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    मानिला - उत्तराखंड की प्राचीनतम सौन्दर्य स्थली

    Manila Gav

    ‌उत्तराखण्ड में पग-पग पर ऐतिहासिक मंदिर हैं तो वहीं नयनभिराम पर्यटक स्थल भी हैं। जहां साहसिक पर्यटन, पर्वतारोहण, स्कीइंग और राफ्टिंग के शौकीनों के लिए अनेकों स्थल मौजूद हैं। हिमालय के हिममंडित शिखरों को नजदीक से देखने के लिए अनगिनत पर्यटक स्थल पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र तो हैं ही वहीं ऐसे धार्मिक एवं पर्यटक स्थलों की भी संख्या पर्याप्त है जिन्हें पर्यटक मानचित्र में महत्व नहीं मिला है। ऐसा ही एक आकर्षक पर्यटक स्थल है मानिला जो पंचाचूली, नन्दा देवी, नन्दाकोट और त्रिशूल आदि हिममंडित शिखरों के सौंदर्य को निहारने का अनुपम स्थल हैं।


    ‌समुद्र तल से 1850 मीटर की ऊंचाई पर स्थित मानिला रानीखेत और रामनगर से 80 किमी. की दूरी पर स्थित है। अल्मोड़ा जिला मुख्यालय से 125 किमी. की दूरी पर स्थित मानिला चीड़, देवदार, बांज, बुरांश, अंयार, काफल, सुरई, मोरपंखी तथा लोद आदि के वृक्षों के घने जंगलों से आच्छादित है। जहां ऊंचाई वाले क्षेत्रों में सेब, नाशपाती, अखरोट, संतरा, नींबू, माल्टा, खुबानी, पुलम और आडू होता है और निचले क्षेत्रों में आम, पपीता, केला आदि फल होते हैं।


    ‌पाली-रानीखेत तहसील का हिस्सा रहा। यह क्षेत्र आज भिकियासैण और सल्ट (मौलेखाल) तहसाल के तल्ला चौकोट, पल्ला नया और वल्ला सल्ट पट्टियों में फैला है। जिसके अंतर्गत करीब 120 गांव शामिल हैं। अब यह नवघोषित रानीखेत जिले के अंतर्गत है। भिकियासैण और मौलेखाल के केंद्र में स्थित मानिला में राजकीय महाविद्यालय भी है। सभी सुविधाओं से युक्त बाजार रतखाल स्थानीय निवासियों की दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति करता है। यहां से करीब 5 किलोमीटर की दूरी पर मर्चूला-मानिला मार्ग पर डोटियाल है, जो स्याल्दे, देघाट के साथ पौड़ी के धुमाकोट, वीरोंखाल, किनगोड़ीखाल को सड़क मार्ग से जोड़ता है।


    ‌ऐतिहासिक और धार्मिक दृष्टि से मानिला का बहुत महत्व रहा है, लेकिन इसे पर्यटक स्थल के रूप में स्थापित करने की दिशा में उपेक्षित ही रखा गया। राज्य बनने के बाद इसे विकसित करने के प्रयास किये जा रहे हैं लेकिन उनकी गति बहुत धीमी है। वन विभाग का डाक बंगला, भू-संरक्षण विभाग का डाक बगला तथा कुमाऊँ मडल विकास निगम का पर्यटक आवास केंद्र पर्यटकों के लिए ठहरने के अवसर प्रदान करते हैं। अब निजी क्षेत्र में भी पर्यटकों के लिए सुविधाएं उपलब्ध होने लगी हैं।


    ‌मर्चूला-मानिला मार्ग पर स्वतत्रता आंदोलन के केंद्र खुमाड़ में शहीद स्मारक स्थित है, जो 1942 में हुए शहीदों की स्मृति में बनाया गया है। ऐतिहासिक दृष्टि से मानिला 15वीं शताब्दी से पूर्व कत्यूरी साम्राज्य का हिस्सा था। चंदवंशी राजा कीर्तिचंद ने 1488 में अपने राज्य विस्तार के अभियान में पश्चिमी अल्मोड़ा (पाली क्षेत्र) पर हमला किया। पाली क्षेत्र में कत्यूरी राजा मांडलीक का अधिकार था तथा उनकी राजधानी चौखुटिया के पास लखनपुर में थी,जहां उनका किला भी था। राजा कीर्तिचंद ने समूचे कुमाऊं क्षेत्र पर अधिकार कर लिया।


    ‌कत्यूरी राजा भावदेव ने राजा कीर्तिचंद के साथ संधि कर ली। जिसके अंतर्गत कत्यूरी राजाओं को रामगंगा का पश्चिम क्षेत्र दे दिया। कत्यूरी राजा ने लखनपुर छोड़ दिया। पूर्वी भाग चंद राज के अधीन हो गया और पश्चिमी भाग में कत्यूरी मांडलीक राजा के रूप में राज करने लगे। कत्यूरी राजा भावदेव के दो पुत्र पालनदेव और पीथू गुसांई थे। पालन देव के पुत्र थे कीलण देव, जो जसपुर में बस गये और उनके वंशज रजवार कहलाये। लड़देव मानिला क्षेत्र में सल्ट के सैणमानुर में बस गये और उनके वंशज मनराल कहलाये। पीथू गुसांई के पुत्र जपू गुसांई और सारंग गुसांई स्याल्दे क्षेत्र में उदयपुर, मलगांव, कहेड़गांव, तामाढौन व चचरोटी में बस गये तथा उनके वंशज भी मनराल कहलाये।


