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    लछमू कठैत

    लछमू कठैत (1853-1887): राजगाँव, घनसाली, टिहरी गढ़वाल। तत्कालीन टिहरी रियासत के एक ख्यात पुरुष, निर्भीक और बड़ी आन-बान वाले राजपूत। ब्रिटिश सरकार द्वार 'रायबहादुर' की पदवी से सम्मानित होने वाले पहले गढ़वाली (स्व. भक्तदर्शन जी के कथनानुसार)।


    राजा किसी प्रजा के आदमी की खुशामद करे। अपने हाथ से राजसी जामा और सोने की टोपी किसी राजद्रोही को पहनावे, सामंती युग में यह सर्वथा अकल्पनीय था। यह अकल्पनीय घटना टिहरी रियासत में घटी। जब वहां के नरेश प्रताप शाह को अपने ही राज्य के एक बगावती के आगे घुटने टेकने पड़े। संक्षेप में घटना इस प्रकार है:- लछमू (लक्ष्मण सिंह) कठैत टिहरी में रवांई परगना के प्रशासक थे। उन्हें ब्रिटिश शासन के द्वितीय श्रेणी के मजिस्ट्रेट के अधिकार प्राप्त थे। 1873 में राजा प्रताप शाह दिल्ली में वायसराय से मिलकर अपने राज्य की राजधानी टिहरी लौटे। संयोगवसात लछमू कठैत भी किसी कार्यवसात इसी बीच टिहरी पहुंचे और परम्परा के अनुसार राजा साहब को अभिवादन करने राजमहल पहुंचे। प्रताप शाह ने लछमू कठैत के समक्ष प्रस्ताव रखा। कि वह अपने परिवार से एक जवान लड़की को बांदी (दासी) के रूप में राजमहल में भेज दे। राजा का यह प्रस्ताव सुनकर लछमू कठैत तेस में आ गए। बड़े गवीले स्वर में उन्होंने राजा को ठेठ जवाब दिया "महाराज, मैं आपका सेवक हूं हमारी घर की बहू-बेटियां नहीं। हमारे घर की लड़कियां बाकायदा विवाहित होकर ही ससुराल जाती हैं। आपको यह मंजूर है तो हम तैयार हैं, अन्यथा नहीं।" ऐसा गर्वपूर्ण उत्तर सुनकर राजा क्रुद्ध हो गए। उस समय राजा के किसी भी हुक्म की अवहेलना करना राजद्रोह जैसा था। इसी बीच एक दूसरी घटना घटी।


    उन दिनों 'पाला बिसाऊ' की प्रथा थी राज्य में। यह एक प्रकार का सालाना टक्स था प्रजा पर। प्रत्येक परिवार प्रति वर्ष राज दरबार को एक बोझा घास, चार पाथा चावल, दो पाथा गेहूं, एक सेर घी और एक बकरा देता था और रसीद प्राप्त कर पट्टी पटवारी को दिखाता था कि मैंने 'पाला बिसाऊ' दे दिया है। जो रसीद नहीं दिखाता था, उसे जेल की सजा होती थी। राजधानी टिहरी में दरबारी लोग रसीद देने में लोगों को परेशान करते थे। कभी-कभी तो रसीद लेने में महीनों लग जाते थे। लोगों का हाल बेहाल हो जाता था। एक बार बासर पट्टी की एक विधवा स्त्री 'पाला बिसाऊ' देने टिहरी आई हुई थी। टिहरी में उसे तीन दिन हो गए थे, पर रसीद नहीं मिली थी। उसे पता लगा कि उसके बड़े हाकिम टिहरी में ही है- वह कठैत जी के पास गई और अपनी व्यथा से उन्हें अवगत कराया। कठैत जी यह सुनकर विचलित हो गए। वे तत्काल दीवान श्रीचन्द के पास गए और इसके लिए उन्हें खूब सुनाई। दीवान जी राजा के पास गए और कठैत के खिलाफ राजा के कान भरे कि लछमू तो प्रजा को आपके खिलाफ भड़का रहा है। बस क्या था- यह सुनकर राजा साहब का पारा चौथे आसमान पहुंच गया। कठैत दरबार में बुलाया गया। राजा ने उन्हें बहुत धमकाया और अपमानित किया।कठैत तो अपनी आन-बान के पक्के थे। उन्होंने अत्यन्त रोषपूर्ण शब्दों में कहा "राजा साहब, आप प्रजा पर जुल्म कर रहे हैं। यह 'पाला बिसाऊ' बन्द करा दीजिए, नहीं तो भयंकर परिणाम होंगे।" राजा साहब क लिए यह खुली चुनौती थी। उन्हें लछमू के भीतर से राजद्रोह की चिनगारी सुलगती नजर आई। फलस्वरूप लछमू कठेत को नौकरी से निकाल दिया गया। उन्हें तत्काल राज्य की सीमा से बाहर चले जाने का हुक्म हो गया। यह घटना 1882 के प्रारम्भ की है।


    कठैत जी के लिए यह अपमान असह्य हो गया था। वे सीधे दिल्ली पहुचकर वायसराय से मिल और टिहरी की व्यथा सुनाई। वायसराय ने तुरन्त संयुक्त प्रान्त के लेफ्टिनेन्ट गवर्नर को हुक्म दिया कि स्वयं टिहरी पहुंचकर राज्य की प्रजा का दुख सुने। यदि कठैत की बात सही है तो राजा को गद्दी से उतारकर अग्रेज प्रशासक नियुक्त्त कर दें। यह खबर जब टिहरी दरबार पहुची तो सन्नाटा छा गया। इधर राज्य भर में यह समाचार बिजली की गति से फैल गया। बासर पट्टी की स्त्रियों को छोड़कर बच्चा-बच्चा राजा के खिलाफ गवाही देने गाजे-बाजों के साथ पौड़ी की ओर चल पड़ा। असेना गाँव तक पहुंचते-पहुंचते चौदह हजार गवाह समूह उमड़ पड़ा था। राजा के दीवान श्रीचन्द ने यहां पर सुलह के प्रयास किए, किन्तु उद्वेलित जनता ने उनकी यह प्रार्थना ठुकरा दी। फिर राजा आकर स्वयं कठैत से मिले और उन्हें किसी तरह मना लिया। अन्त में राजगाँव नामक स्थान पर सुलह हुई। राजा ने 'पाला बिसाऊ' कर और अनुचित बेगार न लेने की घोषणा कर दी। लछमू कठेत को राजसी गाउन और सोने की टोपी, जिसे राजा स्वयं पहनते थे, पहिनाकर सजाया गया। उनकी छीनी हई जायदाद उन्हें वापस कर दी गई। यही नहीं, उन्हें पुराने पद पर बहाल कर दिया गया। घोषणा की गई कि उनके फैसलों पर अपील नहीं हो सकेगी। नियम बना दिया गया कि भविष्य में जब कोई राज समारोह हो तो वह लछमू कठैत के गीत से आरम्भ हो। ब्रिटिश सरकार ने उन्हें राय बहादुर की उपाधि से सम्मानित किया। इन बदली परिस्थितियों से राज दरबारी जलभुन गए। 1886 में एक दिन कुछ दरबारियों ने मिलकर उन्हें जहरीली शराब पिला दी। उपचार के बाद फरवरी 1887 में इनका निधन हो गया।


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