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    रम्माण - यूनेस्को सांस्कृतिक विरासत

    रम्माण (रम्वांण) गढ़वाल की पैनखण्डा पट्टी के सलूड़, डुंग्रा तथा सेलंग गांवों में हर वर्ष बैशाख (अप्रैल) के महीने आयोजित होता है। इनमें सलूड़ गांव का रम्वांण ज्यादा लोकप्रिय है।


    उत्तराखण्ड में रामायण-महाभारत की सैकड़ों विधाएं मौजूद हैं जिनमें से कई विधाएं विलुप्त होने की कगार पर है मगर कई लोगों के अथक प्रयासों एवं दृढ़ निश्चय ने इनके संरक्षण और विकास के लिए अभूतपूर्व काम किया है और उत्तराखण्ड को पूरे विश्व पटल पर अपनी अलग पहचान दिलाई है, चाहे वह विश्व की सबसे लंबी पैदल यात्रा नंदा राजजात यात्रा हो या फिर चंपावत के देवीधुरा में प्रसिद्ध बग्वाल युद्ध में पत्थरों का भीषण संग्राम या गुप्तकाशी के जाख देवता के पश्वा का जलते मेगारो में घंटों तक हैरतअंगेज कर देना वाला नृत्य। पीढ़ी दर पीढ़ी यही चीजें श्रद्धालुओं को यहां की लोक संस्कूति से रू-ब-रू कराती हैं। साथ ही वर्षों पुरानी सांस्कृतिक विरासत को जीवित रखने का प्रयास भी करते हैं। ऐसी ही एक लोक संस्कृतिक है रम्माण।


    माना जाता है कि रम्माण का इतिहास 500 वर्षों से भी पुराना है। जब यहां हिन्दू धर्म का प्रभाव समाप्ति की ओर था तो आदि गुरु शंकराचार्य ने सनातन धर्म और सांस्कूतिक एकता के लिए पूरे देश में चार मठों की स्थापना की। ज्योतिर्मठ (जोशीमठ )के आस-पास के इलाकों में हिन्दू धर्म के प्रति लोगों को पुनःजागृत करने के लिए अपने शिष्यों को हिन्दू देवी-देवताओं के मुखौटे पहनाकर रामायण महाभारत के कुछ अंशों को मुखौटा नृत्य के माध्यम से गांवों में प्रदर्शित किया गया, ताकि लोग हिंदू धर्म को पुनः अपना सकें। शंकराचार्य के शिष्यों ने कई सालों तक मुखौटे पहनकर इन गांवों में नृत्यों का आयोजन किया। ये मुखौटा नृत्य बाद में यहां के समाज का अभिन्न अंग बनकर रह गया और आज यह विश्व धरोहर बन चुका है।


    वस्तुतः यह एक पखवाड़े तक चलने वाला आयोजन है। इसमें सामुहिक पूजा, देवयात्रा, लोकनाट्य, नृत्य, प्रहसन, स्वांग, मेला आदि विविध रंगी आयोजन होते हैं। परम्परागत पूजा-अनुष्ठान भी होते हैं तो मनोरंजक कार्यक्रम भी। यह भूम्याल देवता के वार्षिक पूजा का अवसर भी होता है, परिवारों और ग्राम क्षेत्र के देवताओं से भेंट का अवसर भी होता है। अंतिम दिन लोक शैली में रामकथा की प्रस्तुति की जाती है। इसे देखने के लिए क्षेत्र में दूर-दूर से लोग आते हैं और मेला जुड़ता है। इसलिए यह सम्पूर्ण आयोजन रम्वांण के नाम से जाना जाता है।


    इस विविधितापूर्ण आयोजन की शुरूवात विखोत (बैसाखी) से मानी जा सकती है। भूम्याल की पूजा की जिम्मेदारी वर्ष भर के लिए व्यक्तिगत रूप से किसी परिवार में होती है। विखोत (बैशाख की संक्रन्ति) के दिन भूम्याल (भूति देवता) को उत्सवपूर्वक उस परिवार से भूम्याल के मंदिर में लाया जाता है। बैसाखी से तीन चार दिन पहले से वो व्यक्ति परम्परागत विधि-विधान से देवता की पूजा करता है। विखोत के दिन से रम्माण के आयोजन तक भुम्याल देवता की पंचायती पूजा होती है। रम्माण के सफल आयोजन तथा गांव की ऋद्धि-सिद्धि की कामना की जाती है। विखोत दूसरे दिन अर्थात 2 गते को मनाई जाती है। इस दिन पंचों और ग्राम पुरोहितों द्वारा रम्माण का दिन तय किया जाता है। यह दिन सामान्य तौर पर संक्राति से नौ, दस, ग्यारह, बारह दिन बाद भी हो सकता है। अपरिहार्य परिस्थितियों में और आगे भी जा सकता है।


