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    कुमाउँनी लोक काव्य में सौन्दर्य चित्रण

    मानव की सुकुमार भावनाएँ आदिकाल से प्रकृति की मनोरम गोद में पलती आ रही हैं। शिशु ने आँख खाली तो माँ के आँचल की छाया से नीले आकाश ने उसे लुभाया। झिलमिलाते तारों और चाँद की सुन्दरता पर वह निहाल हो गया। इस घरती की हरियाली ने उसे मोह लिया। पेड़-पौधों और लता-पादपों की बीच रंग-बिरंगे फूलों ने उसके अधरों को मधुर-मीठी मुस्कान से साजाया। गिरि-कंदराओं शैल-शिखरों, सरिताओं-निर्झरों ने उसकों पावन और पक्षियों के सुर में सुर मिलाकर गाना सिखाया। चारों ओर माधुर्य ही माधुर्य, सौन्दर्य ही सौन्दर्य, उल्लास ही उल्लास। प्रकृतिके इस इन्द्रधनुषी रंग को, इस रंग में रंगे हुए मानव के मन की मिठास को कवियों ने गीतों में, कविता में, काव्य में समेट लिया। धरती गाने लगी। मानव की सारी वृत्तियाँ प्रकृति के इस मनोहारी रूप सौन्दर्य के साथ एक तान, एक लय हो गयी। मानवीय भावनाओं और मानवेतर जगत का यह रागात्मक सम्बन्ध, यह सामंजस्य अपने आप में अद्भुत है। हिमालय विधाता की सुन्दरतम कृति है। कालिदास ने कुमारसंभव महाकाव्य का आरम्भ देवात्मा हिमालय के वर्णन से किया है-


    “अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवात्मा हिमालयों नाम नगाधिराज;”


    कविवर जयशंकर प्रसाद ने भी कामायनी का प्रारम्भ “हिमगिरि के विराट, रहास्यात्मक एवं अलौकिक सौन्दर्य से भारतीय जीवन और साहित्य सदा प्रभावित हुआ है और उसने भारत को आध्यात्मिक, भौतिक तथा मानसिक दृष्टि से प्रभावित किया है। एक ओर रहस्यात्मक अनुभूतियाँ हैं और दूसरी ओर हिमालय के आँगन में फैले प्राकृतिक उल्लास की गहरी छाप है। कुमाऊँ का जन जीवन इसी सुंदर, मनोहरी एवं आकर्षक परिवेश में पलता पनपता और बढ़ता है। यही परिवेश वहाँ के कवियों की प्रेरणा का स्रोत रहा है। इसमें सत्यम्, शिवम्, सुन्दरम, की कल्पना साकार हुई है।


    कुमाऊँ में कही दूर-दूर तक फैले हुए हरे भरे वन हैं, कहीं हरी दूब के मखमली बुग्याल हैं। कहीं फलों की बहार है, कहीं फूलों की शोभा है। अनेक प्रकार के पुश-पक्षी हैं। वहीं का लोक जीवन इन वनों की हरीतिमा में, पेड़-पौंधों के नृत्य मेंं, पक्षियों के गीतों के माधुर्य में डूब जाता है। वह शैल-शिखरों से बतियाता है, पेड़-पौधों को अपने सुख-दुख का भागी बनाता है, पक्षियों से मैत्री उसे सहारा देती है। वह उनकी बोली समझता है, उनके गीतों में छिपी पीड़ा का अनुभव करता है, अपना दर्द भी उन तक पहुँचाता है। झरने उसके साथ गाते हैं। नदियाँ उसे जीवन में आगे बढ़ना सिखाती हैं। संघषों से जूझना सिखाती हैं। वह टेढ़े मेढ़े रास्तों से मंजिल पाना सीखता है। दिन उसे ऊर्जा देता है। रात उसे शांति का संदेश देती है। चाँद-सितारों से उसे दूसरों में सुख का प्रकाश बाँटने की प्रेरणा मिलती है। धरती का कण-कण उसके रोम-रोम में उमंग, उत्साह और अलौकिक आनंद का संचार करता है। एक चित्र देखिये-


    हरिया जंगल ददा के भला लागनी,
    पशु पंछी सुमधुर बोली मा बागनी।
    बाँज लै बुरूंशा उवा के भला सुहानी,
    सौवा उवा हवा मजि मिठ गीद गानी।


