हुसैन अली शाह (जीवनकालः 18वीं सदी का मध्य): अल्मोड़ा खास। मूल निवासः काबुल (अफगानिस्तान)। एक देशभक्त सूफी सन्त जिसे अंग्रेजों ने अल्मोड़ा कब्जाते वक्त फाँसी दे दी थी।
1790 में कुमाऊँ से चन्द राजवंश सदा-सदा के लिए समाप्त हो गया था। 25 वर्षों तक कुमाऊँ पर गोरखों का राज रहा। गोरखा शासकों ने अपनी हुकूमत का केन्द्र कलमटिया नामक स्थान पर बनाया। 1815 में राज्य विस्तार की नियत से अंग्रेज स्याहीदेवी और धार की तूनी के रास्ते अल्मोड़ा में घुसे। गोरखों ने उन पर तोपों से हमला किया। दो अंग्रेज फौजी अफसर निशाना बने। उनकी कब्र अल्मोड़ा शहर से लगे सिटौली जंगल में आज भी मौजूद हैं। चन्द राजाओं ने अपने राज्यकाल में नवाब नजीबुद्दौला से मुसलमान ताजिरों वगैरह को अल्मोड़ा आकर बसने की दर्खास्त की थी। इस पर्वतीय क्षेत्र में खुदा की इबादत के लिए सूफी सन्तों की भी आमद होती रही है। काबुल से सूफियों के एक दल में दो बुजुर्ग सैयद हुसैन अली शाह और सैयद हसन अली शाह शहर में वारिद हुए। पहले बुजुर्ग ने धार की तूनी में और दूसरे बुजुर्ग ने कैन्ट इलाके में शरण ली।
अंग्रेज जब सिटौली के रास्ते शहर में प्रवेश कर रहे थे तो सैयद हुसैन अली शाह बाबा ने फिरंगियों के नापाक कदमों से शहर की पाक सरजमीं की हिफाजल के लिए उनके दाखिले का विरोध किया। बाबा ने अपनी आध्यात्मिक शक्ति से पवित्र भूमि की रक्षा के निमित्त फिरंगियों के नापाक इरादों को आसानी से कामयाब नहीं होने दिया। चुनांचे फिरंगियों ने बाबा को तुन के पेड़ पर फाँसी पर चढ़ा दिया। इस तरह बाबा ने अपने प्राणों की आहुति दे दी, किन्तु फिरंगियों के आगे झुके नहीं। यह तुन का वृक्ष आज भी इतिहास का साक्षी है। पेड़ की जड़ पर गोरखाली भाषा में लिखी एक शिला रखी हुई थी, जिस पर इन बुजुर्ग की देशभक्ति और बलिदान की गाथा अंकित थी।
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