पहले इस मेले का आयोजन पिथौरागढ़ जनपद में उसके मुख्यालय से 70 कि.मी. की दूरी पर धारचूला विकास खण्ड में अल्कोट से 10 कि.मी. पर गोरी-काली नदियों के संगम पर मार्गशीर्ष संक्रान्ति को दो दिन के पर्वोत्सव के रूप में किया जाता था, किन्तु बताया जात है कि 1914 में अस्कोट के शासक की प्रेरणा पर इसे कार्तिक पूर्णिमा पर एक सप्ताह के व्यावसायिक मेले के रूप में परिवर्तित कर दिया गया, जिसमें तिब्बत के साथ व्यापार करने वाले जोहार, दानपुर, चौदांस, व्यास के भोटिया व्यवसायी अपना पश्मीना, दन, गलीचे, पंखी आदि ऊनी सामान तथा कस्तूरी, जड़ी बूटी आदि, एवं नेपाल के व्यवसायी शहद, घी, शिलाजीत, हींग आदि विक्रयार्थ लाते थे, जिन्हें तराई के मैदानी भागों तथा निकटस्थ नगरों- हल्द्वानी, काशीपुर, बरेली, मुराबाद के अतिरिक्त लखनऊ, दिल्ली तक के व्यवसायी खरीद कर ले जाते थे। इसके अतिरिक्त यहां पर पहाड़ी (भोटिया/जुमली) घोड़ों का भी बहुत बड़ा व्यापार होता था। इस सम्पूर्ण मेले के दौरान लाखों रुपयों का क्रय-विक्रय होता था। बाद में गोचर के मेले के समान इसे 14 नवम्बर (नेहरू जन्मदिन) से 21 नव. तक कर दिया गया, किन्तु 1962 के बाद तिब्बत के साथ भोटान्तिक व्यापार के समाप्त हो जाने तथा हाल के परिवहन की यांत्रिक सुविधाओं के बढ़ जाने से यह व्यावसायिक उत्सव नामशेष हो गया है।
हमसे वाट्सएप के माध्यम से जुड़े, लिंक पे क्लिक करें: वाट्सएप उत्तराखंड मेरी जन्मभूमि
हमारे YouTube Channel को Subscribe करें: Youtube Channel उत्तराखंड मेरी जन्मभूमि