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    उद्योत चंद - चंद वंश

    1678 ई0 में बाजबहादुर चंद की मृत्यु के उपरांत उसका बड़ा पुत्र उद्योत चंद गद्दी पर बैठा। चंद राजाओं में भारती चंद के बाद यही वह राजा था जिसने नेपाल पर आक्रमण कर वहां की ग्रीष्मकालीन राजधानी अजमेरगढ़ पर अधिकार किया था। उद्योत चंद के अभी तक अनेक ताम्रपत्र प्राप्त हो चुके हैं। इनमें एक ताम्रपत्र बरम (मुवानी-पिथौरागढ़) से प्राप्त हुआ है। यह 1679 ई. का है। इसमें उद्योत चंद की धाईमाता की बीमारी का उल्लेख हैं, प्रतीत होता है कि धाईमाता को अंततः राजवैद्य ने ठीक किया और सूर्यग्रहण के दिन संकल्प की गई भूमि को राजा ने वरदेव जोशी को प्रदान कर दिया, वह राजवैद्य था।


    अन्य पूर्ववर्ती राजाओं की भांति उद्योत चंद ने भी गद्दी पर आसीन होने के तुरंत बाद गढ़वाल पर आक्रमण किया था। उसे गढ़वाल के साथ-साथ डोटी-राज्य से भी खतरा बना हुआ था, क्योंकि उसके विरूद्ध गढ़नरेश व डोटी के राजा देवपाल ने संधि कर रखी थी, जिसके अनुसार दोनों ने एक साथ पूर्व व पश्चिम से कुमाऊँ पर हमला करने का संकल्प ले रखा था। उन दिनों समूचे नेपाल को 'डोटी' कहा जाता था, और सीरा में मल्लों द्वारा राज्य स्थापित कर लेने पर सीरा को वल्ली डोटी कहा जाता था। बहरहाल, डोटी नरेश देवपाल ने चंदों की पुरानी राजधानी चंपावत पर हमला कर उसे अपने अधिकार में कर लिया। यह घटना उद्योत चंद के राज्याभिषेक के दो-तीन वर्ष के अंदर ही घट गई थी। फलतः उद्योत चंद को पूर्व व पश्चिम दोनों ओर एक साथ उपरोक्त आक्रमणों से जूझना पड़ा, क्योंकि गढ़ नरेष ने भी दूनागिरी व द्वाराहाट (दोराहाट) पर हमला कर दिया था। लछिमन चन्द्र के मूनाकोट ताम्रपत्र में इसे दोरा कहा गया है। उद्योत चंद ने दोनों राजाओं का एक साथ मुकाबला कर उन्हें अपनी राज्य-सीमा से खदेड़ बाहर किया और उन पर चौकसी रखने के लिए दोराहाट, दूनागिरी, चंपावत, सोर और ब्रह्देव मंडी में छावनियां स्थापित कर दीं। डोटी से पुनः युद्ध तथा अजमेरगढ़ का विध्वंस-उपरोक्त विजयों को देवताओं का प्रसाद समझकर अब उद्योत चंद प्रयाग राज में स्नान करने निकल पड़ा। 1682 ई. में उन्होंने प्रयाग राज के रघुनाथपुर घाट में स्नान किया। उसकी इस अनुपस्थिति का लाभ उठाकर डोटी के रैका राजा देवपाल ने पुनः काली कुमाऊँ पर अधिकार कर लिया। उद्योत चंद ने जल्दी में अपनी राजधानी की ओर कूचकर एक बड़ी सुदृढ़ सेना बनाई और डोटी नरेश को सबक सिखाने के लिए चंपावत की ओर चल पड़ा। उद्योत चंद का आगमन मात्र सुनकर डोटी नरेश काली पार अपनी ग्रीष्मकालीन राजधानी अजमेरगढ़ की ओर भाग खड़ा हुआ। फिर क्या था, उद्योत चंद की सेना ने काली नदी पार कर उसकी राजधानी अजमेरगढ़ पर चढ़ाई कर दी। यह गढ़ उड़ेलधुरा के पास स्थित था। उद्योत चंद की सेना द्वारा उड़ाई गई धूल की हवा मात्र सूंघ कर वह वहां से भी अपनी शीतकालीन राजधानी जुराइल-दिपाइल कोट की ओर भाग गया, जो सेटी नदी के किनारे पर अवस्थित थी। उद्योतचंद की सेना ने अजमेरगढ़ को लूटकर उसे धूल में मिला दिया, और लूट का माल लेकर उसकी सेना वापस चली आई। संभवतः उसने इसे अपने अधिकार में नहीं किया था, और नही इसमें अपनी कोई सेना रखी। देवपाल ने लौटकर भी उसका प्रतिरोध नहीं किया। डोटी का राजा चंद राजा से इसलिए चिढ़ता था कि चंदों ने सीरा व सोर से डोटी का आधिपत्य समाप्त कर उनमें अपना अधिकार कर लिया था। इस सैनिक अभियान में उद्योत चंद का सेनापति हिरू देउबा मारा गया था, जिसके वंशजों को राजा ने आठ गांव 'रौत' (बहादुरी) में दिये थे। अजमेर गढ़ पर 1683 ई. के आसपास विजय की गई थी।


