वर्ष 2005 के साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित उपन्यासकार, पत्रकार व पटकथाकार मनोहर श्याम जोशी हिन्दी के उन बिरले लेखकों में थे, जिनकी साहित्य की दुनिया के बाहर भी एक विशिष्ट पहचान है। अपने लेखन और पत्र-पत्रिकाओं में रमे रहने वाले लेखकों से अलग मनोहर श्याम जोशी हिन्दी साहित्य के साथ ही टेलीविजन और सिने जगत में समान रूप से याद किये जाते हैं। प्रचलित धारणा के अनुसार हिन्दी लेखक का दायरा गिनी-चुनी साहित्यिक पत्रिकाओं तक सीमित रहा है। इन पत्र-पत्रिकाओं से आम पाठक का सीधा कोई सरोकार नहीं रहा है। यह पत्रिकाएं भी साहित्य के लिए कम और साहित्यकारों के बीच की खींचतान के लिए अधिक जानी जाती हैं। मनोहर श्याम जोशी ने एक तरह से इस धारणा को झुठलाया और साहित्य को लोकप्रिय बनाने का उन्हें पूर श्रेय जाता है।
9 अगस्त, 1933 को अजमेर में जन्मे कुमाउँनी मूल के मनोहर श्याम जोशी के पिता प्रेम बल्लभ जोशी प्रख्यात शिक्षाविद व संगीताचार्य थे। शिक्षाविद के तौर पर उन्हें अंग्रेजों से रायसाहबी भी मिली थी। मनोहर श्याम जोशी की प्रारम्भिक शिक्षा-दीक्षा अजमेर में हुई। लखनऊ विश्वविद्यालय से विज्ञान में स्नातक किया। विज्ञान में रूचि के कारण वह 'कल के वैज्ञानिक' उपाधि से सम्मानित भी हुए लेकिन जीवन में जिन उतार-चढ़ावों का उन्होंने सामना किया, वह एक जगह टिक नहीं पाए। नैनीताल के पास मुक्तेश्वर में स्कूल में अध्यापन किया। बाद में उत्तर प्रदेश सरकार के एक विभाग में क्लर्की भी की लेकिन मन नहीं रमा।
1953 में अमृत लाल नागर की सरपरस्ती में वह दिल्ली आ गए। काफी दिनों तक अखबारों के लिए फ्रीलांसिंग करते रहे। बाद में आकाशवाणी के हिन्दी अनुभाग में बतौर स्टाफ आर्टिस्ट उप संपादक के रूप में कांट्रेक्ट पर काम करना शुरू किया। इस दौरान 'कुर्माचली' नाम से उनकी कई कविताएं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं। मुम्बई में केन्द्रीय सूचना सेवा के अधिकारी के तौर पर भी उन्होंने काम किया। यहां भी उनका लेखन व पत्रकारिता साथ-साथ चलते रहे। अपनी सशक्त लेखनी की वजह से बतौर पत्रकार उन्होंने जल्दी ही एक खास जगह बना ली। अज्ञेय के संपादन में निकलने वाली 'दिनमान' नाम की प्रसिद्ध पत्रिका के वह सहायक संपादक भी रहे। 1967 में हिंदुस्तान टाइम्स समूह की पत्रिका 'साप्ताहिक हिंदुस्तान' के संपादक बने और वहीं अंग्रेजी साप्ताहिक ‘वीक एंड रिव्यू' का भी सम्पादन किया। इस समूह के साथ उनके सम्बन्ध 1994 तक कायम रहे।
हाईस्कूल के दिनों में पुरस्कार स्वरूप मिली पुस्तक ‘शेखरः एक जीवनी' से उनका साहित्य से जुड़ाव हुआ। परिवार का माहौल साहित्यिक होने से उन्हें अपनी अभिरूचि को आगे बढ़ाने में मदद मिली। उनके पिता ने 'ताप' नाम से हिन्दी में विज्ञान की पहली पुस्तक लिखी थी और हिन्दी के आरम्भिक उपन्यासों में शुमार 'जवाकुसुम' के लेखक उनके मामा थे। हिन्दी साहित्य के इतिहास में दोनों को ही विशेष उल्लेख है। इस नाते साहित्य और लेखन उन्हें एक तरह से विरासत में मिला था, जिसे अपनी लेखनी से उन्होंने समृद्ध किया। लखनऊ लेखक संघ की गोष्ठियों में निरंतर भागीदारी से उनका साहित्यिक दायरा बढ़ा। अपनी पहली कहानी 'नीली ऑस्टिन' उन्होंने यहीं लिखी। लखनऊ में ही वे अमृत लाल नागर के संपर्क में आए। उनकी आरम्भिक कहानियां 'हंस' और 'प्रतीक' जैसी पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं। लखनऊ विश्वविद्यालय में उनकी मित्रता कुंवर नारायण और रघुवीर सहाय से हुई। उस दौर का काफी प्रभाव उनके लेखन पर पड़ा। उनके उपन्यासों व संस्मरणों में इसकी छाप साफ दिखाई पड़ती है।