    हरे जंगलों में बाँज, बुराँश, चीड आदि के वृक्षों की शोभा देखते ही बनती है। पंछी वहाँ मधुर गीत ही नहीं गाते वरन् मायके की याद में घुलती हुई पर्वतीय बेटी को सांत्वना भी देते हैं। घुगुती (एक पक्षी) तो उनके साथ हँसती है, बोलती है और एक सखी की भाँति उनके दुख में आठ-आठ आँसु रोती भी है-


    दाड़िमै की डाइ मजि घुगुती घुरैंछा,
    वियोगी बालिका कणि भलिकै झुरैंछा
    सुरीली बोलिम कैंछ भोव लाली भोव,
    आज पैट पनर छैं भोव पैट सोव।


    एक चित्र और है- दिन छिपने को हैं। कहीं से मुरली के सुरीले स्वर कानों में रस घोल रहे है। हरी-भरी खेती है। कहीं बिणाई बज रही है। बहुत ही सुहावना समय है। पर किसी का मन नाच रहा है, झूम रहा है और किसी का हृदय कसक रहा है-


    घाम गोयो धारमा, ब्याखुली का लारमा, रूमझुमा
    विणाई बाजी फिरि हरिया सारिमा।
    फिरि मुरूली बाजी हो, गैलीगधेरि गाजी हो, कैकि
    पराणि कर्र काटी कैकि पराणि नाचि हो।


    हर्ष और विषाद का यह अद्भुत सामंजस्य अपने आप में कितना सुंदर है। कुमाउँनी लोक जीवन इस दिव्य अलौकिक एवं सौन्दर्य के आगार हिमालय की गोद में खेलता है। हिमालय के सौन्दर्य की निधि वहाँ के जीवन में शाश्वत उल्लास की सृष्टि करती है। इसी सौनदर्य के पारखी कवियों ने अपने प्राकृतिक वातावरण, परिवेश और उस धरती की विशिष्टता को काव्य में, गीतों में और साहित्य की हर विधा में वाणी दी। जीवन की विषम परिस्थितियों में भी सौन्दर्य की पहचान के ़द्वारा वहाँ का कवि यथार्थ के चित्रण में कल्पना और अलंकारों के सहारे गहन प्रभाव की सृष्टि करते हुए सौन्दर्य को काव्य मंक सँवारता है। इस सौन्दर्य चित्रण का प्रमुख आधार प्रकृति ही तो है।


    कुमाऊँ के रूपहले रजतमय शिखर, हरी-भरी उपत्यकाएँ, संगीत में डूबे हुए निर्झर, इठलाती, बलखाती फेनिल सरिताएँ, पुष्पित कानन, बसंत की बहार, ऊषा-संध्या के रंगीन चित्र, शीतल-मंद समीर, हरी मखमली दूब पर ढुलकते-चमकते ओस के कण, धरती को दुल्हन की भाँति सजाते दूध सी दूध भाती, प्योली के पीले और बुराँश के लाल-लाल फूल, रसीले काफल, हौसिया हिसालू और चुटीला किलमौड़ जैसे फलों की मिठास सब कुछ वहाँ प्रकृति “पल-पल में अपना वेश” बदलती रहती है। तभी तो प्रकृति सुन्दरी की क्रीड़ास्थली है। यहाँ अठखेलियाँ करती हुई प्रकृति के अंग-अंग खिल उठते हैं। पुर्ण चन्द्र की ज्योत्सना में अब रात हँसती है तो कुमाऊँ का जीवन उल्लास में झूम उठता है। कवि का अनुभूतिपूर्ण हृदय इस अलौकिक तथा अपरिमित सौन्दर्य को काव्य में समेट लेता है। श्री राम दत्त पंत ने सच ही कहा है- ज्योत्सना की शोभा में धरती उल्लसित है, मानो सर्वत्र कोई उत्सव छाया हुआ है, शीतल पवन मन की गहराई को छूकर गुदगुदी सी कर रहा है। दूर कहीं से बाँसुरी के सुरीले स्वर, शैल-शिखरों, घाटियों में गूँज रहे हैं। उन स्वरों के साथ मानो चाँद और तारे पुलकित होकर थिरक रहे है। चाँदनी में नहाती हुई धरती का उल्लास और आकाश की शोभा देखते ही बनती है। जिस प्रकार सरिता की ऊर्जा से पनचक्की में थिरकन पैदा होती है उसी प्रकार प्रकृति का यह अलौकिक सौन्दर्य सभी के मन को मोह रहा है, जैसे कृष्ण की बाँसुरी के मधुर स्वरों पर गोपियों का मन मयूर नाच उठता था।


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