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    शमशेर सिंह बिष्ट

    ‌बात सन् 1974 की है अल्मोड़ा राजकीय महाविघालय में प्रवेश लिये एक ही वर्ष हुआ था। सन् 1974 में पहाड़ में जंगलो के अंधाधुंध व अवैज्ञानिक कटान के खिलाफ जन आक्रोश बढ़ता जा रहा था, तब मैं बी.एस.सी. का छात्र था, विषेशकर स्टार पेपर मिल को कौड़ी के भाव पहाड़ो से जा रही लकड़ी के विरूद्व तीव्र आक्रोश पनप रहा था। इसी बीच ज्ञात हुआ कि अल्मोड़ा राजकीय महाविघालय छात्रसंघ के छात्रसंघ भवन के निर्माण हेतु तत्कालीन छात्रसंघ के कुछ पदाधिकारी स्टार पेपर मिल से रूपया 11000 चन्दा लेकर आये है। जिसका विरोध छात्र - छात्राओं एवं अन्य युवाओ द्वारा किया गया तथा चन्दे की रकम स्टार पेपर मिल को वापस लौटाने की माँग की गयी, परन्तु चन्दा नही लौटाये जाने के विरोध में दो युवाओं द्वारा महाविघालय अल्मोड़ा में एक टिनसैट के भीतर दिनांक 12.12.1974 से आमरण अनशन प्रारम्भ किया गया। महाविघालय का माहौल अत्यन्त उत्तेजनापूर्ण हो गया, अधिकतर छात्र-छात्राऐं (लगभग 80 फीसदी) छात्रसंघ भवन निर्माण हेतु स्टार पेपर मिल से लिया गया चन्दा वापिस किये जाने के पक्ष में थे तथा आपस में व स्थानीय स्तर पर चन्दा एकत्र कर छात्रसंघ हेतु छात्रसंघ भवन के निर्माण के पक्ष में थे। ग्रामीण परिवेश से स्वयं व परिवार की आजीविका चले इसी ध्येय से शिक्षा ग्रहण करने अल्मोड़ा आया था। मुझ जैसे कई नवयुवक-युवतियाँ सदैव की भाँति अल्मोड़ा महाविद्यालय में शिक्षा ग्रहण करने हेतु आये थे। आमरण अनशन में बैठे दो युवा भूतपूर्व अध्यक्ष छात्रसंघ राजकीय महाविद्यालय अल्मोड़ा एवं वन बचाओ संघर्ष समिति के सक्रिय सदस्य श्री शमशेर सिंह बिष्ट व बी.एड. के छात्र श्री बी. आर. भट्ट जो कालान्तर में चन्द्रशेखर भट्ट के नाम से जाने गये तथा उत्तराखण्ड के सभी जन आन्दोलनों मे महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहे। दोनो युवा निस्वार्थ भाव से उत्तराखण्ड के संसाधनों को कौढ़ियो के भाव लुटाये जाने के विरोध में आमरण अनशन पर थे। इसी समय कई अन्य छात्र साथियों के साथ श्री शमशेर बिष्ट जी से सम्पर्क हुआ तथा उनको जानने का मौका मिला उनके विचारो से प्रभावित होकर उनसे जुड़ने का मौका मिला। कालान्तर में विश्वविद्यालय हेतु आन्दोलन तथा अन्य कई जन संघर्षो में सक्रिय भूमिका में रहने पर बिष्ट जी को नजदीक से जानने व समझने का मौका मिला तब समझ मे आया कि स्वयं के लिए जीने तथा समाज के लिए कुछ कर पाने में कितना फर्क है। जीवन जीने की सोच ही बदल गयी। तथा जनसंघर्षो में सक्रियता बढ़ती गयी। कई आन्दोलनो एवं सामाजिक कार्यो में उनके सहयोगी के रूप में कार्य करने का अवसर मिला। मोटे तौर पर याद करें तो विश्वविद्यालय हेतु संघर्ष, वन बचाओ आन्दोलन (चिपको आन्दोलन), जागेश्वर से चोरी गयी पवन राजा की मूर्ति की बरामदी हेतु आन्दोलन, पन्तनगर गोली काण्ड के विरुद्ध संघर्ष, तवाघाट भू-स्खलन से बेघर हुऐ लोगो को अन्य़त्र बसाने हेतु आन्दोलन, मनान गरीब विधवा श्रीमती भागुली देवी को न्याय हेतु आन्दोलन, बड़े बाँधो के निर्माण के विरूद्ध संघर्ष, पातलीबगड़ में मारे गये गरीब मजदूरो के न्याय हेतु संघर्ष, अल्मोड़ा में पानी हेतु आन्दोलन, नशा नही रोजगार दो आन्दोलन, उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलन एवं उत्तराखण्ड व देश के विभिन्न भागो में सरकारी दमन के खिलाफ संघर्ष तथा गरीब आदिवासी इलाको में उनके अधिकारों हेतु किये गये संघर्षो के अतिरिक्त में पारिवारिक रूप से भी उनसे जुड़ा रहा। घर की आर्थिक स्थिति अच्छी नही होने के कारण, पढ़ाई लिखाई, जन आन्दोलनों में सक्रियता के साथ आर्थिक अभावों के कारण मुझे अपना खर्चा खुद निकालना होता था। साथियो के निर्णय के अनुसार मुझे चेतना प्रिटिंग प्रेस में काम करना था, चेतना प्रिटिंग प्रेस में काम करने से स्वयं के खर्चे चल जाते थे तथा खाने कि समस्या शंभु दाज्यु के घर खाने से हल हो गयी थी। ऐसे में शम्भु दाज्यु के साथ-साथ उनके परिवार से जुड़ने व समझने का मौका मिला तथा मैं परिवार का हिस्सा बन गया। जो आज तक यथावत है फर्क इतना है कि अब स्वयं के घर में रहता हूँ तथा खाना अपने ही घर में खाता हूँ। ईजा श्रीमती चन्द्रा बिष्ट स्नेहिल व ममतामयी माँ जो मुझसे पुत्रवध स्नेह रखती थी। कहती भी थी तू मेरा पाँचवा पुत्र है। शम्भु दाज्यु लोग स्वयं चार भाई थे परन्तु दुर्भाग्यवश आज चारो दिवंगत है।


