धार्मिक व आध्यात्मिक दृष्टि से भारत के इतिहास में उत्तराखण्ड का प्रमुख स्थान है। पुराणों में भी उत्तराखण्ड को देवभूमि कहा गया है। यहाँ की धरा ऋषिमुनियों की तपोस्थली भी रही है तथा यहाँ से सभ्यता व संस्कृति का आलोक सम्पूर्ण भू-मण्डल तक फैला हुआ है। आज भी यहाँ देवी-देवताओं के प्रति लोगों की अटूट आस्था व श्रद्धा है। कहा जाता है कि प्रत्येक शिखर, चोटी-घाटी, बाट-घाट, नदी, गाड़-गधेरे व जंगलों में 33 करोड़ देवीदेवता निवास करते हैं। यहां देवी-देवताओं के साथ ही प्रकृति पूजा का भी प्रचलन है। वृक्षों में पीपल, बट, पदम्, केला, आंवला, तुलसी व जौ आदि की पूजा की जाती है।
उत्तराखण्ड का समूचा क्षेत्र अपने धार्मिक और पौराणिक महत्व के लिए जाना जाता है। ऊंचे हिमशिखर, घने जंगल, कल-कल बहती सदा नीरा, तरंग लिए जल प्रपात, मखमली बुग्याल तथा मंदिरों से गूंजते भक्ति भाव के स्वर मन को मोह लेते हैं। ऊंची-ऊंची पहाड़ियां और फिर आगे हिमालय श्रृंखला इसके रहस्य लोक में ले जाती हैं। क्षेत्र के विभिन्न तीर्थों का यात्रावृतांत उत्तराखण्ड के प्रवेश द्वार से ही प्रारम्भ हो जाता है। दूर-दराज जंगलों, घाटियों और मैदानों में स्थित सिद्धपीठ अविख्यात या लगभग अपरिचित आश्रमों के बारे में लोगों को बहुत कम या लगभग नहीं के बराबर पता होगा। ऐसे स्थानों के बारे में जानने की उत्कंठा और जिज्ञासा हर जागरूक व्यक्ति में होती है। ऐसा ही एक स्थान है कल्पवृक्ष।
यह स्थान अल्मोड़ा कफड़खान मोटर मार्ग में शैल गांव से लगभग ढाई किलोमीटर की दूरी पर छाना ग्राम में स्थित है। अल्मोड़ा से यहां की दूरी लगभग 7-8 किलोमीटर है। मोटर मार्ग से लगभग ढाई किमी.की दूरी पैदल ही तय करनी पड़ती है। कल्पवृक्ष नामक वृक्ष को ही मंदिर के नाम से जाना जाता है।
यजुर्वेद के सौलहवें अध्याय में वृक्ष, वनस्पतियों और उनके आश्रय स्थल जंगलों की अर्चना की गयी है। इन्हें रुद, शिव, महादेव और ईश्वरी चेतना से तरंगित क्षेत्र बताया गया है। भारत की संस्कृति वृक्ष पूजक रही है। आरम्भ से ही यहां वृक्षों में देवत्व की अवधारणा और उसकी पूजा की परम्परा रही है। वृक्ष-वनस्पतियों के महत्व से धर्मग्रन्थ भरे पड़े हैं। वृक्षों के प्रति ऐसा अगाध अनुराग और पूज्य भाव शायद ही कहीं मिले, जिसमें उन्हें एक स्तर पर मनुष्य से भी ऊंचा स्थान दिया गया हो या उनकी पूजा कर सुख और समृद्ध की कामना की गयी हो। प्रयाग का अक्षय वट अवन्तिका का सिद्ध वटनासिक का पंचवट, गया का बोधि वृक्ष और वृदावन का बंशीवट भारत की वृक्ष केन्द्रित श्रद्धा का ही प्रतिनिधित्व करते हैं। वृक्षों में देवत्व की अवधारणा का उल्लेख वेदों के अतिरिक्त प्रमुख रूप से मत्स्य पुराण, अग्नि पुराण, भविष्य पुराण, पदम पुराण, नारद पुराण, रामायण, भगवदगीता और शतपथ ब्राह्मण आदि ग्रंथों में मिलता है। विश्व की दूसरी सभ्यताओं में भी मनुष्य का प्रकृति के प्रति आदर और प्रेम का रिश्ता है।
