माँ झालीमाली के मन्दिर- फुगर गांव (चम्पावत)
कुमायूं की प्राचीन राजधानी चम्पावत नगर से पूर्व की ओर लगभग 2 कि.मी. दूरी पर गिड्या नदी के पार चम्पावत-तिमली सड़क मार्ग के आस-पास फुगर गांव में झालीमाली का सबसे प्राचीन मन्दिर है। कहते हैं कि झालीमाली की उत्पत्ति ही इस गांव से हुयी है। 'चम्पावत जनपद में उसके निकटस्थ फुगर पहाड़ी पर हिडिम्बा/हिंगला देवी मन्दिर के निकट ही झालीमाली देवी की स्थापना है। कहा जाता है कि झालीमाली काली कुमायूं के महर/रौत राजाओं की कुल देवी है। झालीमाली का पूजा स्थान बागेश्वर जनपद में कत्यूरियों की पुरातन राजधानी बैजनाथ तथा गढ़वाल में पौड़ी के निकट कंडारा में भी है' (संदर्भ-उत्तराखण्ड के लोकदेवता प्रो.डी.डी. शर्मा-2006) फंगर गांव में प्रमुखतया बोरा जाति के लोग रहते हैं। फंगर और उसके निकटवर्ती गांवों को बोराली याने बोरा लोगों के आधिपत्य वाला क्षेत्र कहा जाता है। बोरा जाति की कुल देवी झालीमाली है। इसी क्षेत्र के पुजारी जाति की भी इष्ट देवी झालीमाली ही है। गांव की सबसे ऊंची धार में झालीमाली और उससे लगभग 100 मी. की दूरी पर मेहल के पेड़ के पास मां भगवती का मन्दिर है। झालीमाली मन्दिर में कई देवी-देवताओं की मूर्तियां है। अभी कुछ ही वर्षों पहले ये मूर्तियां खुले आसमान में ही र्थी। पत्थरों से घेर कर इनको रखा गया था। बताते हैं कि विभिन्न समयों में नजदीकी इलाके की खुदाई से ये मूर्तियां प्राप्त हुयी थीं। सन् 1970 तक नवरात्रों में इस मन्दिर में भव्य मेला लगता था। जिसमें भाग लेने हेतु दूर-दूर से लोग झालीमाली मन्दिर में आते थे। मेले में लोग मां झालीमाली की पूजा के बाद झाली माली की ज्योति को अन्य पवित्र स्थलों में ले जाते थे। अब यह मेला नहीं होता है।
जोशीमठ
उत्तराखंड में जोशीमठ नगर कत्यूरी राजाओं की (7वीं से 10वीं शताब्दी तक) राजधानी रहा है। जोशीमठ में नृसिंह मन्दिर और आदि गुरु शंकराचार्य की पीठ प्रमुख स्थल हैं। प्राचीन नृसिंह मन्दिर परिसर में कई देवी-देवताओं के मन्दिरों का समूह है। नृसिंह मन्दिर प्रांगण में कत्यूरियों की कुलदेवी झालीमाली देवी के मन्दिर के अवशेष हैं। परन्तु झालीमाली देवी की मूर्ति गायब है (रणवीर सिंह चौहान- 1999)।
रणचुलाकोट
कत्यूर घाटी के गरुड -बैजनाथ क्षेत्र अन्तर्गर डंगोली के आस-पास की भूमि को झालीमाली क्षेत्र कहा जाता हैं। डंगोली की ऊपरी चोटी रणचूलाकोट (समुद्रतल से 975 मी. ऊंचाई) में मां भ्रामरी देवी का मन्दिर है। रणचूलाकोट कत्यूरी शासकों की फौजी छावनी थी। इस पहाड़ी पर सुरक्षा और सामरिक महत्व को देखते हुए दुर्गों का निमार्ण किया गया था। बैजनाथ के निकटवर्ती क्षेत्र में स्यूनराकोट और गोपालकोट ऐसे ही प्राचीन दुर्ग/किले हैं। वर्तमान में यह स्थल अल्मोड़ा-ग्वालदम सड़कमार्ग पर बैजनाथ से लगभग 3 कि.मी. की दूरी पर स्थित है। भ्रामरी मन्दिर में मां भ्रामरी शिला रूप में और नंदा मूर्ति स्वरूप प्रतिस्थापित हैं। मूल मन्दिर का निर्माणकाल 8वीं शताब्दी का माना जाता है। तथ्य बताते हैं कि भ्रामरी देवी को पूर्व में झालीमाली कहा जाता था। (प्रो.डी. डी. शर्मा)