    ‌घर का माहौल उनके द्वारा ऐसा ढाला गया था कि ईजा, उनके भाई, भाभियाँ, बहनें, भतिजे, भतिजियाँ भी अक्सर जन आन्दोलनो के समय सक्रिय हो जाती थी।


    ‌जहाँ तक परिवार का सवाल है उनके पिता स्व. गोविन्द सिंह बिष्ट सरकारी मुलाजिम रहे। हम लोग उनको नही देख पाये परन्तु ईजा श्रीमती चन्द्रा बिष्ट का मातृत्व भरा स्नेह मुझे व्यक्तिगत तौर पर मिला जिस बाबत मैं पहले लिख चुका हूँ तथा आखिरी समय तक उनका स्नेह मुझ पर बना रहा। अन्य सभी संगठन के साथियों के प्रति भी उनका पुत्रवध स्नेह रहा करता था यह जिक्र यहां इसलिये भी हो रहा है कि जब तक वह जीवित रही उन्होने कभी भी शम्भु दाज्यु को सामाजिक कार्यों या यूँ कहें कि जन आन्दोलनो से विमुख रहने के लिये नही कहा, प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से वे जन आन्दोलनो के सहयोगी के रूप में ही काम करती रही, संगठन के साथियो के रहने व खाने का पूरा ख्याल रखती थी। उनका स्वभाव बहुत ही विनम्र, स्नेहिल व निष्छल था, अपने जीवन में अनेको कष्ट सहे परन्तु कभी भी उन्होने शम्भु दाज्यु को जन संघर्षों/सामाजिक कार्यो को त्यागकर अपने व अपने परिवार के लिये ही काम करने को नही कहा जब कि उस समय और आज के संदर्भ में कोई भी माँ अपने संतानो को संघर्ष की राह पर चलने से रोकती है। तथा परिवार तक ही सीमित रखने का प्रयास करती है। एक हिसाब से देखा जाय तो पूरा परिवार ही शम्भू दाज्यु का सहयोगी रहा है। तथा पूरा परिवार ही संघर्षो से जुड़ा रहता था। सबसे बड़े भाई हरी सिंह बिष्ट भारतीय सेना से सेवानिवृत थे तथा सारा परिवार एक साथ रहता था। उनको हम लोग बड़े दाज्यु कहते थे। ब्रिटिश काल में शिक्षित होेने के कारण उनको अग्रेजी का अच्छा ज्ञान था तथा लेख भी हिन्दी/अंगे्रजी भाषाओ का बहुत सुन्दर एवं नियोजित था। समाचार पत्रो में समाचार भेजने व कई प्रकार के प्रार्थना पत्रो को लिखने में उनका सहयोग लिया जाता था। इसके अतिरिक्त संयुक्त प्रयासो से स्थापित चेतना प्रिटिंग प्रेस जहां में काम करता था तथा जिसका उपयोग संगठन के कार्यो के लिये भी किया जाता था, के कार्यो में सहयोग किया करते थे। उनकी पत्नी श्रीमती हरिप्रिया बिष्ट घर की सबसी बड़ी बहू होने का फर्ज निभाने के साथ-साथ संगठन के साथियो एवं विभिन्न संगठनात्मक आयोजनो हेतु खाना बनाने व खिलाने की जिम्मेदारी बखूबी निभाती रही है अन्य सभी साथी उन्हे बड़ी भाभी कहा करते थे। और अभी भी कहते है अपने मायके से रौतेला होने के कारण वे मुझे अपना छोटा भाई मानती हैं। बड़े दाज्यू के बाद सुश्री उमा बिष्ट (बड़ी बहन) थीं, जो आजीवन अविवाहित रहीं और गोरखा मिलिट्री इण्टर कालेज, देहरादून में अध्यापिका थीं। उनका यहाँ पर जिक्र करना इसलिए भी आवश्यक है कि गढ़ी कैण्ट, देहरादून के गोरखाली सुधार सभा में जहाँ वह सुश्री रविकला थापा (रवि दीदी) के साथ रहती थीं, उमा दीदी व रवी दीदी का वह घर हम सभी साथियो का देहरादून में आश्रय स्थल था सभी साथियो के देहरादून प्रवास पर खाने-रहने की व्यवस्था घर जैसी ही रहती थी।


