उत्तराखण्ड राज्य के गढ़वाल सम्भाग के मध्यकालीन इतिहास के उत्तरार्द्ध में रामा धरणी से वीर पुत्रों का उल्लेख है। किन्तु कुछ ऐतिहासिक प्रसंगो में इन्हें राज सत्ता के विरुद्ध षडयंत्र रच कर नेपाल की राजशाही को गढ़वंश पर आक्रमण करने सम्बन्धी सहायता पहुँचाने का आरोप के चलते इन वीरों का मूल्यांकन उत्तराखण्ड के इतिहास में इस तरह दर्ज नहीं हो सका जिसके वे हकदार थे।
लोक प्रसंगों के अनुसार रामा धारण दो सगे भाई थे। इनकी जाति के विषय में भी दो मत हैं। मूलतः ये खण्डूड़ी जाति के थे, किन्तु एक विवरण में इन्हें डोभाल जाति का बताया गया है। इन पर मध्य कालीन इतिहास में दोषारोपण किया गया कि इन्होंने नेपाल दरबार को गुप्त रीति से गढ़वाल के ऊपर आक्रमण करने की सलाह दी थी। किन्तु तत्कालिन समाज में इन दो वीरों के शौर्य और स्वभिमान की जिस तरह सर्वत्र प्रशंसा की गई है उससे प्रतीत नहीं होता कि इन्होंनं ऐसा राजद्रोह किया हो। क्यों कि नेपाल 1797 में गढ़वाल पर आक्रमण कर अनेक हिस्सों पर अपना आधिपत्य जमा चुका था। जिसके परिणाम स्वरूप गढ़नरेशों को प्रतिवर्ष नेपाल को 25,000 (पच्चीस हजार रुपये) कर के रूप में देना पड़ा था।
नेपाल देश के गोरखा आक्रमण के बाद गढ़नरेश ने भी शनै-शनै अपनी शक्ति बढ़ानी प्रारम्भ कर दी थी। इसी समय रामा और धरण क्रमशः मन्त्री और सेनापति के पद पर कार्यरत थे। ये दोनों वीरता के साथ अपनी बुद्धिमानी के लिए भी प्रसिद्ध थे। इसके कारण महाराजा और जनता में इनकी ख्याती और प्रतिष्ठा थी। राजवंश और जनता में इनकी लोकप्रियता के चलते कुछ राजदरबारी ही इनके विरुद्ध षडयंत्र रचने लगे थे।
गढ़वाल भूमि को गोरखा आक्रांताओं से मुक्त करने के लिए ये दोनों नीति तैयार करने में जुटे थे। ऐसा करके वे उस दोष को भी धोना चाहते थे जिसमें उन्हें नेपाल को गुप्त सूचना देने जैसे आरोप लगाए गये थे।
आखिर इन वारों ने एक उपाय खोज निकाला। इस नीति के तहत उन्होंने नेपाल जाने का निश्चय किया। राजा से अनुमति मिलने के बाद उन्होंने कुछ सिपाही लेकर नेपाल की ओर प्रस्थान किया। नेपाल दरबार में इनकी बुद्धिमत्ता और वाक मधुरता की प्रशंसा हुई। नेपाल नरेश ने इनसे प्रभावित होकर अपनी राजपुरोहित की कन्या से विवाह कर गढ़राजवंश को स्वतंत्र राज्य घोषित कर उसे मित्र राज्य के रूप मे मान्यता देते हुए कर वसूली बन्द करने की भी घोषणा की। यह समय वह था, जब 1803 ई. में नेपाल पुनः गढ़वाल पर आक्रमण की तैयारी कर रहा था।
अपनी इस कूटनीतिक नीति के चलते रामा ने नेपाल राज्य के साथ मैत्री संधि कर उल्लेखनीय कार्य किया था। रामा जब नेपाल में मित्रता की नई नींव रख रहे थे। उस वक्त भाई धरण, गढ़नरेश के निर्देश पर चमोली जनपद से लगी कुमांऊ सीमा पर उत्पन्न विद्रोह को दबाकर अपनी सीमाओं की रक्षा में जुटे थे। विद्रोह को सामाप्त कर धरण श्रीनगर लौट आए थे। रामा और धरणी जब अपने-अपने दायित्वों को सीमाओं पर पूर्ण कर गढ़राज्य वंश की सुरक्षा कार्य में व्यस्त थे, उस वक्त दरबार में कुछ षडयंत्रकारियों ने राजा को इनके विरुद्ध बरगलाना शुरु किया।
दरबार के षडयंत्रकारियों ने राजा को रामा धरणी के विरूद्ध यहां तक प्रचारित कर दिया कि रामा नेपाल नरेश के साथ मिल कर उन्हें गढ़वाल पर चढ़ाई के लिए गुप्त सन्देश दे रहे हैं। अब गढ़नरेश को इन शूरबीरों के विरूद्ध शक होने लगा।
रामा जब नेपाल से अपनी नव विवाहिता, कुछ दास, अंग रक्षकों को लेकर श्रीनगर की ओर चला, तब ही दरबार के षडयंत्रकारियों ने पुनः राजा के कान भरते हुए कहा कि महाराज रामा ने तो बहुत अनीति कर दी है। उसने आपके लिए आने डोले (सम्मान सूचक सामग्री) को अपने लिए रख लिया है। इससे महाराज क्रोधित हो उठे। उन्होंने आदेश दिया कि रामा का श्रीनगर पहुँचने से पहले सिर काट लिया जाय। जैसे ही रामा श्रीनगर पहुँचा तब ही सैनिकों ने उसे घेर लिया। राजपुरोहित की कन्या श्रीनगर पहुँचने से पहले ही अपने अंग रक्षकों के साथ सुरिक्षित नेपाल पहुँच गई। रामा धरण के शहीद होने का वर्णन जब उसने नरेश को सुनाया तो वे इससे क्रोधित हो उठे, ओर गढ़वाल पर चढ़ाई करने की तैयारियां प्रारम्भ कर दीं। आगे चल कर 1804 में नेपाल ने गढ़राज्य पर आक्रमण कर, कुमांऊ गढ़वाल पर आधिपत्य जमा लिया। 1804 से 1815 तक उत्तराखण्ड में नेपाल का एकछत्र राज रहा, जिसे इतिहास में दमनामक कर्म वाहियों के चलते, गोरख्याली के रूप में भी याद किया जाता है।
गढ़वाल-कुमांऊ में इस अवधि में जो नेपाली (आधुनिक संस्करण गोरखा) यहां आए वे बड़ा संख्या में पहाड़ के गांवों में बस गए। आधुनिक समय में गोरखा समुदाय की उपस्थिति नेपाल उत्तराखण्ड की साझी संस्कृति और इतिहास की एक जीवन्त कहानी भी बयां करती है।