    तीसरे दिन (3 गते बैसाख) से दिन में भूम्याल देवता गांव भ्रमण पर जाता है और रात के कार्यक्रम भी शुरू हो जाते हैं। देवता का ग्रामभ्रमण कार्यक्रम पहले से तय हो जाता है। भ्रमण के दौरान देवता अनिवार्य रूप से प्रत्येक परिवार के खौले (घर) में जाता है तथा पूजा ग्रहण करता है। इसके साथ ग्रामक्षेत्र के विभिन्न देवी देवताओं से भी भेंट करता है। भूम्याल का यह ग्रामक्षेत्र भ्रमण पांच-छै दिन में पूरा होता है। तीसरे दिन से शुरू होने वाला रात्रि के कार्यक्रमों में पहली रात्रि को राधिकाओं (कृष्ण की रानियां) और कृष्ण का नृत्य होता है। राधिकाएं प्रत्येक रात्रि को तीन, पांच, सात के क्रम में बढ़ती जाती है। 6 गते के आसपास से पत्तर (विभिन्न चरित्र और पात्रों के लकड़ी के मुखौटे) बाहर आने प्रारम्भ हो जाते हैं और रम्माण के दिन तक आते रहते हैं। पत्तर केमू (शहतूत) की लकड़ी पर कलात्मक तरीके से उत्कीर्ण किये गये होते हैं। ये पत्तर पौराणिक, ऐतिहासिक, तथा काल्पनिक चरित्रों के अलग-अलग होते हैं। ये पत्तर दो प्रकार के होते हैं। ‘द्यो पत्तर’ और ‘ख्यलारी पत्तर’। इन्हें पहन कर नृत्य किया जाता है।


    पहले सूर्य ईश्वर (सूर्य भगवान) का पत्तर आता है जो कि विशेष रूप से सजाया जाता है। फिर गणेश, कालिंका, मोर-मोर्यांण (महर और उसकी पत्नी), गान्ना-गुन्नी, राजा कन्न (कानड़ा नरेश) बण्यां-नण्यांण (व्यापारी और उसकी पत्नी), चोर, माल (मल्ल) और अंत में नरसिंह पत्तर आता है। माल और नरसिंह पत्तर रम्माण के दिन आते हैं। इस पत्तरों का क्रम अलग-अलग गांवों में अलग-अलग भी होता है। रम्माण की पूर्व रात्रि को ‘सिर्तू’ (सम्पूर्ण रात्रि के कार्यक्रम) होता है। सभी 18 पत्तर आते हैं।


    अंतिम दिन होता है रम्वांण का आयोजन। यह दिन में होता है। रम्माण को अन्य गांव तथा क्षेत्र के लोग भी देखने आते हैं। आयोजन स्थल पंचायती चौक होता है। रम्माण में राम, लक्ष्मण, सीता तथा हनुमान के नर्तकी द्वारा नृत्य शैली में रामकथा की प्रस्तुति होती है। इसमें रामकथा के कुछ चुनिंदा प्रसंगों पर नृत्य किया जाता है। ये प्रसंग हैं - राम जन्म, वन गमन, स्वर्णमृग वध, सीता-हरण, लंका दहन आदि। इन सब घटनाओं का प्रस्तुतिकरण ढोल के तालों के साथ किया जात है। प्रत्येक ताल को नाचने के बाद रामायण के पात्र विश्राम करते हैं तथा बीच-बीच में अन्य पौराणिक तथा ऐतिहासिक पत्तर आ आकर दर्शकों का मनोरंजन करते रहते हैं।


