पुरिया नैथानी (1648-1760): नैथाना गाँव, गढ़वाल। मध्यकालीन गढ़वाल की राजनीति क सफल कूटनीतिज्ञ, कुशल राजनीतिज्ञ और निपुण सेनानायक के अतिरिक्त पुरिया नैथानी ऐसे उच्च शिक्षाविद् थे, जिन्हें उर्दू, फारसी, संस्कृत, अरबी भाषाओं का भी ज्ञान था। मुगल सम्राट औरंगजेब के युग में वे सच्चे अर्थो में गढ़वाल राज्य के राजदूत थे। हाजिर जवाबी में इनकी तुलना बीरबल से की जा सकती है।
विलक्षण प्रतिभा के धनी पूर्णमल उर्फ पुरिया नैथानी का जन्म श्री गेंदामल नैथानी और श्रीमती विलोचना देवी के घर हुआ था। मात्र 7 वर्ष की आयु में ही इनकी मेधा एवं स्मरण शक्ति इतनी तीव्र थी कि इन्हें संस्कृत, भूगोल एवं इतिहास की सभी जानकारियां हो गईं थीं। 17 वर्ष तक पुरिया व्यावहारिक राजनीति में प्रवीण हो गए थे। राज्य के तत्कालीन मंत्री शंकर दत्त डोभाल की राय से राजा पृथ्वीपति शाह ने पुरिया को अश्वशाला का प्रधान नियुक्त किया। शीघ्र ही वे कुशल अश्वारोही हो गए। यहीं से पुरिया के राजनैतिक जीवन की शुरूआत हो गई। एक बार राजधानी श्रीनगर में विजयादशमी पर आयोजित घुड़सवारी प्रतियोगिता में जब उसने राजा के श्यामकरण घोड़े से दिल्ली दरबार से विशेष आमंत्रित मेहमान एलची के समक्ष महल को ऊंचाई से लांघ दिया तो उपस्थित जनसमुदाय हतप्रभ रह गया। एक सौ वर्ष की उम्र में पुरिया ने राजा प्रदीप शाह के कहने पर कुमाऊँ के राजा दीपचन्द के विरुद्ध 1748 में जूनियागढ़ के युद्ध में भाग लिया। इस युद्ध में पुरिया जी घायल हो गए।
इनकी अप्रतिम वीरता और राजभक्ति से प्रसन्न होकर गढ़वाल नरेश ने इन्हें ताम्रपत्र दिया। जागीर के रूप में लंगूर पट्टी में कुछ गाँव दिए। सन 1760 में पुरिया जी हरिद्वार कुम्भ मेला में गए। इसके बाद इनका पता नहीं चला। कहते हैं, अद्वाणी के जंगल में एक बार इनकी भेंट अमर आत्मा राजा भर्तृहरि से हो गई थी। इनके सुझाव पर द्वाराहाट से आठ मील दूर रामगंगा के किनारे राजा ने एक सुदृढ़ किले का निर्माण किया। किले के अन्दर 'नैथाणी देवी' का मंदिर बनवाया। किले का नाम 'नैथाणा गढ़' रखा गया। यह किला पुरिया जी की राजभक्ति और वीरता का स्मृतिकारक घोषित किया गया। इनके वंशधर वर्तमान में हल्दूखाता (भाबर-कोटद्वार) में निवास करते हैं। देहरादून स्थित टिहरी हाउस संग्राहलय में उनकी लगभग 450 बर्ष पुरानी तलवार संगृहीत है। यह तलवार अन्य तलवारों की अपेक्षा बेहद अलग व सीधी है!
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