सकलानन्द डोभाल (1896-1965): ग्राम डोभ, पट्टी इडवालस्यूँ, गढ़वाल। कर्मठ स्वाधीनता संग्राम सेनानी, तपस्वी और त्यागी पुरुष; समाजसेवी और अनूठा देशभक्त। स्वाधीनता संग्राम के दौर में 10 बार जेल यात्रा करने वाले अकेले उत्तराखण्डी।
प्रारम्भिक शिक्षा चरधार प्राइमरी स्कूल में प्राप्त कर कुछ समय ऋषिकेश और हरिद्वार में संस्कृत शिक्षा प्राप्त की। 1916 में बनारस से शास्त्री परीक्षा उत्तीर्ण की। आयुर्वेद का भी ज्ञान प्राप्त किया। 1921 में महात्मा गांधी द्वारा आहूत असहयोग आन्दोलन में कूद गए। गिरफ्तार कर लिए गए और खड़ेघाट अदालत से छह महीने सख्त कैद की सजा मिली। आचार्य कृपलानी और रफी अहमद किदवई आदि कई राजबन्दियों के साथ बनारस जेल में बन्दी रहे। 1928 में नेताजी के नेतृत्व में “साइमन कमीशन वापस जाओ" प्रदर्शन में कलकत्ता में भाग लिया। पकड़े गए, किन्तु पर्याप्त सबूत के अभाव में छूट गए। 1930 में पौड़ी और आसपास के क्षेत्रों में "एबट्सन काण्ड" के सिलसिले में दफा 144 लगी थी। डोभाल जी ने वर्जित इलाके में जगह-जगह सभाओं का आयोजन कर निषेधाज्ञा का खुला उल्लंघन किया। फलस्वरूप पौड़ी में पण्डित भोलादत्त पन्त की अदालत से इन्हें फैजाबाद जेल, जहां जगमोहन सिंह नेगी, अनुसूया प्रसाद बहुगुणा और इनके भाई भिल्लेश्वरानन्द डोभाल राजबन्दियों के रूप में सजा काट रहे थे, भेज दिया गया। रिहाई के मात्र 4-6 दिन पहले जेल में ही इन पर वारन्ट तामील हुआ और इन्हें पौड़ी लाया गया। राजद्रोह के आरोप में इन्हें एक वर्ष कैद की सजा और दो सौ रुपयों का अर्थदण्ड सुना कर वापस फैजाबाद जेल भेज दिया गया। आठ महीने बाद गाँधी-इर्विन पैक्ट होने पर छोड़ दिये गए। जब ब्रिटिश सरकार ने पुनः दमनकारी नीति अपनाई तो 1932 में इन पर राजद्रोह का आरोप लगाकर हरिद्वार के उस पार गढ़वाल की चीला जंगलात चौकी में मि. ब्राउन की अदालत ने एक वर्ष सख्त कैद की सजा देकर मुरादाबाद जेल भेज दिया। लगभग चार माह बाद जेल में ही इन पर एक और वारन्ट तामील किया गया। गढ़वाल के डिप्टी कमिश्नर की अदालत ने 124ए के तहत राजद्रोह के अभियोग में इन्हें 4 वर्ष की सख्त कैद और दो हजार रुपयों का अर्थदण्ड देकर जेल भेज दिया। जुर्माने की वसूली के लिए सरकार इनकी सम्पत्ति नीलाम करना चाहती थी, किन्तु किसी ने भी बोली नहीं लगाई। पुनः 1940 में व्यक्तिगत सत्याग्रह आन्दोलन में भाग लेने पर 4 वर्ष कड़ी कैद की सजा पाई। भारत छोड़ो आन्दोलन में आप भूमिगत होने ही वाले थे कि पुलिस के हत्थे चढ़ गये। 3 वर्ष तक बरेली जेल में कैद रहे। जेल जीवन आपके लिए एक परीक्षा थी। मनोबल तोडने के लिए आपको कई जेलो में घुमाया गया और तन्हाई में रखा गया। कुल मिलाकर आप 10 बार जेल गए।
स्वाधीनता प्राप्ति के बाद आप रचनात्मक कायों की ओर उन्मुख हुए। चरधार को अपनी गतिविधिया का केन्द्र बनाया। वहा पर 'विश्व जनता आश्रम' का स्थापना का, किन्तु अनकल परिस्थिति न होने के कारण आपका सपना साकार न हो सका। चरधार में स्थापित जू.हा.स्कूल आज भी आपकी याद दिलाता है। सन 1961 से 1963 तक आप गढ़वाला जिला परिषद क अध्यक्ष रहे। साहित्यिक अभिरुचि के व्यक्ति थे आप।
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