    प्रतीत होता है कि अब उद्योत चंद अजमेर गढ़ की विजय से वापस अपनी राजधानी आया था, तो डोटी नरेश ने सीमाओं पर उपद्रव करना प्रारम्भ कर दिया था। अंतः उद्योत चंद को पुनः डोटी पर चढ़ाई करनी पड़ी। इस बार के आक्रमण में कुमाऊँनी सेना ने उसे जुराइल-दिपाइल कोट से भी भगाकर देश के खैरागढ़ नामक किले में शरण लेने को बाध्य कर दिया। 1688 ई. में उद्योत चंद ने खैरागढ़ पर अधिकार कर लिया। वहां अंततः दोनों के मध्य एक संधि हुई। संधि के फलस्वरूप डोटी नरेश ने कुमाऊँ नरेश को कर देना स्वीकार किया। इससे उद्योत चंद प्रफुल्लित हो उठा और अल्मोड़ा पहुंचकर उसने खुशी में एक महल का निर्माण किया। चाटुकारों को खुश करने के लिए त्रिपुरा सुंदरी, पार्वतीश्वर व उद्योत चंदेश्वर नामक मंदिर भी बनवा दिये।


    किंतु, 1696 ई. में उसने उद्योत चंद को कर देना बंद कर दिया। इस पर पुनः तीसरी बार उद्योत चंद डोटी परचढ़ बैठा। इस बार जुराइल-दिपाइल कोट में भीषण संग्राम हुआ। जिसमें डोटियालों की करारी चोटों से कुमय्यूं के पैर उखड़ गये। उद्योत चंद भागकर अल्मोड़ा आ गया, और शिरोमणि जोशी इसमें मारा गया। सेना में भी भगदड़ मच गई। डोटियालों के हाथ जो भी पड़ा, उसे ही मार डाला। बचे-खुचे सैनिक भी भागकर चले गये। इससे उद्योत चंद इतना दुःखी व निराश हुआ कि उसने युद्ध करने से ही तौबा कर दी।


    अब वह शांति की खोज में लग गया। एतदर्थ दूर-दूर से ज्योतिषी, विद्वान व विद्याव्यसनी बुलाये गये। शेष जीवन उसने धर्म-कर्म में लगाना प्रारम्भ कर दिया। कोटा भाबर के पास नई-नई आम्रवाटिकायें लगवाई गईं। यत्र-तत्र खूब फलदार वृक्ष लगवाये गये। सर्वत्र पूजा-पाठ की शंख-ध्वनि व घंटे-घड़ियाल बजने लगे। मंत्र-तंत्रों के इन्द्रजाल ने कुछ ही दिनों में राजधानी को गुंजायमान कर दिया। पर, राजा को तो अपनी नियति का आभास हो गया था। फलतः 1698 में स्वयं अपने हाथों राज-पाठ का भार अपने पुत्र ज्ञानचंद को सौंपकर राजा उद्योतचंद गोलोकवासी हो गया।


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