सम्प्रेषण का ऐसा कोई माध्यम नहीं, जिसके लिए उन्होंने सफलतापूर्वक लेखन न किया हो। खेल से लेकर दर्शनशास्त्र तक ऐसा कोई विषय नहीं, जिसे उन्होंने छुआ न हो। आलस्य और आत्मसंशय उन्हें सदैव रचना को पूरी करने व छपवाने से रोकता रहा। यही कारण है कि उनकी पहली कहानी तब प्रकाशित हुई जब वह अठारह वर्ष के थे लेकिन पहली बड़ी साहित्यिक कृति तब प्रकाशित हुई जब वह सैंतालिस वर्ष के होने को आए। 1981 में उनका पहला उपन्यास 'कुरू कुरू स्वाहा' छपकर आया। खिलंदड़ी भाषा व जबरदस्त किस्सागोई की वजह से यह उपन्यास चर्चा का विषय बना रहा। 1984 में दूसरे उपन्यास 'कसप' के प्रकाशन के साथ ही उनके लेखन का जादू सर चढ़कर बोला। इन उपन्यासों के बाद उनकी गिनती देश के अग्रणी उपन्यासकारों में की जाने लगी।
1983 में भारतीय टेलीविजन के पहले सोप ऑपेरा 'हम लोग' की कहानी लिखकर उन्होंने भारतीय टेलीविजन के इतिहास में एक नए युग का सूत्रपात किया। 'हम लोग' के बाद 'बुनियाद' के लेखक के रूप में उन्होंने घर-घर में अपने लिए खास जगह बना ली। उनके गढ़े बड़की, मझली, छुटकी, लल्लू, नन्हे, मास्टर हवेलीराम, लाजोजी, देवकी भौजाई आदि पात्र आज भी बड़ी शिद्दत से याद किये जाते हैं। वह एक ऐसा दौर था जबकि टेलीविजन के लिए मनोहर श्याम जोशी की लेखनी सफलता की गारंटी समझी जाती थी। उसके बाद मुंगेरी लाल के हसीन सपने, हमराही, जमीन-आसमान, कक्काजी कहिन, गाथा जैसे धारावाहिक लिखकर उन्होंने इस तर्क को और अधिक मजबूत किया। साथ ही अन्य साहित्यकारों को भी इस लोकप्रिय माध्यम से जुड़ने के लिए प्रेरित किया।
टेलीविजन से मिली अपार सफलता के बाद उन्हें फिल्मों की पटकथा लिखने के ऑफर आने लगे। उन्होंने भ्रष्टाचार, अप्पू राजा, हे राम, जमीन जैसी चुनिंदा फिल्मों के कथानक लिखे लेकिन इससे उन्हें वह संतुष्टि नहीं मिली, जो विशुद्ध साहित्यिक रचना से हासिल होती है। व्यवसायिकता और साहित्य का समन्वय उनके लेखन की विशेषता रही है। इस दौरान ‘हरिया हरक्युलिज की हैरानी' और 'हमजाद' उपन्यास अपने अनूठे कथानक और शिल्प संयोजन के लिए सराहे गए। लखनऊ पर लिखे उनके संस्मरणों की भी काफी चर्चा हुई। 'क्याप' उनका अंतिम प्रकाशित उपन्यास है, जिसके लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाजा गया। मनोहर श्याम जोशी अपने लेखन से कभी संतुष्ट नहीं रहे। वह हमेशा कहा करते थे- मैंने अपनी अपेक्षाओं से कमतर लिखा है। 30 मार्च 2006 की सुबह दिल का दौरा पड़ने से वह इस दुनिया से विदा हो गये। उनके निधन से हिन्दी साहित्य में जो स्थान रिक्त हुआ है, उसकी भरपाई हो पाना संभव नहीं है। -मल्ला रामगढ़(नैनीताल)
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