भिटौली का अर्थ होता है - भेंट करना अर्थात मुलाकात करना। भिटौली एक परम्परा है जिसमें विवाहित बेटी या बहन को उसके मायके से शुभकामनाओं, आर्शीवाद के रूप में भेंट दी जाती है। भेंट में मिठाई, फल, सै, वस्त्र, घर में बने पकवान आदि दी जाती है। भिटौली, चैत्र मास के दिनों में मनाई जाती है। चैत्र के महिने में हर विवाहिता बेटी को अपने मायके से भिटौली आने का इंतजार रहता है। पहाड़ हो या कि तराई भाबर या कोई भी शहर विवाहिता को भिटौली का बेसब्री से इंतजार रहता है। यह सिर्फ वस्तुए नहीं होती अपितु मायके से आया प्यार होता है। औरते भिटौली को पूरे गांव या शहर में अपने आस पड़ोस में भी बांटती है। शहर में अधिकतर आज के जीवनशैली में समय की कमी के कारण भिटौली मनीआर्डर या उपहार भेजकर मना लिया जाता है। किन्तु पहाड़ी गांवों में अभी भी बेटी या बहन के घर जाकर भिटौली दी जाती है।
भिटौली के पीछे कई लोक कथायें भी है। एक जनश्रुति के अनुसार किसी गांव में देबुली और नरिया नाम के बहन और भाई रहते थे। देबुली के लिये अपना भाई बहुत दुलारा था। नरिया भी अपनी दीदी से बहुत प्यार करता था। वे दोनों एक साथ ही रहते, खेलते, खाते-पीते थे। जैसे-जैसे दिन बीतते गये, देबुली और नरिया बड़े होते गये। एक दिन ऐसा भी आया देबुली की शादी घर वालों ने तय कर दी। कहानी के अनुसार देबुली का ब्याह उसके गांव से बहुत दूर किया गया। अब नरिया अपनी दीदी के वियोग में दुखी रहने लगा। ससुराल और मायका में काफी दूरी होने के कारण देबुली का मायका आना कम हो गया। नरिया देखता कि गांव में अन्य विवाहिता त्यौहारों में अपने घर आती। इस बात पर नरिया अपनी दीदी को ज्यादा याद करने लगा और दुखी रहने लगा।
नरिया को देखके उसकी ईजा को फिकर होने लगी। ईजा ने नरिया से कहा बहुत दिन हो गये तू अपनी दीदी से मिल आ। कल तू अपनी दीदी से मिल आना और खाली हाथ मत जाना मैं कुछ चीजें दे दूंगी तू देबुली को दे आना । उसे भी मायके की याद आती होगी। ईजा ने प्रसाद, पूरी, रायता, पुए, सिंगल, फल, साड़ी, बिंदी आदि एक बड़ी टोकरी में रखकर नरिया को दे दी। और कहा कि जा ये भेंट स्वरूप ले जा और अपनी दीदी को देना। नरिया खुशी-खुशी देबुली के ससुराल को चल दिया। उसे वहां पहुंचने में दो चार दिन लग गये। जब नरिया देबुली के घर पहुंचा तो देखा दीदी सोई हुई है। नरिया ने कुछ घंटे इंतजार किया लेकिन देबुली नहीं उठी। काम करके थक गई होगी इस विचार से नरिया ने भी उसे उठाना उचित नहीं समझा। दूसरे दिन शनिवार होने के कारण नरिया ने आज ही वापसी करने का सोचा क्योंकि पहाडों में शनिवार को थोडा काम काज या कहीं सफर में जाने के लिये उचित नहीं माना जाता। और नरिया भेंट वहां रखकर चल दिया। बाद में जब देबुली की आंख खुली तो उसने सामान देखा तो नरिया को देखने लगी। वो बहुत दूर तक गयी लेकिन तब तक नरिया जा चुका था। देबुली को पश्चाताप होने लगा कि मेरा भाई इतना लम्बा सफर तय करके आया, भूखा भी होगा और मैं सोती रही। वो रोने लगी और ‘‘भै भूखों-मैं सिती‘‘ अर्थात भाई भूखा रहा और मैं सोती रही की रट लगाने लगी। पश्चाताप में देबुली का मन इस प्रकार आघात हुआ कि भै भूखों-मैं सिती की रट लगाते लगाते देबुली के प्राण निकल गये। माना जाता है कि अगले जन्म में देबुली घुघुति नाम की पक्षी बनी जो चैत्र मास में "भै भूखों-मैं सिती" की आवाज लगाती है।
भिटौली उत्तराखण्ड की विशेष और एक भावनात्मक परम्परा है। विवाहिता महिला चाहे जिस उम्र की हो उसे भिटौली का बेसब्री से इंतजार रहता है। भिटौली को यहां के जनमानस ने लोक गीतों में भी पिरों कर रखा है भिटौली से सम्बन्धित एक काफी पुराना लोक गीत है -
ओहो, रितु एैगे हेरिफेरि रितु रणमणी, हेरि ऐंछ फेरि रितु पलटी ऐंछ।
ऊंचा डाना-कानान में कफुवा बासलो, गैला मैला पातलों में नेवलि बासलि।।
ओ, तु बासै कफुवा, म्यार मैति का देसा, इजु की नराई लागिया चेली, वासा।
छाजा बैठि धना आंसू वे ढबकाली, नालि नालि नेतर ढावि आंचल भिजाली।
इजू, दयोराणि जेठानी का भै आला भिटोई, मैं निरोली को इजू को आलो भिटोई।।
कहीं कहीं इसे ऐसे भी गाते हैं-
रितु ऐगे रणा मणि, रितु ऐ गे रैणा।
डाली में कफुवा बासो, खेत फुलि दैणा।
कावा जो कणाण आजि रत्तै ब्याण, खुट को तल मेरो आज जो खजाण।
इजु मेरि भाई भेजलि, भिटौली दीणा, रितु ऐगे रणा मणि .............
वीको बाटो मैं चैंरूलो, दिन भरी देलि में भैं रूलो।
बेली रात देखछ मैले स्वीणा, आंगन बटी कुनै उणौ छियो
कां हुनेली हो मेरी बैणा ? रितु ऐगे रणा मणि ..................