पर्वतराज हिमालय की पत्री तथा कैलाशपति शिव की अर्धांगिनी होने के कारण देवी नन्दा के प्रति उत्तराखण्ड के प्रत्येक व्यक्ति की अनन्य श्रद्धा एवं आस्था होने से सम्पूर्ण उत्तराखण्ड में इसके अनेक शक्तिपीठ तथा पूजास्थल स्थापित हैं, किन्तु इन सबमें नौटी की नन्दाराजजात का तथा अल्मोड़ा के नन्दा महोत्सव का विशेष महत्वपूर्ण स्थान है। इसकी इस विशिष्ट मान्यता का एक अन्य कारण यह भी रहा है कि इसके प्रति गढ़वाल के पाल शासकों तथा कुमाऊँ के चन्द शासकों में उनकी कुलदेवी की मान्यता भी रही है। चन्दों के द्वारा इसे कुलदेवी के रूप में पूजे जाने के कारण इसकी स्थापना तथा इसके सम्मान में आयोजित किये जानेवाले उत्सव का मुख्य केन्द्र चन्दों की उत्तरकालीन राजधानी अल्मोड़ा रहा है। जहां पर भाद्र शुक्ल अष्टमी (राधाष्टमी) के अवसर पर तीन दिन तक इसे बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है।
इस सम्पूर्ण प्रक्रिया को एक धार्मिक अनुष्ठान के रूप में सम्पन्न किया जाता है, जिसका शुभारम्भ पंचमी तिथि को किया जाता है। इस मंदिर में गणपति आदि देवी-देवताओं के साथ नन्दा की पूजा की जाती है। अगले दिन नन्दा एवं सुनन्दा के डिकरे (मूर्तियां) बनाने हेतु केले के वृक्षों का चयन किया जाता है। एतदर्थ कदली वन (कले के बगीचे) में जाकर तत्रस्थ वृक्षों की अक्षत, चंदन तथा दीप से पूजा की जाती है और फिर अभिमंत्रित अक्षतों को उनकी ओर उछाला जाता है। इस पर जिसके पते पहले हिलें उसे देवी के लिए स्वीकार्य समझा जाता है। यह प्रक्रिया चार बार दुहराई जाती है और उसी क्रम से चार वृक्षों का चयन किया जाता है। लगभग ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार कि जगन्नाथपुरी में भगवान जगन्नाथ का नवीन रथ तैयार करने के लिए जंगल में जाकर वृक्षों का चयन किया जाता है। इस प्रकार से चयनित इन वृक्षों पर सफेद और लाल रंग के वस्त्रखण्ड लपेट दिये जाते हैं। अगले दिन अर्थात् सप्तमी को प्रात:काल ही इनकी पूजा की जाती है और एक बलि भी दी जाती है। पहले बलि वास्तविक रूप में अजबलि हुआ करती थी, किन्तु अब जटायु नारियल के रूप में यह प्रतीकात्मक हो गयी है।
तदुपरान्त केले के वक्षों के इन तनों को काटकर बड़ी धूम-धाम से गाजे-बाजों के साथ नन्दा के मंदिर के प्रांगण में लाया जाता है। वहां चंद राजवंश के किसी व्यक्ति या प्रतिनिधि के द्वारा इनकी पूजा की जाती है। फिर उनमें से दो ऐसे तनों का चयन किया जाता है जो किसी प्रकार से विक्षत या विकत न हों तथा उन्हें नियत आकार में काटकर कलाकारों द्वारा उन्हें नन्दा तथा सुनन्दा की मूर्तियाें (मुखौटों) का रूप दिया जाता है। यह कार्य पहले बांस की खपच्चियों को बेंत की तीलियों के साथ धागाेंं से बाधकर उनका मूल ढांचा तैयार करके फिर उन्हें प्राकृतिक रंगों से रूपायित किया जाता है। इसमें आंखों, भौंहाें को उड़दों को जलाकर पीसकर तैयार किय गये काले रंग से दर्शाया जाता है, श्वेत रंग को भिगाकर पीसे गये चावलों के बिस्वार से, हरे रंग की गिवाई आदि के पत्तों से तथा लाल को इंगूर आदि से दर्शाया जाता है। तदनन्तर पर्वतीय वस्त्रालंकरणी वेषभूषा में इन्हें अलंकृत किया जाता है तथा मध्य रात्रि में चन्दवंश के किसी उत्तराधिकारी द्वारा इनकी प्राणप्रतिष्ठा की जाती है।