प्राचीन साहित्य में जिन पवित्र और अलौकिक वृक्षों का उल्लेख किया गया है उनमें कल्पवृक्ष प्रमुख है। कल्पवृक्ष को देवताओं का वृक्ष कहा गया है। इसे मनोवांछित फल देने वाला नंदन वृक्ष भी माना जाता है। हर व्यक्ति के जन्म नक्षत्र का वृक्ष उसका कुल वृक्ष है। यही उसके लिए कल्पवृक्ष है। जिसकी आराधना कर वांछित फल प्राप्त किया जा सकता है।
यह वृक्ष कई कविदन्तियों को अपने में समेटे है। कहा जाता है कि इस वृक्ष की उत्पत्ति समुद्र मंथन के फलस्वरूप चौदह रत्नों में से हुई। इसी प्रकार के एक वृक्ष का उल्लेख गया (काशी) में भी मिलता है। कहा जाता है कि इस वृक्ष की जड़ें कर्नाटक राज्य से निकली हैं। इस वृक्ष का एक अन्य नाम चितावर भी है। क्योंकि यह वृक्ष चित्तीदार है। यह स्थान स्थानीय जनता की श्रद्धा का प्रमुख केन्द्र है। विभिन्न अवसरों पर स्थानीय जन यहां पूजा-अर्चना हेतु आते रहते हैं। इसके आसपास स्थित विभिन्न ग्रामों जैसे - दुलागांव, रैलाकोट, स्यूड़ा, मटेला, उडियारी, घनेली, जोशीयाड़ा, कुठकोली, घुरसों, शैल आदि की जनता यहां अटूट विश्वास व श्रद्धा रखती है। स्थानीय प्रशासन की उदासीनता के कारण यहां यातायात की सुविधा का नितान्त अभाव है। जनता ढाई किलोमीटर का उबड़-खाबड़ रास्ता पैदल ही तय कर यहां पहुंचती है। यदि प्रशासन इस ओर उचित ध्यान दे तो यह स्थान भी एक पवित्र पर्यटक स्थल के रूप विकसित हो सकता है।
प्रतिवर्ष यहां हजारों पर्यटक उत्सुकतावश आते रहते हैं। विभिन्न संत महात्माओं के कुशल निर्देशन में यहां कई भागवत, शिव महापुराण व अखण्ड रामायण पाठ व भजन कीर्तन तथा जागरण का आयोजन होता रहता है जिसमें स्थानीय जनता बढ़ चढ़कर भाग लेती है। उत्तराखण्ड के उन देव स्थानों में अब भी पर्याप्त सात्विकता है, जहां लोग अपनी तरह से प्रबन्ध सम्भालते हैं। यह वृक्ष कहा जाता है कि तांत्रिक साधना का भी प्रमुख केन्द्र है। कई तांत्रिकों ने यहां सिद्धि प्राप्त की है। इस कारण इस वृक्ष को मायावी भी कहा जाता है। स्थानीय बुजुर्गों के अनुसार कभी-कभी रात्रि के समय वृक्ष में टिमटिमाते तारे दृष्टिगोचर होते हैं जो कि एक अद्भुत व आलौकिक दृश्य उपस्थित करते हैं। वृक्ष में फुल तो आते हैं परंतु इसके फल किसी ने नहीं देखे एक बार एक व्यक्ति ने इस वृक्ष की शाखा को काटकर अपने यहां लगाया तो उसे घोर विपत्तियों का सामना करना पड़ा। प्रारम्भ में वृक्ष के पास बैठने तक की जगह नहीं थी।
वृक्ष के पास ही एक गड्ढा है जिसमें सिक्का डालने पर खन-खन की आवाज आती है और ऐसा प्रतीत होता है कि सिक्का कहीं अनंत को जा रहा है। यहां उड़द की खिचड़ी का भोग वृक्ष को लगाया जाता है और इसे ही प्रसाद रूप में श्रद्धालुओं द्वारा ग्रहण किया जाता है। यहां कई संत महात्मा विभिन्न अवसरों पर निवास करते आये हैं। जिनमें नागा बाबा, जगदीश बाबा, भारती बाबा तथा मनमोहन गिरि प्रमुख हैं। मनमोहन गिरि संगीत प्रवर्तक तथा मिलनसार संत थे। वर्तमान समय में यहां श्री कैलाश गिरि महाराज विराजमान हैं जो अपने अथक परिश्रम से यहां की कल्पकाया करने का भगीरथ प्रयास कर रहे हैं।
