इस लोकोत्सव का आयोजन गढ़वाल मंडल के पौड़ी जनपद में देवलगढ़ गांव और फलस्वाड़ी गांव में किया जाता है जहां पर तेरह मंदिरों से घिरा सीता जी एवं लक्ष्मण जी का एक मंदिर है। यह स्थान सलूड गांव से 5-6 कि.मी. आगे एक परम रमणीक और समतल पर्वतीय उपत्यका में स्थित है। लोक प्रचलित जनश्रुतियों के अनुसार यहीं पर सीता जी के पृथ्वी में समा जाने के कारण इसका नाम सितोनस्यूं पड़ा है। सीता जी के पृथ्वी में समा जाने की स्मृति में यहां पर दीपावली के बाद आने वाली कार्तिकी एकादशी के दूसरे दिन एक उत्सव का आयोजन किया जाता है। इस अवसर पर गांव के लोग लोकवाद्यों के साथ सीता जी की प्रतीकात्मक प्रतिमा को वैसे ही सजा कर उस स्थान पर ले जाते हैं (जहां पर कि माना जाता है उनका धरती में समावेश हुआ था) जैसे कि विवाह के उपरान्त लोग बेटी को सजाधजा कर ससुराल को भेजते हैं। प्रचलित जनश्रुतियों के अनुसार जब सीताजी अपनी पवित्रता को सिद्ध करने के लिए धरती में समाने लगी तो श्री रामचन्द्र ने उन्हें पकड़ने का प्रयास किया किन्तु उनके हाथ केवल सीताजी की केशराशि ही आ सकी, जो कि वहां पर बाबड़ घास के रूप में देखी जाती है। उल्लेख्य है कि इसी प्रकार की जनश्रुति नैनीताल जनपद में रामनगर के निकटस्थ 'सीतावनी' के बारे में भी कही जाती है।
मेले के प्रारम्भ में जनसमूह लक्ष्मण जी के मंदिर देवलगढ़ गांव से एक विशाल ध्वज को फहराते हुए उस स्थान पर आते हैं जहां पर माना जाता है कि सीता जी पृथ्वी के गर्भ में प्रविष्ट हुई थीं तथा जहां पर उनका स्मारक बना हुआ है, यह मंदिर फलस्वाड़ी गांव में स्थित है। सात पुरोहित केवल हाथों से भूमि को खोद कर उस ध्वज को वहां पर गाड़ते हैं, तदनन्तर विधिवत् उसकी पूजा की जाती है। उत्सव की समाप्ति पर भाग लेने वाले भक्तजन उस बाबड़ की एक एक वर्त बटकर आशीर्वाद (प्रसाद) के रूप में उसके तिनकों को शिरोधार्य करते हैं।