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    मौला राम

    ‌मौलाराम (1740-1833): गढ़वाली चित्रकला शैली के सर्वप्रथम आचार्य, कुशल राजनीतिज्ञ, इतिहासकार और साहित्यकार मौलाराम दिल्ली के चित्रकार शामदास की पाँचवी पीढ़ी में जन्मे थे। इनका जन्म श्रीनगर, गढ़वाल में हुआ था। इनके पिता मंगतराम और माता रमादेवी पेशे से स्वर्णकार थे। इन्होंने अपने पिता से स्वर्णकला के साथ-साथ चित्रकला भी सीखी थी। इनके चित्रों में हिमालय की छटा, गढ़वाली पशु-पक्षियों और वृक्षों की शोभा तथा नदी का चित्रण है। भारतीय संस्कृति उस समय की चित्रकला पद्धति और प्रगति, सामान्य साहित्य, सरलता तथा सौन्दर्य को परिलक्षित करती है। तत्कालीन चित्रकला में अतीत की गम्भीरता और शनै:शनैः आगे बढ़ती अट्ठारहवीं सदी की प्रचुर रमणीयता पाई जाती है। सांसारिक और असांसारिक विषयों को रंगों में बांधा गया है।


    ‌हिन्दी साहित्यकार डा. पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल के शब्दों में- 'मध्यकाल की सांस्कृतिक सुषुप्ति के युग में पहाड़ी चित्रकार ही कला के भारतीयपन को जागृत कर सके हैं। मौलाराम ने पहाड़ी चित्रकला को श्रेष्ठ नेतृत्व प्रदान किया है।'


    ‌बंगाल के प्रमुख कलाविद प्रो. आर. सी. गांगुली के अनुसार- 'गढ़वाल के मौलाराम के नेतृत्व में कांगड़ा शैली के चित्रकारों ने भारतीय चित्रकला के समूचे इतिहास में सुन्दरतम अध्याय जोड़ा है।'


    ‌प्रसिद्ध चित्रकार अजीत घोष के अनुसार- 'कई दृष्टियों से गढ़वाली चित्रकला अपनी समकालीन कांगड़ा चित्रकला शैली से बहुत आगे प्रतीत होती है।'


    ‌उत्तराखण्ड के अन्य साहित्यकार श्री वाचस्पति गैरोला (पौड़ी) के शब्दों में 'सदियों से पिछड़ी और अस्तित्व की तलाश में भटकती गढ़वाली चित्रकला शैली ने एक ही दशक की अल्पायु में अपनी अलग पहचान बनाकर भारतीय चित्रकला की समृद्धि में एक नवीन अध्याय जोड़ा है।'


    ‌मौलाराम की कलाकृतियाँ आज भी हमारी गौरवशाली इतिहास की समृद्धि को पुष्ट कर रही हैं। अमेरिका के प्रसिद्ध 'बोस्टन संग्रहालय' में मौलाराम के उत्कृष्ट कला चित्र शोभा बढ़ा रहे हैं। इससे पूर्व 1947-48 में इनकी चित्रकला को विश्व चित्रकला प्रदर्शनी में लन्दन में दिखाया जा चुका है। मौलाराम को प्रकाश में लाने का श्रेय बैरिस्टर मुकुन्दीलाल को जाता है।


    ‌चित्रकार ही नहीं मौलाराम अपने कालखण्ड के श्रेष्ठ साहित्यकार और इतिहासकार भी रहे हैं। उत्तराखण्ड के मूर्धन्य इतिहासकार डा. शिव प्रसाद डबराल की खोज के अनुसार मौलाराम के अब तक 35 हिन्दी काव्य खोजे जा चुके हैं। जिनमें ऐतिहासिक गाथाओं पर आधारित काव्य-12, पौराणिक आख्यानों पर आधारित काव्य-6, सन्त काव्य-10, राष्ट्रीय उद्बोधन सम्बन्धी काव्य-3, नीति एवं श्रृंगारिक काव्य-4 हैं।


    ‌मौलाराम ने गढ़वाल के चार राजाओं के शासन काल मे कार्य किया। प्रदीप शाह (1717-1722) ललित शाह (1722-1780 ), जयकृत शाह (1780-1785 , प्रद्युम्न शाह (1785-1804)। इन सभी नरेशों ने इन्हें पर्याप्त प्रोत्साहन दिया। मौलाराम ने अपने 93 वर्षीय जीवन काल में कई युगों को देखा। गोरखा दरबार की कृपा पर भी आश्रित रहे और 1815 में अंग्रेजी राज भी देखा।


    ‌मौलाराम की कला और साहित्य को प्रचार प्रसार और सम्वर्धन की नितान्त आवश्यकता है, ताकि आने वाली पीढ़ी अपनी समृद्ध कला से प्रेरणा लेकर भारतीय संस्कृति को सम्पुष्ट कर सके।


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