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    छोलियार - कुमाउँनी लोक नृत्य

    तुरहि बजाते हुए एक छोलियार


    छोलिया उत्तराखण्ड के लोक नृत्यों में सबसे लोकप्रिय है। यह नृत्य युद्ध के प्रतिक के रूप में प्रयोग किया जाता है। इसमें पुरूष प्राचीन सैनिकों जैसी वेशभूषा पहन कर तलवार और ढाल लेकर युद्ध जैसा नृत्य करते हैं, जिसमें उत्तराखण्ड के लोक वाद्य ढोल, दमाऊ, रणसिंह, तुरहि और मसकबीन भी शिरकत करते हैं। इन सभी वाद्ययंत्रों और छलिया नृतकों की जुगलबंदी ऐसी होती है कि दर्शक दांतो तले उंगलियां दबाने को बाध्य हो जाते हैं।

    संस्कृतिकर्मि जुगल किशोर पेटशाली जी छलिया नृत्य के इतिहास को एक ब्लॉग में लिखतें हैं- "नृत्य के दौरान संतुलन साधने के लिए नृतिकी के लिए पैरों से मंच बनाते छोलिया या छलिया मूल रूप से युद्ध का नृत्य है इस नृत्य का समाज में प्रचलन विद्वानों के अनुसार अनुमानतः 10वीं शदी के आस पास माना जाता है। यह नृत्य युद्ध में लड़ रहे शूरवीरों की वीरता के मिश्रित छल का नृत्य है। छल से युद्ध भूमि में दुश्मन को कैसे हराया जाता हैं यही इस नृत्य का मुख्य लक्ष्य है इसी कारण इसे छल नृत्य, छलिया नृत्य और हिन्दी में छोलिया नृत्य कहा जाता  है।"

    कहा जाता है कि एक बार किसी विजयी राजा के दरबार में इस तरह के युद्ध वर्णन को सुनकर रानियां अभिभूत  हो गयी और उन्होने भी उस युद्ध में वीरों द्वारा दिखाई गई वीरता को प्रतिक रूप में अपनी आंखों के सामने देखना चाहा। इस पर राजा के आदेश पर सैनिकों ने स्वयं ही आपस में दो विरोधी दल बनाकर युद्ध की वेशभूषा पहनकर ढाल तलवारों के साथ युद्ध भूमि की तरह ही प्रतिकात्मक युद्ध नृत्य करने का मंचन किया। ढोल, दमाऊ, रणसिंह जैसे युद्ध के वाद्य बजने लगे और सैनिकों द्वारा युद्ध की सारी कलाओं का प्रदर्शन किया जाने लगा। उन्होने इस विजयी युद्ध में अपने दुश्मन को वीरता और छल से कैसे परास्त किया इसका सजीव वर्णन उन्होने राजदरबार में किया। जो कि राजा , रानियों और सभी दरबारियों को काफी पसंद आया । अतः समय समय में इस प्रतिक छलिया नृत्य का आयोजन राजदरबार में होने  लगा। अपने अलौकिक आकर्षन के कारण यह नृत्य 10वीं शदी से आज तक निरन्तर चलते आया है । समय के साथ इसके स्वरूप में थोड़ा परिवर्तन भी आने लगा है। राजशाही समाप्त होने के बाद यह आम लोगों में यह नृत्य के रूप में प्रसिद्ध हुआ और समय के अनुरूप संस्कृतिकर्मियों ने इस अमूल्य धरोहर को संजोने के लिए इसे विवाह और शुभ अवसरों  में किए जाने की अनिवार्यता बना दी। लेकिन दुर्भाग्यवश आज, हमारी समृद्ध संस्कृति का परिचायक यह लोकनृत्य व्यवसायिकता और आधुनिकता के अंधे दौर में कहीं खोता चला जा रहा हैं। यद्यपि ढोल दमाऊ का स्थान बैंड बाजों ने ले लिया है लेकिन संस्कृति के शौकिन लोग शादी, नामकर्ण या अन्य तीज त्यौहारों में छोलिया दल को आमंत्रित करते हैं।

    नृत्य करते हुए छोलियार

     

    ढोल वादक मात्र वीरों के उत्साहवर्धन के लिए ढोल नहीं बजाता था अपितु वह युद्ध में अपने राजा की सेना की स्थिती पर पूरी दृष्टि रखता था। किस समय उसकी सेना को आगे या पीछे बढ़ना है किस दिशा में बढ़ना है युद्ध जीतने के लिए अब सेना को कैसी व्यूह रचना बनानी है इसका उसे पूर्ण ज्ञान होता था। महाभारत के चक्रव्यूह की तरह ही पर्वतीय क्षेत्रों में गरूड़ व्यूह, मयूर व्यूह , सर्प व्यूह की रचना की जाती थी। ढोल वादक इन व्यूह रचनाओं  में पारंगत होता था । वह ढोल नृत्य में संकेत द्वारा अपनी सेना को बताता था कि उसे युद्ध में अब किस प्रकार क्या करना है? कैसे आगे बढ़ना है? कैसे पीछे हटना है? दुश्मन की सेना को कैसे घेरना है? यह सब वह सेना को अपने नृत्य और ढोल वादन के गुप्त संकेतो से बतलाता था। 

    वर्तमान में भी छलिया नृत्य के कई बाजे है जैसे - गंगोलिया बाजा, हिटुआ बाजा, बधाई का बाजा, दुल्हन के घर पहुंचने का बाजा, वापस गांव की सीमा की पहुंचने पर बाजा इन अलग अलग बाजों के अनुसार ही छोलिया नृत्य किए जाते हैं। अभी भी छोलिया नृत्य का कंट्रोल ढोल वादक के पास ही होता है उसी की वाद्य धुनों के अनुसार वह नृत्य करते है।

    छोलिया दल का आकार उनकी संख्या के आधार पर निर्धारित होता है अर्थात आप छलिया दल में 8 से 10 या 14 से 20 लोग चाहते हैं, दल 
    में आप जितने लोग चाहते हैं उतने ही ज्यादा नृतक और वाद्ययंत्र जुड़ते हैं। छलिया दल सिर्फ नृत्य ही नहीं करता एक निश्चित समय के बाद विराम लेकर दल का एक सदस्य छपेली या चांचरी के बोल गाता है और गीत खत्म होते ही पुनः तीव्र गति से ढोल दमाऊ के वादन के साथ नृत्य शुरू होता है।

    छलिया दल अब मंच प्रदर्शन से ही जीवन निर्वाह करते है। देश के विभिन्न कोनों में ये दल विभिन्न कार्यक्रमों में शिरकत करते हैं। पिथौरागढ़ में इसी हेतु एक छलिया महोत्सव भी होता है। यह महोत्सव स्थानीय लोगों द्वारा उत्तराखण्ड सरकार के सहयोग से पिछले कुछ सालों से सम्पन्न होता आ रहा है।

    एक खास बात यह भी है कि जब आप कुमाऊँ के सीमान्त क्षेत्रों यानी की मुन्स्यारी और धारचुला की तरफ जाते हैं तो खासकर धारचूला के रंग समुदाय में यह छलिया नृत्य महिलाओं द्वारा किया जाता है। महिलाओं द्वारा ढाल और तलवार लेकर किया जाता है। हालांकि आज के समय में यह लोक विधा हमसे दूर होती जा रही है लेकिन आज भी छलिया हमारी लोक संस्कृति का एक अभिन्न अंग बना हुआ है।

    लेखक - नीरज भट्ट


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