    ‌दूसरे बड़े भाई श्री मोहन सिंह बिष्ट एस.एस.बी. में सर्विस करते थे। वे लम्बे समय तक ग्वालदम में तैनात रहे। हम उनको मोहन दा बुलाते थे। उनकी पत्नी अम्बा बिष्ट को सभी भाभी कहते है। ग्वालदम का वह सरकारी आवास गढ़वाल यात्रा एवं अन्य यात्राओं में हम लोगों के लिए रहने खाने की व्यवस्था के साथ-साथ घर जैसा वातावरण उपलब्ध कराता था।


    ‌तीसरे बड़े भाई जो भाई-बहिनों में चैथे हुए श्री नन्दन सिंह बिष्ट थे। वे रेलवे से सेवानिवृत्त हुए। हमारे लिए वे नन्दन दाज्यू हुआ करते थे। परन्तु थोड़ा दबंग प्रकृति का होने के कारण उनके हमउम्र व उनसे बड़ी उम्र के लोग उन्हें ‘नन्दन बॉस’ कहा करते थे। उनकी पत्नी श्रीमती शकुन्तला बिष्ट हुयी जो हम लोगों की छोटी भाभी र्हुइं। अपनी जेठानी हरिप्रिया बिष्ट के साथ वे भी विशेष अवसरों पर भोजन आदि की व्यवस्था में सहयोग करती रहीं। नन्दन दाज्यू थोड़ा दंबग प्रकृति के थे कई अवसरों पर संगठन के कार्यो में उनका सहयोग मिलता रहा विशेषकर आपातकाल के समाप्त होते ही अल्मोड़ा महाविद्यालय के छात्रसंघ चुनावों में पी.सी. तिवारी के जीतने तथा ‘थैंक्यू मिस्टर ग्लाड’ नाटक के मंचन के समय कुछ अराजक तत्वों के द्वारा अराजकता फैलाने की कोशिश करने पर उनका साथ में खड़ा रहना प्रमुख घटनाऐं हैं। अन्य समय भी आन्दोलनो में वे सक्रिय हो जाते थे। आगे एक वाकिए में जिस झण्डे के डण्डे का उल्लेख हुआ है वह इन्ही का बड़ा लड़का हुआ।


