ग्वेल देवताः कूर्मान्चल में व्यापक धार्मिक भावनाओं और उपासना पद्धतियों में ग्राम देवता या कुल देवता का विशिष्ट स्थान है। इनकी उपासना के मूल में भूत-प्रेत पूजा, सामन्ती व्यवस्था के प्रति तीव्र आक्रोश तथा अवर्गों के प्रति सवर्णो से प्रतिक्रियात्मक भावना व्याप्त है। इनमें सत्यनाथ, भोलानाथ, गंगनाथ, ग्वेल, सैम, ऐडी, भैरों, कलबिष्ट, चौमू, हरजू, भूमिया, नन्दादेवी, गरदेवी, ज्वालपादेवी, जियाराणी, झालीमाली आदि प्रमुख हैं। पौराणिक देवी-देवताओं की अपेक्षा, यहां के लोकजीवन को यहां के स्थानीय देवी-देवताओं ने अधिक प्रभावित किया है। ऐसा प्रतीत होता है कि ये सभी क्षेत्रीय देवी-देवता यहां की आदिम जातियों की देन हैं, जिन्होंने इन चरित्रों के माध्यम से अपना आक्रोश व्यक्त किया है।
कूर्माचल में हरु, सैम, ग्वल (गोरिल) आदि की गाथाएं लोक जीवन में खूब प्रचलित हैं। विश्वास किया जाता है कि चम्पावत के राजा ज्ञानचन्द, जिनको राज्यकाल कुमाऊँ का इतिहास के लेखक श्री बद्रीदत्त पाण्डे जी ने 1374 से 1419 बताया है, के समय चम्पावत के समीप गोरिल चौड़ और जागेश्वर के समीप झाकरसैम को केन्द्र बनाकर इन्होंने राजनैतिक गतिविधियों का संचालन किया। इनसे सम्बन्धित कोई लिखित इतिहास तो उपलब्ध नहीं है, किन्तु लोकगाथाओं से इनका पूरा चरित्र चित्रण हो जाता है।
गोरिल को न्याय का देवता कहा गया है। नदी में बहाए जाने के कारण इसका नाम गोरिया यो गोरिल्ल भी कहा गया है। गुलेल का निशानेबाज होने के कारण इसे ग्वल (ग्वेल) कहते हैं। इसका महत्व कुमाऊँ में ही नहीं, गौरेया नाम से उ.प्र. के पूर्वी जिलों में भी है। रियासत टिहरी के राजा सुदर्शन शाह ने अपनी रियासत में गोरिल्ल की पूजा पर प्रतिबन्ध लगा रखा था। अब तो गढ़वाल क्षेत्र में ग्वेल देवता की पूजा होती है। यह भी विश्वास किया जाता है कि यह बलपूर्वक अपनी पूजा लेता है। कुमाऊँ में गोरिल देवता के मन्दिर चौड, गरुड़, उदैपुर, मनारी, घोड़ाखाल, मानिल, कुमौड़, गागर रानीबाग, चितई आदि स्थानों में हैं। जागर के अनुसार न्याय के देवता की कथा इस प्रकार है :- लेखक)
कुमाऊँ के गालिस्यूकोट में किसी समय राजा आसुराई का राज्य था। उनके पौत्र राजा झालूराई के सात विवाह होने पर भी कोई सन्तान ने थी। ज्योतिषी के कहने पर आठवें विवाह से सन्तानोत्पत्ति हुई और उसका विवाह हिमालय की तलहटी में स्थित किसी राज्य के राजा कालानर की सुन्दर कन्या कालिका से हो गया। कालिका गर्भवती हुई। प्रसवकाल जब निकट आया तो झालूराई को जरूरी काम से बाहर जाना पड़ा। जाते समय वह आदेश दे गया कि यदि रानी के पुत्र हो तो सामने टंगी हुई घन्टी बजा देना। अन्य सात रानियों से सौतिया डाह से षड़यंत्र रचा। प्रसव के समय रानी कालिका की आंखों पर पट्टी बांधकर नवजात शिशु के स्थान पर सिल का बट्टा रख दिया और ऐसा ही प्रचारित कर दिया। नवजात शिशु को मारने के लिए उन्होंने अनेक प्रयास किए, किन्तु वह विलक्षण बालक मरा नहीं। तब उन्होंने शिशु को लोहे के सन्दूक में बंद कर गोरी नदी में बहा दिया। संयोग से मानाथीवर नाम के एक मछुवारे के हाथ लग गया वह शिशु। उसी ने उसका लालन-पालन किया। बालक अत्यन्त मेधावी था और हर समय गुलेल हाथ में रखता था। इतना ही नहीं, उसे अपने जन्म से सम्बंधित सभी घटनाएं याद थीं। बड़ा होने पर बालक पिता की राजधानी पहुंचा और सारी आप बीती राजा को बताई। राजा ने क्रोध में सभी सातों रानियों की आंखें निकलवा दी और बालक को राजा बना दिया।
कालान्तर में यह अत्यन्त न्यायप्रिय राजा सिद्ध हुआ। जिसको कहीं न्याय नहीं मिलता था, वह गोरिल के पास आता था। मृत्यु के बाद भी ग्वेल राजा देवता के रूप में पूजा जाने लगा। लोक गाथाओं में गोरिल के दो रूप राजकुमार और देवता के पाए जाते हैं। इन्हें हम जीवनी और महातम्य के रूप में भी विभक्त कर सकते हैं। प्रारम्भिक गाथाओं में गोरिया को 'धौली धुमाकोट' से जोड़ा जाता है। लेकिन बाद की गाथाओं में चम्पावत से जोड़ा जाता है। चम्पावत नगर के समीप 'गोरिल चौड़' में चन्द राजा ज्ञानचन्द के शासन काल में गोरिया ने अपना आश्रम स्थापित किया, जो बाद में कुमाऊँ का एक प्रसिद्ध धर्मस्थल बन गया। 'भनर्या' नाम से भी वह प्रसिद्ध हुआ। 'ख्याल' नामक शैली में 'भनय' की जो गाथा प्रचलित है, उसमें गोरिया का नैनीताल में घोड़ाखाल जाने का वर्णन है। गोरिया पर नाथपंथ का पूरा प्रभाव था। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि गोरिया एक नाथपंथी जोगी था।
हमसे वाट्सएप के माध्यम से जुड़े, लिंक पे क्लिक करें: वाट्सएप उत्तराखंड मेरी जन्मभूमि
हमारे YouTube Channel को Subscribe करें: Youtube Channel उत्तराखंड मेरी जन्मभूमि