समय-समय पर विभिन्न स्थानों में आयोजित किये जानेवाले मेलों में चाहे वे धार्मिक पर्वोत्सव के रूप में हों ऋतूत्सव के रूप में या व्यावसायिक मेले के रूप में उनमें व्यावसायिक पक्ष तो रहता ही है, किन्तु कतिपय मेले ऐसे भी होते हैं जिनमें व्यवसाय की प्रधानता व धार्मिक तत्वों की गौणता रहा करती है।
उ.ख. के कुमाऊं मंडल में आयोजित व्यावसायिक महत्त्व के मेलों में जौलजीवी के मेले के बाद थल के मेले का विशेष महत्त्व हुआ करता था। एक सप्ताह तक चलने वाला यह मेला सीमांत जनपद पिथौरागढ़ में उसके जिला मुख्यालय से 50 कि.मी. उत्तरपश्चिम में पूर्वी रामगंगा के तट पर स्थित थल नामक कस्बे में बैशाखी के अवसर पर आयोजित किया जाता है। उल्लेख्य है कि यहां पर बागेश्वर, पिथौरागढ़, अस्कोट व तेजम (जोहार) की ओर से आने वाले मार्गों का संगम होता है। इसका केन्द्र शिव का वह प्रसिद्ध मंदिर है जिसके विषय में स्कन्द के मानस (अ.11) में कहा गया है कि कैलास-मानसरोवर की यात्रा पर जाने वाले याची रामगंगा में स्नान कर तथा यहां पर स्थित बालीश (बालेश्वर) तथा का पूजन करके आगे की यात्रा करनी चाहिए। यहां पर शिवमंदिर का दर्शन करके कैलास यात्रा पर जाने की परम्परा अभी भी कायम है।
इस मेले के सूत्रपात के विषय में कहा जाता है कि दर शुभारम्भ सन् 1940 में हुआ था जब यहां के देशभक्तों ने रामगंगा के तट पर एकत्रित होकर इसी दिन अमृतसर में घटित नरसंहार 'जलिया - बाग' का स्मृति दिवस मनाने का कार्यक्रम बनाया था जिसमें बहुत बड़ी संख्या में लोग एकत्र हुए थे। इसके बाद फिर यह प्रतिवर्ष मनाया जा लगा तथा इसके साथ अन्य मेलों की भांति सांस्कृतिक एवं व्यावसायिक गतिविधियां भी जुड़ती गयी और इस अवसर पर आसपास के क्षेत्रों से। स्थानीय उद्योगों के उत्पादों के प्रचुर मात्रा में लाये जाने के कारण इसका व्यावसायिक महत्त्व बढ़ता गया और इसने एक व्यापारिक मेले का रूप धारण कर लिया। मेले की अवधि 1-2 दिन से बढ़ाकर 10-15 दिन कर दी गयी। और यह मुंस्यारी, कपकोट, धारचूला के हस्तशिल्पों एवं कुटीर उद्योगों के व्यवसायियों का महत्त्वपूर्ण बिक्रीकेन्द्र के रूप में विकसित हो गया, जिसमें यहां के शिल्पियों द्वारा बनाये गये रिंगाल की टोकरियों, मोस्टों, रस्सों, डोकों, कृषकों के कृषि के उपयोग में आने वाले उपकरणों, खरही के तांबे के बर्तनों, भांग के बने कुथलों, ऊन से बने वस्त्रों की काफी बड़ी मात्रा में क्रय-विक्रय हुआ करता था। इसका महत्त्व बढ़ जाने के कारण नेपाल तक के व्यवसायी यहां अपना माल बेचने आते थे। सामान के अतिरिक्त उन्नत नस्ल के पशुओं की खरीद-फरोख्त भी हआ करती था।
मेले के दौरान सांस्कृतिक क्रिया-कलाप भी खूब हुआ करत था। हुड़के की थाप पर झोड़ा, चांचरी आदि नत्य-गीतों में भाग लेन व नर्तकों व गायकों की तथा वाकचातुर्य एवं आशुकवित्व का परिच वाले बैरा गायकों से रात्रियां गुंजायमान हो उठती थी। इनमें उन्मुक्त रूप से कालीकुमाऊं, सोर, गंगोत्री, पश्चिमी नेपाल के कलाकारों की कलाकारिता की इन्द्रधनुषी छटाएं देखने को मिलती थी। विषुवत् संक्रान्ति को भी यहां पर मेले का आयोजन होता था।
किन्तु उ.ख. के अन्य क्षेत्रों के समान ही इस क्षेत्र में भी यातायात की सुविधाओं के बढ़ जाने तथा दूर-दराज के क्षेत्रों का माल नगरों तक तथा नगरों का माल इन क्षेत्रों तक पहुंचते रहने के कारण मेले का व्यावसायिक महत्त्व कम होता गया। 15-20 दिन तक चलने वाला मेला अब 3-4 दिनों तक सिमट कर रह गया है, यद्यपि अभी भी लोक-कलाकारों के द्वारा न्यूनाधिक मात्रा में अपनी परम्परा को बनाये रखने के फलस्वरूप इसका सांस्कृतिक स्वरूप किंचित् मात्रा में बना हुआ है।
हमसे वाट्सएप के माध्यम से जुड़े, लिंक पे क्लिक करें: वाट्सएप उत्तराखंड मेरी जन्मभूमि
हमारे YouTube Channel को Subscribe करें: Youtube Channel उत्तराखंड मेरी जन्मभूमि