    ‌चैथे भाई, भाई बहिनो में पांचवे शम्भू दाज्यू हुए जिनके बारे में काफी कुछ लिखा जा चुका है कुछ लिखा जा रहा है और बहुत कुछ लिखना शेष है। पत्नी रेवती बिष्ट केन्द्रीय विद्यालय में अध्यापिका रहीं और जो अब सेवानिवृत्त हो चुकी हैं। शम्भू दाज्यू के सभी जन संघर्षो एवं जीवन के संघर्ष में बतौर जीवन संगिनी एवं साथी मजबूती के साथ खड़ी रहीं। और आज भी बड़े बेटे जयमित्र, बड़ी बहू इन्दु बिष्ट, पौत्र अविरल, छोटे पुत्र अजयमित्र बिष्ट, छोटी बहू अदिति बिष्ट व नये-नये जन्म लिये अजयमित्र के सुपत्र के साथ सम्पूर्ण परिवार के संरक्षक व माँ होने का दायित्व भली भाँति निभा रही हैं, डॉ. शमशेर सिंह बिष्ट जैसे सहनशील, गम्भीर, मानवीय गुणो से परिपूर्ण महान व्यक्तिव के बिछुड़ने के असीम दुख के साथ।


    ‌सबसे छोटी बहन, भाई-बहिनों में छठी, बहनों में दूसरी माधुरी बिष्ट जो अब शादी-शुदा है तथा अब श्रीमती माधुरी मेहता हैं। अध्यापिका होने के पूर्व पूरे परिवार के साथ जन संघर्षो में एक सहयोगी के रूप में सक्रिय रही।


    ‌इस सब से एक बात जो उजागर होती है वह यह कि जब साथियो के साथ पूरे परिवार का सहयोग रहे, तभी व्यक्ति अन्तिम समय तक बहती धारा के विरुद्ध संघर्षरत रहने का हौसला/जज्बा रख सकता है।


    ‌एक दो घटनाऐं (वाकिऐं) याद आ रहे हैं। जिनका उल्लेख कर रहा हूँ। कटारमल में पर्वतीय युवा मोर्चा द्वारा वृक्षारोपण किया गया था। 21 दिन चले वृक्षारोपण अभियान का समापन समारोह होना था। लगभग 100 से अधिक लोगों के लिए खाना कोसी (कटारमल) जाना था। बड़ी डलियों में पूड़ियाँ तथा बाल्टियों में सब्जियाँ आदि शम्भू दाज्यू के घर से ही परिवार वालों द्वारा ही भोजन तैयार कर भेजा गया। तथा खाना बनाने वाले अन्य कोई नहीं, ईजा व घर की बहू-बेटियाँ ही थीं।


    ‌जहाँ तक उनके घर के बच्चों का सवाल है, मुझे आज भी याद है एक भतीजा छोटा बच्चा प्यारा सा नाम पप्पू, बाद में भारतीय सेना में कुछ ही समय रह पाया। दुर्भाग्यवश अल्पआयु में ही दिवंगत।


