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    बैसी (22 दिन की पूजा)

    ‌उत्तराखण्ड में देवताओं की 22 दिन की पूजा का प्रावधान है। 22 दिन की पूजा को 'बैसी' कहा जाता है। 22 दिन की पूजा करने वाले लोग बाद में एक माह, तीन माह, छ: माह या एक वर्ष की पूजा करते हैं। वर्तमान में लोगों के पास समय की कमी है। अब 11 दिन तथा 5 दिन की सुबह-शाम की पूजा करके भी लोग बैसी कर रहे हैं।


    ‌जो लोग 22 दिन की पूजा करते हैं उन्हें 22 दिन तक ब्रह्मचर्य नियम के साथ लंगोंट व धोती पहनकर मंदिर में ही रहना होता है। बैसी अवधि में सुबह-शाम नहाना व दिन में ईष्टदेव को भोग लगाकर एक समय भोजन ग्रहण करना होता है। भोजन के अतिरिक्त समय में दूध व फल आदि भी वर्जित होते हैं। 22 दिन की तपस्या करने वाले व्यक्ति को 'बैसी मुंड' कहा जाता है। इनका परिवार व गांव के लोगों से केवल ‘बाबू' या 'माई' का रिश्ता रहता है। इस अवधि में इन्हें अपने पारिवारिक पुरुषों से 'बाबू' व महिलाओं से ‘माई' संबोधन ही कहना पड़ता है। व्यवहारिक रूप से 22 दिन की पूजा करने वाले लोगों को ‘भुगत' कहा जाता है। सभी लोग इन्हें 'भगत' के नाम से ही पुकारते हैं। प्रत्येक दिन भोजन से पूर्व कौए तथा बच्चों को भोजन कराना जरूरी होता है। भगत लोगों को स्वयं जल स्रोत से पानी, भोजन व पूजा के लिए लाना होता है। 22 दिन की बैसी में सुबह-शाम आरती होती है। प्रत्येक दिन रात्रि में जागर लगती है। वर्तमान में जागर लगाने वाले 'औजी' कम हो गए हैं। उनके पास समय नहीं है। इस कारण कहीं-कहीं शनिवार व मंगलवार जागर लगाने की परंपरा है। कहीं-कहीं 11 दिन के बाद जागर लगाने का प्रचलन है।


    ‌कत्यूरों की बैसी में रानीबाग, नृसिंह की बैसी में जोशीमठ, सैम देवता की बैसी में झाकरसैम तथा अन्य बैसी में सुविधानुसार समीपवर्ती तीर्थस्थल में गंगा स्नान की परम्परा है। बैसी में बैठे भगत लोगों को गांव में भिक्षा के लिए भी घूमना पड़ता है। भिक्षा से प्राप्त अनाज का उपयोग मंदिर के भोग के लिए होता है। बैसी समापन से पूर्व 21 वें दिन रात्रि में सारे भगत तथा पूर्व में बैसी किए हुए गांव के डंगरिये बाजे-गाजे के साथ गांव की अंतिम सीमा में चारों दिशाओं में चौकी रखते हैं। माना जाता है कि चारों दिशाओं में चौकी रखने से आसुरी शक्तियां गांव के अंदर प्रवेश नहीं करती है। इस परम्परा को 'दिशा बंधन' कहते हैं।


    ‌22 वें दिन सभी भगतों को घी से जली बत्तियां खानी पड़ती है। इस परम्परा को 'बात खाना' कहते हैं। इन्हें बत्तियां खाने के बाद ही पक्का भगत माना जाता है। इस अवधि में भगत लोग धूनी में खूब लाल किए हुए फावड़े आदि भी चाटते हैं। मान्यता है कि जो लोग नियम धर्म के साथ पूजा करते हैं उन्हें ये गरम फावड़े नुकसान नहीं पहुंचाते हैं, लेकिन जानकार लोगों का कहना है कि यदि फावड़े (धूनी में रखा हथियार) कम गरम होंगे तो नुकसान भी पहुंचाएंगे। 22 दिन की पूजा के बाद कई गांवों में बकरी, भैंसे व मुर्गी आदि की बली देने की परम्परा है परन्तु आज के दौर में गांवों के लोग जागरुक हो गए हैं। वे 22 दिन की तपस्या के बाद बलिदान न करने का मन बनाते हुए नारियल फोड़कर पूजा करते हैं।


    ‌जागर में सभी देवी-देवता गांववासियों के कल्याण व सुख-समृद्धि की कामना करते हैं। अंत में बैसी करने वाले भगत लोगों का मुंडन होता है। नहा धोकर नए कपड़े पहनते हैं उसके बाद आयु व रिश्ते के अनुसार वे सभी बड़ों को प्रणाम करते हैं। सभी छोटे उन्हें प्रणाम करते हैं। बच्चों को भोजन कराने के बाद मेहमानों व गांववासियों के प्रसाद ग्रहण करने का सिलसिला चलता है। गांव के लोग बैसी व भंडारे के लिए स्वयं एकजुट होकर संसाधन जुटाते हैं। गांव से ब्याही गई सभी लड़कियां बैसी के भंडारे में एकजुट होती हैं। गांव से सुदूर क्षेत्रों में नौकरी करने वाले तथा प्रवासी गांववासी भी बैसी के भंडारे में सम्मिलित होते हैं। इस प्रकार बैसी का आयोजन गांववालों के लिए कुंभ की तरह है। जहां सभी गांववासी, ईष्ट-मित्र एकजुट होते हैं।


    -उदय किरौला, संपादक बालप्रहरी, अल्मोड़ा


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