गेंडी या गैड़ी खगोती लोकोत्सव गढ़वाल मंडल के पौड़ी जनपद में उसके मुख्यालय के निकटस्थ ग्राम च्वींचा में मनाया जाता है। इसके सम्बन्ध में प्रचलित जनश्रुति के अनुसार इसका प्रारम्भ महाभारत काल में हुआ था। कहा जाता है कि जब युधिष्ठिर को अपने पिता पाण्डु का श्राद्ध करने के लिए शास्त्रीय विधान के अनुसार गेंडे की खगोती/खकोटी (खाल) की आवश्यकता हुई तो पांडव इसकी तलाश करने लगे। अपने इस खोज में उन्होंने पाया कि यहां पर हरियाली नामक तालाब के निकट गेड़ों का एक झुण्ड नागमल तथा नागमती (नागजातीय दम्पत्ति) की देखरेख में विचर रहा था। अर्जुन ने जब एक गेडे को मारना चाहा तो नाग दम्पति ने उनका विरोध किया। फलतः दोनों में युद्ध हो गया। काफी संघर्ष के बाद अर्जुन गेड़े को मारने में सफल हो गये।
उस परम्परा के निर्वाह के लिए यह उत्सव उसी रूप में मनाया जाता है। जिसमें पांच युवक पांडवों का, एक नागमल का तथा एक युवती नागमती की भूमिका में अवतरित होकर लोकवाद्यों की संगत पर नृत्य करते हुए गांव के मध्य में स्थित देवी के मंदिर के प्रांगण में आकर नृत्य प्रस्तुत करते हैं। नागमती का अभिनय करने वाली महिला की गोदी में गेंडे का प्रतीक एक कदू या तुमड़ा रखा होता है। पांचों पांडव अपने बाणों से उस पर प्रहार करने का अभिनय करते हैं और वह उन से उसे बचाने का यत्न करती है।
उत्सव प्रारम्भ किये जाने से तीन दिन पूर्व रात्रि को देवी-देवताओं का मंडाण रखा जाता है तथा ढोल-दमाऊ की धुनपर लोग रात भर थड़िया, चौंफला व झुमैलो नृत्य करते हैं। वसन्त पंचमी को प्रारम्भ होने वाला यह उत्सव वैसाखी तक चलता रहता है। अन्तिम दिन सब लोग मिलकर घर-घर जाकर अपने पारम्परिक गीतों के साथ इसका समापन करते हैं। अन्य लोकोत्सवों के समान अब इसका स्वरूप एवं भागीदारी में भी ह्रास हो रहा है।
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