    ‌‘थैक्यू मिस्टर ग्लाड’ नाटक के मंचन में झंडे का डंडा छोटा पड़नें पर झण्डे की ऊचाँई बढ़ाने के लिये झण्डा पकड़कर खड़ा हो जाता था जिसे बाद में सभी लोग झण्डे का डण्डा कहा करते थे। यह नाम उसे नाटक के निदेशक गिर्दा (गिरीश तिवाड़ी) ने दिया था। दूसरा भतीजा दीपू, जो शम्भू दाज्यू के मृत्यु के छठे दिन चल बसा, का लगभग 8 वर्ष की उम्र में अपनी बुआ माधुरी मेहता का हाथ पकड़ कर ‘नशा नहीं रोजगार दो आन्दोलन’ में जूलूस के आगे-आगे चलता हुआ। फोटोग्राफ मुझे तब मिला, जब मैं अजयमित्र के साथ शम्भू दाज्यू द्वारा सहेजे हुए पुराने व नये कागज पत्रो व फोटोग्राफो को देख रहा था। ये तो कुछ मिसालें थी जो लिखते-लिखते याद आ गयी ऐसी सैंकड़ो यादे है जो पिछले 44 वर्षीं से जुड़ी है। उनके यहाँ तो जन संघर्षो एवं संगठन के बैठको के समय साथियों का जुड़ना आम बात होती थी। ग्रामोत्थान युवा संगठन, पर्वतीय युवा मोर्चा, उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी, उत्तराखंड जन संघर्ष वाहिनी से उत्तराखंड लोक वाहिनी तक का लम्बा सफर उस समय तो सामान्य सा लगा , परन्तु आज उनके (शम्भू दाज्यू) जाने के बाद आज तक की लगभग रोज कोई न कोई घटना याद आती है, तो आँखे भर आती है। मेरा तो उनसे आन्दोलनकारी के साथ-साथ संरक्षक, मार्गदर्शक, सलाहकार तथा एक साथी का रिश्ता रहा है। तथा मैंने उनको बहुत करीब से जाना है कमजोर के पक्ष में एवं अन्याय के विरुद्ध खड़ा होना उनका स्वभाव था। जिस कारण व्यक्तिगत तौर पर भी कमजोर के पक्ष में खड़ा होने से भी परहेज नहीं करते थे। जीवन भर उत्तराखंड के पिछडे़पन के विरूद्व लड़ते रहे। और शोषण विहीन समाज की स्थापना उनका स्वप्न था। वे स्वयं को मौजूदा दलगत राजीनीति के योग्य नहीं पाते थे। ये विचार वे अक्सर व्यक्त करते थे। मुझे आज भी भली भाँति याद है कि चेतना प्रिंटिग प्रेस के उद्घाटन हेतु तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री हेमवतीनन्दन बहुगुणा सक्रिट हाउस अल्मोड़ा में थे। तो शमशेर सिंह बिष्ट जी, पी. सी. तिवारी, प्रदीप टम्टा तथा मैं सुबह-सुबह उनसे मिलने सर्किट हाऊस गये। बहुगुणा जी धूप में बैठ कर शेविंग कर रहे थे। ऐसे में ही उन्होंने हम लोगों को अपने पास बुला कर बातचीत की। तथा बिष्ट जी को सम्बोधित करते हुए बोले, ‘‘शमशेर (तब हम सभी युवा थे) अगर तुम उत्तराखंड व उत्तराखंड के लोगों के लिए कुछ करना चाहते हो तो राजनीति में आ जाओ। यहाँ उत्तराखंड में युवा लीडरशिप में एक वैक्यूम है। पार्टी में रह कर तुम यह काम और अच्छी तरह कर सकते हो।’’ तब बिष्ट जी ने सभी की ओर से सादर, दलगत राजनीति से दूर रहकर काम करने की इछा जताई थी। यह घटना उनके दृढ़ संकल्प को दर्शाती है। यह घटनाक्रम इसलिए भी याद आ रहा है कि उनके जीवन काल में तथा उनके दिवंगत होने के बाद भी कई लोग कहते हैं कि वे राष्ट्रीय राजनैतिक दलों में होते तो बहुत बड़े नेता होते। लोगो का कहना भी ठीक ही हुआ आज के समय विधायक, सांसद, मंत्री, मुख्यमंत्री ही समाज की नजरों में बहुत बड़े है। जीवनभर जनता के लिए संघर्ष करने वालों को सम्मान तो बहुत मिलता है, परन्तु बड़ा लीडर नहीं माना जाता। परन्तु शम्भू दाज्यू के मन में कभी यह भाव आया भी होगा तो उन्होंने इस भाव को झटका ही है। इधर बीमारी में अक्सर उनसे मिलने जाता था। उनके देहावसान के चन्द महीनों पहले मैंने एक दिन पूछा भी था, ‘‘दाज्यू, आपको आज कभी ऐसा लगता है कि आपने सुविधा की राजनीति की होती तो ज्यादा सुखी होते ?’’ उन्होंने तुरन्त मेरी बात पूरी होने से पहले पोते अविरल की ओर इशारा करते हुए कहा था (जो वहीं बगल में खेल रहा था) मैने अपना जीवन अपने आदर्शों के साथ जिया है तथा कहा मैं बहुत खुश व सन्तुष्ट हूँ। यह कम खुशी की बात है कि मैं अपने पोते के साथ खेल रहा हूँ। ऐसी बहुत सी बातें है जो मन में आ रही है परन्तु लेखक या पत्रकार नही हूँ तथ्यों को लय व श्रृंखलाबद्ध कर सकूँ। आज वह जिन्दा होते तो छोटे पु़त्र अजयमित्र सिंह बिष्ट के पिता बनने (अपने दूसरे पौत्र) कि असीम खुशी से रूबरू होते जिसका जन्म अभी-अभी इन संस्मरणो को लिपिबद्व करने के दौरान दिनांक 23.11.2018 को हुआ है।


    ‌फिर वही सन् 70 व 80 के दशक याद आ रहे है मुझ जैसे सैकड़ों युवाओं की सोचने की दिशा ही उनके स्वभाव, व्यवहार व उनके दर्शन ने बदल डाली थी। उनके बताये मार्ग पर चलने की सोच के साथ आज उनको श्रृ़द्धा के साथ स्मरण करते हुए श्रद्धांजलि।


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