    एतिहासिक पत्तरों में बण्यां-बण्यांण तथा माल विशेष आकर्षण के केन्द्र होते हैं। बण्यां-बण्यांण के बारे में कहा जाता है कि ये तिब्बत के व्यापारी थे जो कि गांवों में ऊन बेचने आते थे। एक बार उनके पीछे चोर लगे और उनका पैसा माल लूट कर ले गये। इस किस्से को नृत्य के द्वारा प्रस्तुत किया जाता है। माल पत्तर गोरख्याणी के समय (सन् 1804-14) स्थानीय योद्धाओं के द्वारा गोरखों से युद्ध की घटना प्रस्तुत करते हैं। इनमें दो माल (मल्ल) काले होते हैं जो कि स्थानीय हैं तथा दो सफेद गोरखों के प्रतिनिधि हैं। इस नृत्य के समय प्रयुक्त की जाने वाली एक तलवार और ढाल गोरखों से छीनी गयी बतायी जाती है। दोनों पक्षों में एक-एक माल के पास बारूद भरी बंदूक भी होती है। इसके अलावा खुंखरी, ढाल, तलवार को हाथ में लिये माल नाचते हुए चुनौती, वीरता, बल प्रदर्शन की अभिव्यक्ति करते हैं। अंत में बंदूकों की हवाई फायर के साथ दुःशमन पर विजय कस ऐलान करते हुए यह नृत्य समाप्त होता है।


    इसके बाद ‘कुरू ज्चोगी’ आता है। यह फटे तथा गंदे कपड़े पहने होता है। इसके सारे कपड़ों पर ‘कुरू’ (एक प्रकार का कांटेदार कपड़ों पर चिपकने वाला फूल) लगा होता है। ‘कुरू ज्वोगी’ एकाएक रम्वांण देखने में डूबी भीड़ के बीच घुस जाता है। उसके घुसते ही लोग ‘कुरू’ चिपकने के भय से इधर-उधर भागते हैं। कुरू ज्वोगी ‘कुरू’ लगे एक कपड़े से सबको खदेड़ता है। जिनके कपड़ों पर कुरू चिपक जाता है वे उसे निकाल-निकाल दूसरों पर फैंकते हैं। हंसी-ठिठोली और व मारने-बचने में तल्लीन लोग तब ही सामान्य स्थिति में आते हैं जब ‘नरसिंह-प्रहलादपत्तर’ आकर नाचना शुरू कर देते हैं। ये पत्तर इनसे सम्बन्धित पौराणिक कथा को अभिव्यक्त करते हैं।


    अब समय आता है समापन का। भूम्याल (भू-देवता) एक लम्बे लट्ठे के सिरोभाग पर चांदी की मूर्ति के रूप में स्थापित रहता है। चांदी की मूर्ति के पीछे चंवर गाय के बाल लगे होते हैं तथा लम्बे लट्ठे पर ऊपर से नीचे तक रंग-बिरंगे रेशमी साफे बंधे होते हैं। भुम्याल देवता को धारी (धारण करने वाला) अपने कंधे के सहारे खड़ा कर कुछ देर तक नाचता है। फिर भुम्याल का पश्वा, नंदा का पश्वा तथा बीर का पश्वा भुम्याल के निशान को धरती के समानान्तर अपनी बाहों में लिटा कर चारों दिशाओं में ‘ख्यलाते’ हैं। तीनों देवता औतरते (आदमी पर अवतार लेना) हैं और अपने-अपने निसाण लेते (अपने ऊपर सचमुच देवता अवतरित हुआ है यह सबित करने के लिये पश्वा लोगों द्वारा अपने पेट पर कटार भौंकना या पीठ पर तलवार मारना) हैं। निसाण लेते समय समूचे जन-समूह में चुप्पी छा जाती हैं। इसके बाद अगर देवता प्रसन्न हुए तो प्रसन्नता व्यक्त करते हैं तथा सारे गांव तथा दर्शकों को आशीष देते हैं। इस समय लोग अवतरित देवता से ‘पूछ’ भी करवाते हैं। देवता की प्रसन्नता और अप्रसन्नता का ये क्षण इन पंचों के लिए आयोजन की सफलता और असफलता को जानने का क्षण होता है। यदि देवता प्रसन्नता व्यक्त करते हैं तो सारे ग्रामवासी इस कार्यक्रम से थके हारे अलौकिक आनंद महसूस करते हैं। यही आनन्द इस समूचे आयोजन का महा प्रसाद है। अतं में समस्त ग्रामवासी भूमियाल को उस परिवार तक पहुंचाने जाते हैं जिसकी अर्जी पंचायत ने मंजूर की होती है। उस आदमी के घर पर भुम्याल देवता एक साल तक रहता है तथा सालभर पूजने की जिम्मेदारी उसी परिवार की होती है। उस घर के आंगन में प्रसाद आदि बंटने के बाद इस समूचे आयोजन का समापन हो जाता है।


    रम्माण की इन प्रस्तुतियों में जागरिया और भल्ला की अहम् भूमिका होती है। ये लोक गायक नाचने वाले पात्रों से सम्बधित कथा और प्रसंगों को जागर शैली में गाते हैं। इसमें रामकथा को भी जागर शैली में प्रस्तुत किया जाता है।