अल्मोड़ा की नन्दादेवी के विषय में कहा जाता है कि सन् 1655 में चन्द शासक बाजबहादुरचन्द के द्वारा गढ़वाल के जूनागढ़ किले को जीत कर वहां पर स्थापित नन्दा की मूर्ति को लाकर अल्मोड़ा में अपने मल्ला महल में स्थापित करने से पूर्व तक उनकी अपनी कुलदेवी सुनन्दा की ही पूजा होती थी। इसके बाद ही दो बहिनों के रूप में इन दोनों की पूजा की जाने लगी। वस्तुतः चन्दों की कुलदेवी सुनन्दा की वास्तविक मूर्ति तांत्रिक विधि से एक चांदी की मंजूषा में राजपरिवार के पास सुरक्षित रखी हुई होती है। इसे राजा तथा पुजारी के अतिरिक्त और कोई देख नहीं सकता। पूजा में भाग लेने वाला राजवंशी व्यक्ति अष्टमी को उसे अपने साथ लाता है। रजत मंजूषा से उसे निकालकर उसका नूतन अलंकरण किया जाता है। नन्दा-सुनन्दा की नवनिर्मित मूर्तियों (डिकरों) के पूजन के बाद मन्दिर में स्थापित मूर्तियों के साथ इस रजत प्रतिमा का भी पूजन किया जाता है।
नन्दा महोत्सव (मेले) का आयोजन वस्तुत: अष्टमी को ही होता है। इस दिन पहले भैरव का पूजन करके एक बकरे तथा एक भैंसे की बलि दी जाती थी तथा उसके बाद क्षेत्रपाल का पूजन होता है। अब बलि के लिए भैंसे के स्थान पर पेठा काटा जाता है। अगले दिन नन्दा-सुनन्दा की कदली निर्मित मूर्तियों को डोले में रखने से पूर्व राजवंशी व्यक्ति द्वारा उनकी पूजा की जाती है तथा शुभमुहूर्त में उन्हें शोभायात्रा के लिए डोले में रखा जाता है। इस दिन मंगल, बृहस्पति या शनिवार होने से डोला अगले दिन निकाला जाता है। डोला उठाने से पूर्व भी बकरे व (भैंसे) पेठे की बलि दी जाती है और सभी लोग उसका प्रसाद ग्रहण करते हैं। भैंसे की बलि के दिनों में केवल उसक रक्त का टिका लगाया जाता था। मुख्य मंदिर में स्थापित नन्दादेवी के सामने भी दो बकरों की बलि दी जाती थी।
इसके बाद पूरी धूमधाम के साथ लोकवादकों, लोकगायकों तथा लोकनर्तकों की सजी-धजी मंडलियों के साथ डोले का प्रस्थान प्रारम्भ होता है जो कि डोले की अगवानी करते चलते हैं। डोले के ठीक पीछे राजपरिवार के लोगों के लिए तथा उनके पीछे नन्दादेवी कमेटी के सदस्यों के लिए स्थान नियत होता है। अन्य लोग इसके पीछे चलते हैं। नन्दा के वर्तमान मंदिर से चलने वाली नन्दा-सुनन्दा के डोले की यह शोभायात्रा पहले उस स्थान पर पहुंचती है जहां पर कि चन्दों के राजमहल में इसकी प्रथम स्थापना की गयी थी तथा जो अब 'ड्योढ़ी पोखर' के नाम से जाना जाता है। यहां पहुंचने पर पुरातन मन्दिरों में राजा साहब के द्वारा पुनः उसकी पूजा की जाती है। परिवार की महिलाओं द्वारा आरती उतारी जाती है, तदनन्तर यह यात्रा मूर्तियों के विसर्जनार्थ नगर के दूसरे छोर पर स्थित दुगाल नौले की ओर से अग्रसर होती है, पर राजपरिवार के लोग एक निश्चित बिन्दु तक जाकर उन्हें विदाई देकर लौट जाते हैं। नौले में विसर्जन का कार्य अन्य लोगों के द्वारा श्रद्धाभक्ति पूर्वक पूरे सम्मान के साथ किया जाता है।
