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    विशेश्वर दत सकलानी

    Vishweshwar Dutt Saklani

    विशेश्वर दत सकलानी (1924) पुजार गाँव, सकलाना पट्टी, टिहरी 1924 गढ़वाल। अनन्य प्रकृति प्रेमी, वृक्ष मित्र, पर्यावरण संरक्षक, स्वाधीनता संग्राम सेनानी, टिहरी जनक्रान्ति के अमर शहीद नागेन्द्र सकलानी के अनुज, वृक्ष मित्र सम्मान से सम्मानित। अपने जीवन काल में ही किवदंती बनते जा रहे, 'इन्दिरा प्रिय दर्शिनी वृक्ष मित्र पुरस्कार' से सम्मानित विशेश्वर सकलानी। पेड़ों के प्रति अगाध स्नेह एवं सम्मोहन उनके रोम-रोम को पुलकित किये हुए हैं। देहरादून के उत्तर में लगभग पचास किमी, दूर सौंग नदी के किनारे 'सकलाना पट्टी' में स्थित पुजार गांव के इस पचहत्तर वर्षीय ग्रामीण के त्याग एवं तपोबल की थाह किसी बड़े पुरस्कार से नहीं अपितु उनके पदचिन्हों का अनुसरण करके ही ली जा सकती है।


    श्री सकलानी की पैंतालीस वर्षों की लम्बी साधना से पुजार गांव के पहाड़ों की लगभग सौ हैक्टेयर बंजर भूमि दो लाख वृक्षों वाले लहलहाते वन में बदल चुकी है। मध्य हिमालय क्षेत्र की वन संपदा के अग्रदूत बांज, बुरांस व देवदार के इस वन क्षेत्र में रंग-बिरंगी तितलियों की इन्द्रधनुषी छटा एवं पक्षियों की चहक भरे मधुर संगीत को पुन: सुना जा सकता है। पावस ऋतु में झरनों एवं छोटी-छोटी जलाराओं के चंचल प्रवाह से यह मानव निर्मित वन पहले जैसा ही झूम उठता है। कभी इनका गांव, बांज बुराँश, देवदार समेत अनगिनत पहाड़ी पेड़-पौधों के सघन वन के आंचल में फला-फूला करता था। दोनों भाई नागेन्द्र दत्त और विशेश्वर दत्त इन जंगलों के झरनों, जलधाराओं एवं पेड़ पौधों की डालों पर आजाद पंछी की तरह बाल क्रीड़ायें किया करते थे। देखते ही देखते यहां के जंगल सम्पूर्ण मध्य हिमालय के जगलों के हमजोली होने के नाते विकास की निर्मम भेंट चढ़ गये। यह बेजा दोहन अंग्रेजों के बहिर्गमन के बाद भी जारी रहा। वनस्पति और जंगल की निर्मल छटा के स्थान पर नंगे पहाड़ देखकर नवयुवक विशेश्वर तड़प उठता। आजादी के बाद इस क्षेत्र के विकास को सुनिश्चित करने के नाम पर देहरादन से प्रजार गांव तक आई सड़क ने पूरे क्षेत्र के जैवीय संतुलन को नष्ट कर दिया था।


    अपने अग्रज नागेन्द्र दत्त की स्मृतियों व बिगड़ते पर्यावरण का मिश्रित दर्द विशेश्वर के हृदय में उस समय गहरा उठा जब उनकी पत्नी क्षय रोग के अन्तिम प्रहार से चल बसीं। अब तो बीजारोपण करना, पौधे लगाना, सिंचाई व देखभाल कर पेड़ खड़े करना उनका प्रतिक्षण का कार्य हो गया है। वृक्षमित्र द्वारा तैयार वन निजी जमीन के अलावा सरकारी जमीन पर भी खड़ा है। जिसके लिये सरकारी अधिकारियों ने उन्हें अदालत एवं कारागार तक घसीटा। अन्ततः वृक्षमित्र के इस तर्क ने उन्हें विजयीश्री दिलाई कि "वृक्ष काटना जुर्म होता है, वृक्ष पैदा करना नहीं," सरकारी पक्ष द्वारा प्रताड़ित किये गये वृक्षमित्र को उनके क्षेत्र के अनाड़ी व पर्यावरण चेतना से शून्य पहाड़ी लोगों ने भी अपार कष्ट पहुंचाए। शुरू-शुरू में उनके पौधे उखाड़ना, पेड़ों को जानबूझकर क्षति पहुंचाना, लोगों की दिनचर्या बन चुकी थी। उनके एक हाथ को पत्थर से बुरी तरह जख्मी करके उन्हें हतोत्साहित करने का घृणित कार्य भी ग्रामीणों द्वारा किया गया। दिल्ली सरकार ने विशेश्वर दत्त की महत्ता को स्वीकारा। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने 19 नवम्बर1986 के दिन इन्हें ‘इन्दिरा प्रिय दर्शिनी वृक्ष मित्र पुरस्कार' से सम्मानित किया।


    वयोवृद्ध वृक्षमित्र की स्वप्निल आंखों में एक सपनी तैरता रहता है। इस सपने में वे वह दिन देखते हैं, जब प्रत्येक व्यक्ति पेड़ों को अपने जीवन के तुल्य समझकर उनकी स्वत: स्फूर्त भावना से रक्षा करेगा। मानव मात्र को उनका संदेश है कि जन्म, विवाह व मृत्यु जैसे तीन महत्वपूर्ण अवसरों पर प्रत्येक व्यक्ति कम से कम तीन पेड़ लगाए। वृक्षमित्र की अन्तिम इच्छा है कि उनकी मृत्यु के बाद उनकी समाधि पर एक पेड़ उगाया जाये, ताकि उनकी आत्मा पूर्णत्व को प्राप्त हो सके।


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