    ‌कत्यूरी राजाओं ने सल्ट के सैणमानुर में बसने के बाद वहां अपना किला बनाया। मानिला में मंदिर समूहों का निर्माण किया,जिसमें शक्ति मंदिर प्रमुख था। सल्ट में कत्यूरी राजाओं का आगमन सन् 1488 में राजा कीर्तिचंद के काल में हुआ।


    ‌सन् 1638 में कुमाऊं की गद्दी पर चंदवंशीय राजा बाजबहादुर चंद बैठे। उन्हें पता चला कि कत्यूरी राजाओं ने गढ़वाल के पंवारों के साथ संबंध बनाये हैं तथा कुमाऊं के साथ होने वाले युद्धों में वे पंवार शासकों की मदद कर चुके हैं, तब वे कत्यूरी राजाओं से नाराज हो गये। चंद राजा ने अपनी सना भेजकर कत्यूरी राजाओं पर हमला कर दिया और मानिला में हुई लड़ाई में कत्यूरी राजा हार गये। चंदों ने सैणमानुर किले पर कब्जा कर उसे ध्वस्त कर दिया। चंद शासकों ने सांवली के बिष्टों को जसपुर, उदयपुर, तामाढौन आदि सयाना का बनाकर तिमली में बसा दिया। रजवारों और मनरालों से सयाने का पद छीनकर बंगारस्यूं के बंगारी-राैतों को सल्ट के 16 गांवों के सयाने की पदवी सौंप दी और उन्हें मुसोली के बरकिंडा में बसा दिया। जहां रौतों ने अपना किला बनाया। बंगारी कत्यूर वंशी थे तथा इनके पुरखे पातलीदून क्षेत्र में मांडलीक राजा थे जहां उनका किला भी था।


    ‌राजा बाजबहादुर चंद ने पूरे कुमाऊ पर अधिकार कर लिया। राजा बाजबहादुर चंद ने सल्ट के करगेत (तल्ला हिनौला) में बद्रीनाथ का मंदिर भी बनवाया। इसके बाद कुमाऊं से सटे गढ़वाल के इलाकों में कुमाऊँ सेना ने हमले शुरू कर दिये। थोकदार भूपसिंह रावत ने कड़ा प्रतिरोध किया लेकिन वे हार गये तथा उनके दो बेटे मारे गये। तब उनकी लड़की तीलू रौतेली ने स्थानीय लड़ाकू राजपूतों की सेना बनाकर मोर्चा लिया और कुमाऊंनी सेना को घुटने टेकने पड़े।


    ‌बंगारी शैतों को सल्ट की सयानचारी (सयाने का) पद मिला तो वे बंगारस्यूं से अपने साथ पुरोहित व वैद्य समेत सेवक आदि भी लेकर आये। लखचौरी गांव से आने वाले पुरोहित मानिला के धुरा, बजों व सकनणा में बसाये गये। वे लखचौरा कहलाये। उन्हें मानिला मंदिर की पूजा अर्चना का काम सौंपा गया। जो बौड़ाई वैद्य थे वे बौड़ाई जाति लिखने लगे । गढ़वाल से डंगवाल और असवाल जातियां भी आयी, जिन्हें थोकदार-बनाया गया। तब से राजा मोहनचंद के समय तक चंद राज में और इसके बाद गोरखा राज तथा ब्रिटिश राज में कई जातियों के लोग ( बंगारी, मनराल, डंगवाल, रजवार आदि) छोटे छोटे थोकों के थोकदार बनाये गये।


    ‌जनश्रुति है कि मानिला देवी के मंदिर में सिंह नवरात्रियों में आकर देवी के दर्शन करता था। तथा देवी बोलती भी थी। इस शक्ति का प्रभाव सुनकर बाहर से कुछ लोग अष्टधातु की मूर्ति को अपने यहां स्थापित करने के लिए लूट के इरादे से पहुंचे। उनसे मूर्ति नहीं उठायी जा सकी तो वे देवी का एक हाथ काट कर उठा ले गये। मल्ला मानिला पहुंचकर वे काफी थक गये तो वे आराम करने लगे। जब वे आराम कर उठे तो उनसे देवी का हाथ उठाया नहीं जा सका। तब तक सुबह हो चुकी थी। लुटेरे भाग निकले बाद में उस हाथ की वहीं मंदिर बनाकर स्थापना की गयी जो शक्तिपीठ के रूप में प्रसिद्ध है। तल्ला मानिला और मल्ला मानिला देवी के दो मंदिर हैं।

    Malla manila

    ‌किवदंती है कि जब लुटेरे मूर्ति को उठाने के लिए आये तो देवी ने बजों गांव की ओर आवाज लगायी। एक महिला रात में बाहर निकली थी और उसने आवाज अनसुनी कर दी और अपने घर में भीतर जाकर सो गयी। उसके बाद से देवी ने बोलना। बंद कर लिया।


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