ऐतिहासिक तथ्य है कि उत्तराखण्ड जोशीमठ से बाहर आने के बाद सूर्यवंशी कत्यूरी शासक असन्तीदेव ने अपनी सेना और राजपरिवार को लेकर बैजनाथ क्षेत्र में अपनी राजधानी बसाई। प्रारम्भ में इस संम्पूर्ण क्षेत्र को कार्तिकेयपुर कहा जाता था। कत्यूरियों ने अन्य देवी-देवताओं के साथ अपनी इष्टदेवी झालीमाली की शिला के रूप में डंगोली के निकट मेलाडुंगरी गांव की वर्तमान तोक झालामाली में स्थापित की। किवदन्ती है कि मां भगवती झालीमाली ने छः पांव वाले भ्रमर का रूप धारण कर अपने अनुचर भंवरों की सहायता से इसी पहाड़ की चोटी रणचूलाकोट स्थान पर आततायी राक्षस अरुण और उसकी सेना का बध किया था। अमर रूप धारण करने के कारण बाद में मां भगवती झालीमाली को स्थानीय लोगों द्वारा भ्रामरी कहा जाने लगा। यह मान्यता है कि आदि शंकराचार्य जी जब केदारनाथ-बदरीनाथ की यात्रा से वापस लौटे तो कुमाऊँ के कत्यूरी शासकों के अतिथि बने। राजा के आग्रह पर उन्होंने झालामाली गांव में स्थापित झालीमाली जिसे अब भ्रामरी देवी कहा जाने लगा था की शिला को रणचूला कोट में प्रतिस्थापित कर दिया। (प्रो.डी. डी. शर्मा, 2006 एवं मदन चन्द्र भट्ट- 2012) वर्तमान में भ्रामरी देवी को रणचूली देवी, कोट भ्रामरी, कोट की माई आदि नामों से भी पुकारा जाता है। यह उल्लेखनीय है कि प्राचीन समय में कत्यूर घाटी के रणचूलाकोट से ही नन्दादेवी राजजात की शुरुआत होती थी। बैजनाथ के निकट डंगोली क्षेत्र में झालामाली नाम का गांव है। झालामाली गांव के चारों ओर की एक निश्चित भूमि को झालीमाली क्षेत्र कहा जाता है। झालीमाली क्षेत्र में आज भी नियमित नौबत बजती हैं। प्रत्येक पहर और स्तुति पर नगाड़ा बजाया जाता है। जिसे प्रमुखतया झालामाली गांव के नागरची जाति के लोग बजाते हैं।
यह भी कहा जाता है कि झालामाली गांव में चन्द शासकों ने अपनी इष्टदेवी नन्दा की मूर्ति भी प्रतिस्थापित की थी। किवदन्ती है कि कुमायूं नरेश रूद्रचन्द (सन् 1591), बाज बहादुर चन्द (सन् 1664) अथवा राजा ज्ञानचन्द द्वितीय (सन् 1698) जब गढ़वाल से नन्दा की एक मूर्ति को अल्मोड़ा की ओर ला रहे थे, तो झालामाली गांव में उन्होंने विश्राम किया। विश्राम के उपरान्त जब वे चलने को हुये तो नन्दा मूर्ति स्वयं ही दो भागों में विभक्त हो गयी। राजपुरोहितों की सलाह पर राजा ने तब नन्दा की मूर्ति के एक भाग को झालामाली गांव में