मोहन सिंह 'रिठागाड़ी’ (1905-1984): ग्राम धपना (सेराघाट मण्डी के उस पार), जिला पिथौरागढ़। कुमाऊँ का प्रसिद्ध लोक गायक। राजुला मालूशाही, बौल गाथाओं, बैरों तथा न्योली गीतों का रसीला और रंगीला गायक।
प्रख्यात रंगकर्मी और लोककला मर्मज्ञ श्री ब्रजेन्द्र लाल साह जी के शब्दों में - "लोक संस्कृति के उन्नायक मोहन सिंह वोरा उर्फ 'रीठागाड़ी’ के गायकी जीवन की प्रस्तुति- कौन जाने उस गायक बंजारे की याद में कितने वर्षों तक सेराघाट के आसपास सरयू तट पर ग्राम्याएं बैठती रही होंगी और मोहन की मोहक न्योलियों को सुमरति रही होंगी। राजुला-मालूशाही गाथा के मर्मस्पर्श प्रसंगों को याद कर सिसकती रही होंगी तथा बैर-गायन में वाक्पटु तथा व्युत्पन्नमति, बैरी मोहन को सुमरती हुई अतीत में डुबकी लगाती रही होंगी।” एक युगान्त हो गया। मोहन सिंह 'रीठागाड़ी’ युग का अन्त हो गया। अब अतीत के घोड़िया-पड़ावों (आधुनिक बस स्टेशन) की रसीली लोक गीती संध्याएं छोटे पर्दों के चारों ओर सिमट कर रह गई हैं। दूरदर्शन स्टूडियो अथवा लोकोत्सवों में अस्वाभाविक रूप में प्रस्तुत किए गए लोकगीतों एवं नृत्यों की झाँकी टेलीविजन पर अवश्य दृष्टिगोचर होती हैं; किन्तु उन दृश्यों में वह बंजारा कभी नहीं दिखलाई पड़ता जो सरयू तीरे, चाँदनी रातों में न्योली गाता हुआ घोड़े हांकता था और अपने स्वरों की झिरमिराहट से समस्त सेराघाट की घाटी को बोझिल तथा सिल बनाता हुआ आगे बढ़ जाया करता था। कौन था वह बंजारावह घोड़िया? वह था मोहन 'रीठागाड़ी’। रसीला और रंगीला गायक।
ठाकुर मोहन सिंह वोरा की दो शादियों की ग्यारह संतानों में मोहन सबसे छोटा था। बचपन से ही विनोद प्रिय मोहन के कानों में राजुला-मालूशाही की कथा एवं मोहक संगीत बस गया था। बकौल मोहन सिंह के यह संगीत उसने गेवाड़ क्षेत्र के एक बारूड़ी शिल्पकार (टोकरी बनाने वाले) से पहली बार सुना था। उसके बाद बारूड़ी के एकलव्य शिष्य मोहन सिंह ने आवाज के उस जादू को मृत्युपर्यन्त आत्मसात किए रखा। 'रीठागाड़ी' का वह गुरु द्रोणाचार्य नहीं था, वरन एक बारूड़ी था, जो अभाव और भूख-प्यास के बीच पला, ढला और सेराघाट में सरयू के किनारे जला भी। अल्मोड़ा जिले के सभी मेलों में आवारा युवक मोहनसिंह पहुंचकर विभिन्न प्रकार की छपेलियो, झोड़ों तथा चाचरियों का संगीत संचय कर अपनी सांसों से संवारने लगा। आजीविका के लिए उसने बंजारे की जिन्दगी अपनाई। अल्मोड़ा नगरी से वह घोड़ों पर सामान लादकर गंगोलीहाट, बेरीनाग, लोहाघाट और पिथौरागढ़ की मण्डियों में ले जाता। विश्राम के क्षणों में रात-रात भर मालूशाही गाता हृदय टीसने वाली न्योलियाँ गाकर स्वयं भी सिसकता और श्रोताओं को भी सिसका देता। पूरे कुमाऊँ में गायक मोहन अत्यधिक लोकप्रिय हो गया।
शनै:-शनै: मोहनसिंह की कला प्रदर्शन का क्षेत्र बढ़ता चला गया। ग्रामीण खेले—मेलों की सीमा से निकलता वह कुमाऊं मण्डल के शरदोत्सवों, ग्रीष्मोत्सवों और विशेष समारोहों में पहुंच गया। आकाशवाणी में उसने कार्यक्रम देने प्रारम्भ किए। लखनऊ और दिल्ली तक उसकी मांग होने लगी।
मोहन उप्रेती के प्रयास से संगीत नाटक अकादमी ने उसकी गाई सम्पूर्ण मालूशाही का ध्वन्यालेखन किया और यथोचित सम्मान व पारितोषिक देकर विदा किया। पर्वतीय कला केन्द्र, दिल्ली ने भी मोहन सिंह को यथेष्ट आदर और सम्मान दिया। जीवन के अन्तिम दो वर्षों में रक्तचाप, स्वांसरोग तथा वृद्धावस्था की अन्य व्याधियों से ग्रस्त होकर मोहन सिंह वोरा शैय्या की सीमाओं में ही बंधे रहे और 28 जनवरी, 1998 को 79 वर्ष की आयु में एक हुड़के की वह गमक अनन्त में विलीन हो गई।
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