कोट भ्रामरी मंदिर | |
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स्थान | मल्ला कत्युर, तैलीहाट |
जिला | बागेश्वर |
ऊँचाई | समुद्रतल से 975 मी. |
प्राथमिक देवता | भ्रामरी देवी (दुर्गा माँ) और नंदा देवी |
गरूर से दूरी | 3 कि.मी. |
कौसानी से दूरी | 19 कि.मी. |
अल्मोड़ा से दूरी | 70 कि.मी. |
बागेश्वर से दूरी | 23 कि.मी. |
कत्यूरीयों की कुलदेवी भ्रामरी और चन्दों की कुलदेवी नंदा का सामूहिक मंदिर कोट भ्रामरी मंदिर अल्मोड़ा - ग्वालदम मार्ग में बैजनाथ मंदिर (गरूड़) से लगभग 3 कि.मी. दूरी पर समुद्रतल से 975 मीटर की ऊँचाई पर एक पहाड़ी पर स्थित है। कोट यानी किले में स्थापित किये जाने के कारण यह मंदिर कोट भ्रामरी या कोट की माई (माँ) के नाम से प्रसिद्ध है। पुरातन काल में किलों की रक्षा हेतु कुल देवता व कुल देवियों के मंदिर बनाये जाने के कई बातें मिलती है। कोट भ्रामरी का यह मंदिर मल्ला कत्यूर, तैलीहाट में एक पुराने दुर्ग की दीवारों के भीतर एक कक्ष में है। Kot Bhramari Temple
मंदिर में भ्रामरी देवी सात्विक और नंदा देवी तामसी रूप में स्थापित है। कहते हैं कि चंद शासक जब देवी नंदा की मूर्ति गढ़वाल से अल्मोड़ा ला रहे थे तो रात्रि विश्राम हेतु झालीमाली गाँव में रूके। अगली सुबह जब मूर्ति को अल्मोड़ा ले जाने के लिए उठाने लगे तो मूर्ति हिल भी न सकी। काफी प्रयत्न करने के बाद भी जब मूर्ति को उठा नहीं पा रहे थे तब पण्डितों की सलाह पर इसी स्थान पर माता की शिला की स्थापना की गई। कुछ समय पश्चात कोट की माई में ही नंदा देवी की स्थापना की गई तथा यहीं पूजा भी की जाने लगी।यहां आदिगुरू शंकराचार्य अपनी गढ़वाल यात्रा के दौरान यहीं पर कत्यूरी राजाओं के अतिथि के रूप में रूके थे। कौसानी, गरूड़, ग्वालदम व इसके आस पास के क्षेत्र में यह मंदिर काफी प्रमुख रूप से श्रद्धा का केन्द्र है। चैत्र व भाद्रपद में की नवरात्रियों की अष्टमी पर यहां विशेष पूजन व उत्सव भी होता है। देवी के इस मंदिर की स्थापना 8 वीं सदी की मानी जाती है। कत्यूरी राजाओं के किले होने के कारण इसका तत्कालीन नाम ‘रणचूलाकोट या रणचूलाहाट’ था। Nanda Devi in Kot Bhramari Temple
मान्यता
कहा जाता है कि एक समय पर कत्यूर घाटी व इसके आस पास के क्षेत्र में अरूण दैत्य का काफी प्रकोप था।दानव ने घाटी के आस पास की सभी पहाड़ियों के बीच में अवरूद्ध उत्पन्न करके सभी नदियों, नालों, गधेरों का पानी रोक दिया। जिससे सारी घाटी जलमग्न हो गई। लोगों द्वारा दुर्गा माँ से विनती कर असुर का विनाश करने व इस आपदा से रक्षा करने हेतु प्रार्थना की गई। अरूण दानव को ब्रह्मा जी का वरदान था कि वह दो और चार पैर वाले किसी भी जीव से नहीं मारा जा सकता। तब देवी माँ ने षट्पदीभ्रमर (छः पैर वाला भँवरा) का रूप लेकर असुर के प्रकोप से लोगों की रक्षा की और अरूण दैत्य का अन्त किया। दुर्गा सप्तशति में भी इसका वर्णन मिलता है (जिस समय अरूण नामक असुर तीनों लोकों में भयंकर उपद्रव करेगा, उस समय मैं असंख्य भौंरों का रूप बनाकर उस महाअसुर का वध करूंगी। तब संसार में सभी मनुष्य मेरी भ्रामरी नाम से स्तुति करेंगे - दुर्गा सप्तशति, ग्यारहवां अध्याय... हिन्दी अनुवाद)।
यहां देवी को गुड़-पापड़ी का भोग लगाया जाता है। कोट भ्रामरी मंदिर का यह भी महत्व है कि नन्दाराज जात में सम्मिलित होने के लिये अल्मोड़ा से प्रस्थान करने वाली यात्रा का दूसरा रात्रि विश्राम इसी स्थान पर होता है। यहीं से देवी की स्वयंभू कटार को ले जाया जाता है।
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