और दूसरे भाग को अल्मोड़ा में स्थापित करने का निर्णय लिया। कहा जाता है कि झालामाली गांव में कई देवी-देवताओं की मूर्तियां प्रतिस्थापित थीं। बाद में किसी भोगोलिक बदलाव के कारण ये मूर्तियां जमीन में दब गयीं, इस कारण नन्दा की मूर्ति को भी झालामाली गांव से हटा कर रणचूला कोट में स्थापित कर दिया गया। आज इसी झालामाली गांव में विभिन्न समयों में खुदाई से मिली कुछ मूर्तियों का समूह एक छोटे मन्दिर में विराजमान है। इस मन्दिर में श्रावण भ्रादपद की शुक्ल अष्टमी और चैत्र शुक्ल अष्टमी में भव्य मेले आयोजित होते हैं। यह मेले प्राचीन समय में प्रति वर्ष भ्रामरी और नन्दा मूर्ति के मूल स्थान झालामाली गांव में होते थे (गोपाल दत्त भट्ट-2013)।
कण्डारा
पौड़ी से सड़क मार्ग से 12 कि.मी. की दूरी पर कण्डारा (बारहजूला पट्टी) गांव में इड़गढ़ नदी के तट पर झालीमाली का प्राचीन मन्दिर है। मान्यता है कि इस स्थल पर अग्निकुंड से झालीमाली देवी अवतरित हुयी। यह भी कहा जाता है कि शताब्दियों पूर्व इस जगह पर ढाकर से लाये हुए नमक के थैले में देवी का प्रवेश हुआ था। यह एक संयोग है कि यहां देवी को राजपूत जाति के लोग बहिन या बेटी तो ब्राहमण बिरादरी के लोग बहू या मां के रूप में देवी का स्मरण करते हैं। अर्थात देवी के मायके वाले राजपूत और ससुराल पक्ष ब्राहमण का है।
झालीमाली देवी का जो जागर गाया जाता है। उससे पता चलता है कि वह कत्यूरी राजा पिथौरा और धामदेव की कुलदेवी थी। झालीमाली देवी के मन्दिर में जिस 'देवी शप्तशती' का पाठ किया जाता है, वह मार्कण्डेयपुराण का अंश है। कहा जाता है कि विविध कहानियों का संकलन कर मार्कण्डेय ऋषि ने 'देवी शप्तशती' रचना का सृजन किया। कण्डारा मन्दिर में झालीमाली के जागरों में मालूशाही के बाद उसके पुत्र मल्योहीत के आगे के वशंज हरूहीत और पुष्करहीत के शासन की भी चर्चा होती है। (दीप चन्द्र चौधरी,1994,)
झालीमठ
रुद्रप्रयाग से कर्णप्रया राष्ट्रीय सड़क मार्ग पर गौचर (790 मी.) एक ऐतिहासिक स्थल है। गौचर में लाभ 2 कि.मी. पैदल मार्ग पर अलकनन्दा के दाहिने ओर झालीमठ गांव है। झालीमठ के दक्षिण में अलकनन्दा नदी, पूर्व उत्तर दिशा में कावेरी गधेरा एवं पश्चिम में रावल गधेरा है, जो इस गांव की सीमाओं को निर्धारित करते हैं। झालीमठ गांव के प्रवेशद्वार पर ही वल्लभी शैली में निर्मित श्री झालीमाली मन्दिर समूह अवस्थित है। इतिहासविदों का अनुमान हैं कि 10 शताब्दी में इन मन्दिरों का निर्माण हुआ होगा। यहां स्थित 6 मन्दिरों में प्रमुख मन्दिर देवी झालीमाली का है। झालीमाली मन्दिर का प्रवेशद्वार पश्चिमाभिमुखी है। गर्भगृह में झालीमाली की पत्थर प्रतिमा एवं देवी यन्त्र की प्रतिष्ठा की गयी है। अन्य मन्दिरों में शिव