Folklore


    सदेई-सदेऊ

    ‌गढ़वाली समाज में सदेई की कथा घर-घर में सुनाई और गायी जाती है। सदेई की कथा दिसा-धियाणियों (बहिन और बेटी) की व्यथा और उनके भ्रात प्रेम को उजागर करती है। अक्सर दूर डांडो- जंगलों में घास-लकड़ी काटती हुयी विवाहित युवतियां इस कथा को गीतों के स्वर में गाती हैं। सदेई गीत के माध्यम से वे मायके की खुद (याद) में खो जाती हैं। वास्तव में वे ससुराल में रहकर अपने कष्टों को बताती और मायके की कुशल क्षेम की कामना करती हैं। यह कथा इस प्रकार है। प्राचीन समय में पौड़ी गढ़वाल के राठ क्षेत्र की कन्या सदेई का विवाह कर्णप्रयाग क्षेत्र के चुला-कठूड़/थाती-कठूड़ गांव में कठैत परिवार में हुआ था। सदेई अपने परिवार में इकलोती सन्तान थी। संयोगवश मायके से किसी भी सगे-सम्बधी ने काफी समय तक उसकी सुध नहीं ली। अपने मायके की खु:द (याद) में खोई सदेई ने अपने ससुराल से मायके जाने वाले रास्ते में एक सिलंग का पौधा लगाया। उस निर्जन स्थल से उसके मायके की धार दिखती थी। वह सिलंग के पौधे की देखभाल करती हुयी अपने परिजनों की खु:द को विसराती थी। चैत के महीने जब गांव की अन्य बहुओं के भाई-बन्धु कलेवा लेकर आते तो उसका दुखः और भी बढ़ जाता। वह सिंलग के पौधे/पेड़ के पास आकर अपनी मायके की कुलदेवी झालीमाली से अपना भाई पैदा होने की प्रार्थना करती। उसने देवी से प्रतिज्ञा की कि यदि देवी उसको भाई होने का वरदान देगी तो वह देवी की हर इच्छा को पूरी करेगी।


    ‌सदेई की मनोकामना पूरी हुयी। मायके में उसका भाई पैदा हुआ। उसका नाम सदेऊ रखा गया। इधर सदेई के भी दो पुत्र हुये। इनका नाम उमरा एवं सुमरा था। किसी कारणवश सदेई कई साल तक अपने मायके नहीं जा पायी। सदेऊ जब बारह वर्ष का हुआ तो उसने अपनी दीदी सदेई से मिलने की अपनी मां से जिद कर दी। मां से अपनी दीदी के लिए कुछ सौगात लेकर सदेऊ कई बीहड़ जंगलों की बाधाओं को पार करता हुआ अपनी दीदी सदेई के गांव पहुंचा। सदेई पहली बार अपने भाई के उसके मायके आने की खुशी में अपनी पूर्व प्रतिज्ञानुसार झालीमाली देवी को अठवाड (7 बकरे और 1 भैंसा) देने लगी तो, आकाशवाणी हुयी कि देवी पशुओं की बलि से संतुष्ट नहीं होगी। सदेई ने मानव बलि के रूप में स्वयं को अर्पित करने की प्रार्थना देवी से की। परन्तु देवी ने स्त्री बलि स्वीकार करने से मना कर दिया। देवी के आदेशानुसार सदेई के भाई या पुत्रों की बलि ही उसे मान्य है। सदेई किसी भी कीमत पर झालीमाली देवी की मनोकामना के उपरान्त मिले अपने भाई को नहीं खोना चाहती थी। उसने अपने दोनों पुत्रों को भाई के बदले बलि स्वरूप देवी को भेंट कर दिया। भाई के प्रति अटूट स्नेह वाली सदेई पर देवी झालीमाली अपार प्रसन्न हुयी। देवी ने उसे घर के अन्दर जाने को कहा। सदेई ने घर के अन्दर जाकर देखा कि अभी-अभी देवी को अर्पित उसके दोनों पुत्र उमरा और सुमरा जीवित हैं और अपने मामा सदेऊ के साथ हंस-खेल रहे हैं। सटे बार-बार देवी झालीमाली को धन्यवाद देती हैं।


    ‌सदेई की यह कथा अमर हो गयी। तब से जागरी गढ़वाल में इस कथा को लोगों के बीच जाकर सुनाते हैं। सदेई जागर की अन्तिम पंक्तियां श्रोत्राओं के लिए आशीर्वाद के रूप में इस प्रकार हैं। 'धन्य होली वा वैण सदेई, धन्य होलू वो भाई सदेऊ, धन्य भाई-बैण की वा पीरीत, जु हमन गीत मा गाई, सदेई का घर जनो होए संगल, होयान तुमकू भी दिशा-धियाण्यों।' गढ़वाली के प्रसिद्व कवि पंडित तारादत्त गैरोला ने सदेई लोकप्रिय कथा पर सन् 1921 में 'सदेई' गढ़वाली काव्य की रचना कर उसको प्रकाशित किया। उत्तराखण्ड के इतिहासकार शिव प्रसाद डबराल ने सन् 1971 में तारादत्त गैरोला के सदेई काव्य संग्रह को पुन: प्रकाशित किया। सदेई- गढ़वाली समाज में सदेई की कथा घर-घर में सुनाई और गायी जाती है।

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