी लाल वैरिस्टर के साथ मिलकर कांग्रेस संगठन को मजबूत करने का प्रयास किया। 1919 की अमृतसर कांग्रेस के अधिवेशन में बहुगुणा व मुकन्दी लाल जी प्रतिनिधि बनकर गये, वहां पर 1908-09 के रौलेट एक्ट का उन लोगों ने जोरदार विरोध किया तथा ब्रिटिश सरकार की नीतियों व कार्यप्रणाली की जमकर आलोचना की। वहीं से इन लोगों ने गढ़वाल में आकर कुली बेगार प्रथा के विरोध में जनाआन्दोलन को तीव्र कर दिया।


    1931 में यमकेश्वर में श्री नरदेव शास्त्री के नेतृत्व में सम्मेलन हुआ, यह सम्मेलन काफी सफल रहा, इसमें दूर-दूर के पहाड़ी क्षेत्र के लगभग 6 हजार व्यक्ति शामिल हुए थे। गढ़वाल में यह अपनी तरह का पहला राजनीतिक सम्मेलन था। श्री नरदेव शास्त्री के नेतृत्व में पैदल चलकर कार्यकर्ताओं ने गढ़वाल के डाडामण्डी, कोटद्वार आदि स्थानों पर सभायें की। असेम्बली के चुनाव में जब जगमोहन सिंह नेगी ने चुनाव लड़ा तो नरदेव शास्त्री ने इस क्षेत्र में काफी प्रचार किया। इस अवसर पर पं. जवाहर लाल नेहरू भी उपस्थित हुए थे।


    गढ़वाल में राजनीतिक जागृति का प्रभाव भी दूरगामी था। भूमिहीन हरिजनों की ओर सहानुभूति का रवैया देखने को मिला। हरिजनों व सवर्णों के बच्चे स्कूलों में साथ-साथ पढ़ने लगे तथा शिक्षा का प्रसार होने लगा। प्रवासी गढ़वाली जो कि करांची, क्वेटा, लाहौर, दिल्ली, देहरादून, लखनऊ, कलकत्ता में थे, कुछ सेना में थे सबके अन्दर आत्मबलिदान व देश प्रेम की भावना घर कर चुकी थी।


    गढ़वाल में जितने भी कार्यकर्त्ता स्वतंत्रता एवं जन आंदोलनों में शामिल हुए, उनमें अधिकांश नमक सत्याग्रह के दौरान प्रकट हुए। गढ़वाल में 1930 में स्वतंत्रता आंदोलन, जनआंदोलनों के माध्यम से अपनी जड़ें जमा रहा था। गढ़वाल की प्रसिद्ध मण्डी 'दुगड्डा' इसका केन्द्र था। सरदार भगत सिंह के विचारों का प्रभाव गढ़वाली युवकों पर स्पष्ट पड़ने लगा था। क्योंकि गढ़वाली युवक लाहौर व पंजाब में रह रहे थे अतः उनका सरदार भगत सिंह के विचारों से अछूता रहना नामुमकिन था। क्रान्तिकारियों के लिए 'चांद' जैसे महत्वपूर्ण समाचार पत्र व विशेषांक निकलने लगे, गढ़वाल के उदयपुर क्षेत्र में श्री छवाण सिंह नेगी धीरे-2 शक्ति के केन्द्र बन रहे थे। उन्होंने कई कार्यकर्ताओं को जन आंदोलन में शामिल किया, सदानंद कुकरेती ने 'सिलोगी' में राष्ट्रीय विद्यालय खोला जहां 1920 में ही आंदोलनकारी कार्यकर्ता एकत्रित होने लगे। 'विशाल कीर्ति' का सम्पादन भी श्री कुकरेती कर रहे थे।


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