तीन दिन तक चलने वाले इस मेले का महत्त्व व्यावसायिक की। अपेक्षा सांस्कृतिक अधिक हुआ करता था। यहां के अन्य लोकोत्सवों के समान ही इसमें भी लोकगायकों व लोकनर्तकों की टोलियां अपने गीतों व नृत्यों से जनता का मनोरंजन किया करती थी। यहां के प्रसिद्ध लोकगायक व लोकनर्तक मंडलियां बांध कर अपने लोकवाद्यों के साथ यहां आते थे तथा अपने चुनींदा एवं नवरचित गीतों को गाकर उन्हें लोगों का कण्ठहार बनाते थे। मेले में खेल-खिलौनों, श्रृंगार-प्रसाधनों तथा अन्य उपयोगी वस्तुओं का एवं यहां के प्रसिद्ध विशिष्ट मिष्ठाओं का विक्रय होता था। देवी के भक्तजन उसकी सामान्य पूजा-अर्चना के अतिरिक्त उसे पंचबलि या अष्टबलि (अठवाड़) भी चढ़ाते थे। उल्लेख्य है कि अठवाड़ में सात बकरों के साथ आठवीं बलि के रूप में भैंस के एक कट्टे की भी बलि दी जाती थी। कुछ लोग इन सामूहिक बलियों के अतिरिक्त एकाकी-अजबलियां भी चढ़ाते थे। अब महंगाई एवं महिषबलि के प्रति अरुचि साथ ही मंदिरों में बलि पे प्रतिबंध हो जाने से अठवाड़ और एकाकी अजबलि जैसी बलियां बंद हो गयी हैं।
उत्सव के अन्तिम दिन इन दोनों को गाजे-बाजों के साथ सारे नगर में घुमाया जाता है। अन्त में अल्मोड़ा में उपर्युक्त नियत स्थान पर तथा नैनीताल में पाषाणदेवी के पास सरोवर में इन्हें विसर्जित कर दिया जाता है।
कदली वृक्षों से नन्दा-सुनन्दा के डीकरें (मूर्तियां) बनाये जाने तथा इस अवसर पर अज एवं महिष बलि दिये जाने से सम्बन्ध में कहा जाता है कि नन्दा यहां के शासकों की इष्टदेवी होने के अतिरिक्त चन्दशासका की एक बहिन का नाम भी नन्दा था। एक दिन जब वह अपने मायके के लिए आ रही थी तो मार्ग में एक खूंंखार जतिया (भैंसा) उसके पीछे पड़ गया। उससे बचने के लिए वह पास में ही स्थित एक कदली के कुंज में छिप गयी। किन्तु उसी समय वहां पर एक बकरा आ गया और उसने केले के उन पत्तों को खा दिया जिनकी ओट में वह छिपी हुई थी। फलतः उस खूंंखार भैंसे ने उसे मार डाला। उसके भाई कल्याणचन्द ने वहां पर उसकी स्मृति में एक मंदिर का निर्माण करवाया तथा भैंसे व बकरे से प्रतिशोध लेने की भावना से वहां पर उनकी बलि का विधान कर दिया तथा केले का महत्त्व प्रदान करने के लिए उसके तने से देवी की मूर्तियों का निर्माण कराया जाने लगा। तभी से अल्मोड़ा के नन्दोत्सव के अवसर पर यह परम्परा चली आ रही है। इसके बाद जब नैनीताल में भी 'नन्दोत्सव' मनाया जाने लगा तो इस परम्परा का पालन वहां पर भी किया जाने लगा। पहले नैनीताल में नन्दा की प्रतिमा प्लास्टर ऑफ पेरिस से बनायी जाती थी किन्तु अब कुछ समय पूर्व से केले के डीकरे से बनाये जाने लगे हैं।
नन्दाष्टमी का पर्व जोहार में भी मनाया जाता है किन्तु किंचित् भिन्न रूप में। निश्चित तिथि से 3-4 दिन पूर्व रात्रि के समय मंदिर या किसी अन्य विशिष्ट स्थान पर बाजा बनाकर देवी का आह्वान किया जाता है। इसके बाद सप्तमी के दिन कुछ लोगों को कौंल-कफू (ब्रह्मकमल) फूल को लाने के लिए भेजा जाता है जो कि लगभग 5000 फीट की ऊंचाई पर उत्पन्न होते हैं। पूजा के दिन प्रात:काल फुलेरों (फूल लाने वालों) के पहुंचने पर ग्रामवासी गाजे-बाजों सहित हर्षोल्लास के साथ 'छिला त्वी देवीक सेवा कोंल वरष दीन' गाते हुए मंदिर में जाते हैं तथा वहां पर बकरों तथा भैसों की बलि चढ़ाई जाती है। इसके अतिरिक्त कोटभ्रामरी में भी नन्दाष्टमी का उत्सव पूरे धूमधाम से मनाया जाता है। गढ़वाल में नन्दादेवी के उत्सव नौटी, देवराड़ा, कुरुड़, गैर, सिमली, कालीमठ आदि अनेक स्थानों पर मनाया जाता है।
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