यहां आने वाले श्रद्धालु अपनी मनोकामना पूर्ति हेतु वृक्ष में गांठ बांधते हैं तथा मनोकामना पूर्ण होने पर पूजा अर्चना के उपरान्त गांठ को खोलते हैं। यह भी कहा जाता है कि वृक्ष को काटने पर उसमें से रक्त स्राव होता है। पृथ्वी के बाहर आते ही वृक्ष पांच विशालकाय शाखाओं में विभक्त हो जाता है तथा इसकी विशाल शाखायें इधर-उधर फैल जाती हैं। इस वृक्ष का इतिहास बहुत प्राचीन लगभग 7-8 हजार वर्ष पूर्व का है। जिसने भी वृक्ष को देखा इसी रूप में देखा। यहां आकर इस वृक्ष की पूजा का ही मुख्य विधान है। सच्चे मन से उपासना करने पर मनोकामनाओं की निश्चित पूर्ति होती है। इसलिए इस वृक्ष की मान्यता है। इस वृक्ष की पत्तियां तोड़ने या वृक्ष को किसी प्रकार की हानि पहुंचाना वर्जित है। इसमें पतझड़ कभी नहीं आता। यदि अनायास किसी को इस वृक्ष की पत्ती गिरी हुई मिल जाती है तो वह बड़ा भाग्यवान माना जाता है। भगवान शिव स्वयं अपने को इस वृक्ष में विद्यमान बताते हैं।
नामे वृक्षेभया, हरि केशेभ्यों,
पशुनाम पतये नम:।
माता सीता से इस वृक्ष को हमेशा हराभरा रहने का वरदान प्राप्त हुआ है। प्रत्येक त्यौहार व पर्व पर यहां स्थानीय जनता की अपार भीड़ लगी रहती है। श्रद्धालु दीपक जलाकर अभिषेक तथा कुछ क्षण के लिए वृक्ष के नीचे समाधिस्थ अवस्था में बैठते हैं जिससे बहुत शान्ति मिलती है तथा अलौकिक आत्मानुभव होता है।
यह स्थान नागों का भी गड़ है। नाग, लक्ष्मी के अनुचर रूप में जाने जाते हैं। इसीलिए कहा जाता है कि जहां नाग-देवता का वास रहता है। वहां लक्ष्मी जरूर रहती है। इसकी पूजा अर्चना से आर्थिक तंगी और वंश वृद्धि में आ रही रूकावट से छुटकारा मिलता है। कहा जाता है कि यहां मणिधारी नाग भी विद्यमान है जो कभी-कभी दृष्टिगोचर होता है। इस वृक्ष की शाखायें कुछ अन्य स्थानों पर भी देखी गयी हैं। उदाहरणार्थ - छाना व दुला गांव में इस वृक्ष की शाखायें प्रस्फुटित हुई हैं।
शिवरात्रि को यहां विशाल मेला लगता है। होलियों में आसपास के ग्रामों की होलियां यहां आती हैं तथा वृक्ष की परिक्रमा करते हुए अबीर-गुलाल चढ़ाते हैं। वृक्ष की नौ प्रमुख शाखायें हैं। एक शाखा पृथ्वी के ऊपर प्रस्फुटित होकर तीन भागों में विभक्त है। इस वृक्ष की जड़ें दूर-दूर तक फैली हुई हैं तथा पृथ्वी की ऊपर निकलकर एक नये वृक्ष को जन्म देती हैं। इस प्रकार सम्पूर्ण गुण सम्पन्न यह वृक्ष वृक्षराज भी कहलाता है। विभिन्न अवसरों पर यहां अनेक धार्मिक अनुष्ठान होते रहते हैं। यदि शासन-प्रशासन उचित ध्यान दे तो इसे सड़कमार्ग से जोड़कर प्रसिद्ध पर्यटक स्थल के रूप में विकसित किया जा सकता है। जिसका लाभ जहां देश व प्रदेश को मिलेगा वहीं इस क्षेत्र में स्थित अनेक गांवों का भी विकास होगा तथा यहां के स्थानीय उद्योग धंधों को भी विकास का नया आयाम मिलेगा।
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