    रम्माण की इन आयोजन में ढोल, दमाव, झांझर तथा मंजीरे का प्रयोग किया जाता है। वस्त्र-परिधानों में घाघरा, चुड़ीदार पैजामा, रेशमी साफे, कमर बंद आदि प्रयुक्त होते हैं। काल्पनिक पात्र तथा विदूषक अपनी कल्पना के अनुसार हास्य उत्पन्न करने के लिए मेंकअप करते हैं। छुट-पुट रूप से आधुनिक सौन्दर्य प्रसाधनों का भी प्रयोग किया जाता है। मेकअप तथा वस्त्र-परिधानों में ठेठ स्थानीयता होती है। आधुनिकता और बनावटीपन कम। सादगी तथा सरलता इन प्रस्तुतियों की खूबसूरती है।


    पखवाड़े भर चलने वाले इस आयोजन को आयोजित करने में ध्याणियों, रिश्तेदारों और मेहमानों के भोजन इत्यादि के अलावा ग्रामवासियों का व्यक्तिगत रूप से कोई अन्य खर्चा नहीं होता है। इस आयोजन में ध्याणियों को विशेष रूप में आंमत्रित किया जात है। पंचायती खर्चे के रूप में जो थोड़ा-बहुत जरूरत होती है उसे चढ़ावे-भेंट के रूप में धनराशि देने का रिवाज नहीं है। इसके बजाय स्थानीय खाद्य-च्यूड़े, चींणा-कोंणी झंगोरे के बुखुंणे, स्थानीय फल आदि चढ़ाने का ज्यादा प्रचलन है।


    इस आयोजन की सम्पूर्ण व्यवस्था परम्परागत रूप से संचालित होती है। गाण्या और बारी ये सारी व्यवस्थाएं देखते हैं। गाण्या और बारी इस प्रकार के धार्मिक और परम्परागत आयोजनों के सम्पादन के लिए चयनित मुखिया होते हैं तथा प्रतिवर्ष बारी-बारी से परिवारों के ऊपर ये जिम्मेदारी सौंपी जाती है।


    2007 तक रम्माण सिर्फ पैनखंडा तक ही सीमित था लेकिन गांव के ही डॉ कुशल सिंह भंडारी की मेहनत का नतीजा था कि आज रम्माण को यह मुकाम हासिल है। कुशल भंडारी ने रम्माण को लिपिबद्ध कर इसका अंग्रेजी में अनुवाद किया। उसके बाद इसे गढ़वाल विवि लोक कला निष्पादन केंद्र की सहायता से वर्ष 2007 में दिल्ली स्थित इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र तक पहुंचाया। इस संस्थान को रम्माण की विशेषता इतनी पसंद आयी कि कला केंद्र की पूरी टीम सलूड-डूंग्रा पहुंची और वे लोग इस आयोजन से इतने अभिभूत हुए कि 40 लोगों की एक टीम को दिल्ली बुलाया गया। इस टीम ने दिल्ली में भी अपनी शानदार प्रस्तुतियां दीं। बाद में इसे भारत सरकार ने यूनेस्को भेज दिया। दो अक्टूबर 2009 को यूनेस्को ने पैनखंडा में रम्माण को विश्व धरोहर घोषित किया।
    2013 मे आईसीएस के दो सदस्यीय दल में शामिल जापानी मूल के होसिनो हिरोसी तथा यूमिको ने ग्रामवासियों को प्रमाणपत्र सौंपे तो गांव वालों की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। इसके अलावा केन्द्रीय गढ़वाल विश्वद्यिालय के प्रोफेसर डीआर पुरोहित निदेशक लोक कला निष्पादन केन्द्र का भी रम्माण को विश्व धरोहर बनाने में अहम योगदान रहा।


    रम्माण संस्कूति के लोकगायक धूम सिंह बचन सिंह भंडारी एवं ढोल वादक पूरण दास गरीब दास पुष्करलाल हुकमदास इस अनमोल धरोहर को अगली पीढ़ी तक पहुंचाने का कार्य कर रहे हैं। हर वर्ष आयोजित होने वाला रम्माण का शुभ मुहूर्त 14 अप्रैल को बैसाखी पर निकाला जाता है। रम्माण मेला कभी 11 दिन तो कभी 13 दिन तक भी मनाया जाता है।


    संदर्भ - मेरो पहाड़ फोरम





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