एवं गणेश की मूर्तियां विद्यमान हैं। मान्यता है कि कालान्तर में एक तपस्वी इस स्थान पर कई वर्षों तक तपस्या में लीन थे। इसी दौरान मां झालीमाली की डोली कुमाऊँ की ओर से इस स्थल पर पहुंची तो एक प्रेतात्मा ने उन्हें विघ्न पहुंचाने की कुचेष्टा की। तब उस सन्यासी और प्रेतात्मा के मध्य युद्ध हुआ। सन्यासी ने उस प्रेतात्मा को अपनी कुटिया के दरवाजे पर बांध दिया। मां झालीमाली ने तपस्वी की वीरता और देवीभक्ति से प्रसन्न होकर सन्यासी को इस क्षेत्र का क्षेत्रपाल देवता के रूप में प्रतिष्ठा प्रदान की। यही कारण है कि सन्यासी को परम सम्मान देने के निमित्त आज भी देवी इालीमाली की बन्याथ (यात्रा) सन्यासी की कुटिया के दर्शनों के बाद ही आगे बढ़ती है। कहा जाता है कि प्रथम टिहरी नरेश सुर्दशन साह ने इस स्थल पर मां झालीमाली की भव्य पूजा-अर्चना की थी। उस अवसर पर उन्होनें कुमाऊँ से दो भाईयों आचार्य देवानन्द सती और कुलदीप सती को इस मन्दिर का पुजारी घोषित किया था। राजा ने इस स्थल की निकटवर्ती मकरोली, सुलेटा, चमसील, और झालीमठ क्षेत्र की संपूर्ण भूमि इन भाईयों को दानस्वरूप प्रदान की थी, जिन पर कोई कर एवं लगान नहीं था। आज झालीमठ गांव में आचार्य देवानन्द सती और कुलदीप सती के ही वशंज निवास करते हैं।
खुगश
असवालस्यूं पट्टी (पौड़ी गढ़वाल) के खुगश एवं कण्डार गांव की समीपवर्ती धार में मां झालीमाली का प्रसिद्व मन्दिर है, जिसकी स्थापना वर्ष 1906 में की गयी थी। पूर्व में यहां झालीमाली की मूर्ति किस काल में आयी और कैसे और कितने वर्षों तक जमीन के अन्दर दबी रही यह सब इतिहास के गर्भ में है।
नैल
असवालस्यू क्षेत्र में झालीमाली का यह सबसे प्राचीन मन्दिर है। सन् 1980 में नैल, खाण्डा तथा मंजकोट गांव के नैनवाल लोगों ने इसी स्थल पर मन्दिर का निर्माण किया। नैल गांव के ही चमोली बंधुओं ने इसी के समीप राजराजेश्वरी मंदिर की स्थापना की। इसी परिसर में नागराजा का भी मंदिर है। इन मंदिरों में नैल, खाण्डा और मंजकोट के लोगों द्वारा बारी-बारी से नियमित पूजा की जाती है। वर्तमान में इस पूरे मंदिर परिसर को भव्य स्वरूप दिया गया है। वर्तमान समय में उक्त देवस्थलों के अलावा पौड़ी जनपद के मज्याणीसैंण, धीड़ी, बैंग्वाड़ी, बरसूड़ी, जसपुर, मन्दोली, काण्डई, कुलासू, कठुली, डोबल, नवन मल्ला, चमोली जनपद में सणकोट एवं टिहरी जनपद में बांसकोटल में झालीमाली के मन्दिर हैं।
संदर्भ
1- पुरवासी - 2015, श्री लक्ष्मी भण्डार (हुक्का क्लब), अल्मोड़ा | लेखक - डॉ० अरुण कुकसाल, जी.के. प्लाजा, श्रीकोट, श्रीनगर (गढ़वाल)हमसे वाट्सएप के माध्यम से जुड़े, लिंक पे क्लिक करें: वाट्सएप उत्तराखंड मेरी जन्मभूमि
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