कबूतरी देवी |
कबूतरी देवी से भले ही आज के उत्तराखंडी युवा रूबरू नहीं होंगे, लेकिन एक समय पर वह पहाड़ की आवाज हुआ करती थीं। कबूतरी देवी को संगीत ओर गायन उनके परिवार से विरासत में मिला था जिसे आगे बढ़ाकर उन्होंने सभी का नाम रोशन किया
प्रारंभिक जीवन
उनके माता-पिता भी गायकी का शौक रखते थे, इसलिए उन्होंने अपनी लोक गायकी के सभी सुरों से बेटी कबूतरी को बचपन में नवाज दिया। इनका जन्म कुमाऊं के (चम्पावत जिले) के एक मिरासी यानी लोक गायक परिवार् में हुआ था। ऋतु गायन करने वाली कबूतरी देवी औजी समुदाय से है। कबूतरी देवी ने देश के तमाम आकाशवाणी केन्द्रों में सत्तर और अस्सी के दशक में धूम मचा दी थी। कबूतरी देवी के पिता रामकाली कुमाऊँ के प्रसिद्ध लोग गायक रहे। कबूतरी ने लोक गायक की प्रारम्भिक शिक्षा पिता से ही ली। रामकाली कबूतरी के साथ-साथ अपने सात अन्य बच्चों को भी हारमोनियम पर संगीत की शिक्षा देते थे। पहाड़ी गीतों में प्रयुक्त रागों का जमकर अभ्यास करने के कारण कबूतरी की शैली अन्य लोक गायकों से कुछ अलग ही बन पड़ी है।
गायन की शुरुआत
60 के दशक में पिथौरागढ़ के क्वीतड़ गाँव में दीवानी राम से इनकी शादी हुई। मोटर मार्ग से 6-7 किमी. की पैदल दूरी पर बसा है क्वीतड़ गाँव। विवाह के बाद इनके पति श्री दीवानी राम जी ने इनकी प्रतिभा को पहचाना और इन्हें आकाशवाणी और स्थानीय मेलों में गाने के लिये प्रेरित किया। उस समय तक कोई भी महिला संस्कृतिकर्मी आकाशवाणी के लिये नहीं गाती थीं। 70 के दशक में इन्होंने पहली बार पहाड़ के गांव से स्टूडियो पहुंचकर रेडियो जगत में अपने गीतों से धूम मचा दी थी। पति के प्रयासों के चलते कबूतरी देवी को कई मंच मिले। ऑल इंडिया रेडियो रामपुर, नजीबाबाद, लखनऊ व मुम्बई के रेडियो केन्द्रों से कबूतरी देवी की मीठी तान से हजारों लोग मुरीद हो गये। उन्हें गायकी के कई आॅफर आने लगे। उस जमाने में गायन से महीने में 50 रुपयों तक की आमदनी हो जाया करती थी जो उस समय उनके लिए काफी थी। उन्होंने आकाशवाणी के लिये लगभग 100 से अधिक गीत गाये।
उनके गाये गीत हैं
इनके सर्वाधिक लोकप्रिय गीतों में ‘यो पापी कलेजी, काटी खानी लांग छ घुड़क न बाजा घुघती, ओ चड़ी दोपहरी घामैं मां’ रहा, बरसो दिन को पैंलो म्हैना, पहाड़ो ठंडू पाणी, मैसो दुःख क्वे जानी ना, चामल बिलोरा, जिसने खासी धूम मचायी।
सम्मान
पति दीवानी राम के प्रोत्साहन और भानु राम सुकोटी के निर्देशन में उन्होंने ससुराल में लोकगीत का सिलसिला जारी रखा। वो बताती थी के पहले पहल तल्ला ढिकुरी के हेमराज ने उन्है मंच दिया। बाद में हेमंत जोशी द्वारा अल्मोड़ा में सम्मानित किया गया।बाद में लखनऊ आकाशवाणी से ऋतुरैंन उनकी आवाज में इन फिजाओं में गूंजे। बम्बई आकाशवाणी में उन्है आमंत्रित किया गया। फिर नजीबाबाद और अल्मोड़ा केंद्र में उनके दर्जनों गीत रिकॉर्ड किए गए। देश के तमाम हिस्सों में उन्होंने न्योली, छपेली गाकर जनमानस को खूब रिझाया। साल 2002 में नवोदय पर्वतीय कला केन्द्र, पिथौरागढ़ ने उन्हें छोलिया महोत्सव में बुलाकर सम्मानित । यह उनके लिए किसी खास सम्मान से कम नहीं था। उसके बाद लोक संस्कृति कला एवं विज्ञान शोध समिति ने अल्मोड़ा में सम्मानित किया। इसके अलावा इन्हें पहाड़ संस्था ने भी सम्मानित किया था। अब उत्तराखंड का संस्कृति विभाग उन्हें पेंशन दे रहा है और उसी के सहारे वह अपना जीवन काट रही हैं।
नयी पीढ़ी को सन्देश
कबूतरी देवी कहती है कि कभी पहाड़ की कठोरता का मुकाबला करते हुए जीवन को सहज बनाने वाले गीत-संगीत, लोक धुनों को नयी पीढ़ी ने पूरी तरह भुला दिया है। वे कहती हैं- नयी पीढ़ी हिन्दी की पॉप शैली का पहाड़ी अनुवाद ही आज लोक संगीत मान बैठी है। इसीलिए नयी पीढ़ी लोक संगीत से विमुख हो रही है और लोक गायकों का महत्व खत्म हो रहा है।
मृत्यु
शोर घाटी की लय और डोटी अंचल की ठसक में ऋतुरैन्न गाकर कुमाउनी लोकगीतों को विशेष पहचान देनेवाली कबूतरी देवी 73 वर्ष की उम्र में इस नश्वर संसार को छोड़कर चले गयी।
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