एडविन टी. एटकिन्सन ने अपने 'हिमालयन डिस्ट्रिक्ट्स' के पृष्ठ 297 से 350 में स्कान्द के तथा-कथित 'मानसखण्ड तथा 'केदारखण्ड' का सार दिया है। किन्तु विद्वान् लेखक का यह विवरण इन भू-भागों के मात्र भूगोल तथा तीर्थस्थलों तक सीमित है। इन दो खण्डों का ऐसा अध्ययन प्रस्तुत नहीं किया गया जिससे मध्य हिमालय के इतिहास पर कुछ प्रकाश पड़ सके। अतएव लेखक द्वारा दी गयी इन ग्रन्थों की सार प्रतिकृति (brief reproduction) अनावश्यक ही है।
1. भौगोलिक परिवेश :
यहाँ इतिहास को अपना गन्तव्य मानते हुए, मैं सर्वप्रथम 'मानसखण्ड' में आये संकेतों को प्रस्तुत करूंगा। इसके लिए मैं 'मानसखण्ड' के उस संस्करण का उपयोग करेगा जो 1989 ई. में वाराणसी से प्रकाशित हुआ। इसमें मानसभूमि का भौगोलिक परिवेश इस प्रकार दिया गया है। यह भू-भाग पश्चिम में नन्दपर्वत से पूर्व में काकगिरि पर्यन्त विस्तृत है (अ.21)। 'नन्द पर्वत' नन्दादेवी गिरि-पिण्ड का पूर्वी शिखर नन्दाकोट है, और 'काकगिरि' पश्चिमी नेपाल का एक पर्वत। वर्णित है कि यह समस्त भू-खण्ड मानस की जलराशि से पूरित है और उससे संलग्न होने के कारण ही इस भू-भाग का नाम भी 'मानसखण्ड' हुआ (अ 08, 20)।
'मानसखण्ड' के उत्तरदिशावत पर्वतों में महागिरि कैलास, मेरु, गौरीगिरि (डोल्मा-ला), मान्धातापर्वत, पंचशिर (पंचाचूली), लिपिपर्वत (लिपूलेख), जीवारपर्वत (जोहार) मुख्य हैं। 'कुर्माचल'(काली कुमूँ) को मानस का अन्त तथा मानस-यात्रा का प्रवेश बताया गया है। मध्यवर्ती पर्वतों में, दारुकानन (पट्टी दारुण) से संगत,'टंकणपर्वत', 'नागपर्वत' (पट्टी नाकुरी), 'दारुगिरि' (द्यारीधुर), 'द्रोणगिरि'(दूनागिरि), आदि पर्वतों का उल्लेख है। नदियों में, 'रथवाहिनी' (प. रामगंगा), गोमती-रामसरिता से संयुक्त 'सरयू' गौरी तथा सरयू से संयुक्त 'श्यामा' (काली नदी) तथा 'कर्णाली' मुख्य हैं। काली (कैलगंगा) से संयुक्त पिण्डारका (पिण्डर) तथा शाली (सुआलगाड़) से समृद्ध कौशिकी (कोसी) का वर्णन भी यहाँ हुआ है। कर्णाली के साथ डोटी प्रदेश की सीता (सेती) का नाम भी मिलता है। कैलास तथा मेरू से उद्गमित तथा मानसरोवर में संगम करने वाली अनेक नदियों के नाम भी 'मानसखण्ड' में मिलते हैं। इस प्रकार, कुमाऊँ, प. तिब्बत तथा प. नेपाल के स्थल नामों के ज्ञान की दृष्टि से, 'मानसखण्ड' महत्वपूर्ण सूचनाएं प्रदान करता है।
2 . धर्म एवं सम्प्रदाय :
'मानसखण्ड' में टंकणगिरि-स्थित शिवस्थल जिसकी पहचान एटकिन्सन ने वृद्ध जागेश्वर से की (पृ, 302 टि.1), दारुकानन में 'यागीश्वर', सरयू-गोमती मध्य 'वागीश्वर' जिसे वाराणसी कहा गया है, रथवाहिनी के वामस्थ 'विभाण्डेश्वर', दारुपर्वत पर 'भुवनेश्वर', गोमती-गारुड़ी-संगमस्थ 'वैद्यनाथ', रामगंगा (पू.) के वाम भाग में बानरराज बालि-पूजित "बालीश्वर: सरयू-रामगंगा के मध्य 'रामतीर्थ' (रामेश्वर), श्यामा-सरयू-संगम पर 'पंचेश्वर' इत्यादि प्रमुख शिवस्थल वर्णित हैं। इनके अतिरिक्त, अगणित अन्यान्य शिवस्थलों से मानसभूमि परिपूर्ण बतायी गयी है। गिरिशिखर हों अथवा नदीसंगम, सर हों अथवा गिरिगुहा ऐसा कोई स्थल नहीं जहाँ शिवलिंग की स्थापना न बतायी गयी हो। वास्तव में, यह 'खण्ड' भी शिवोपासना प्रधान है। इसमें कहा गया है।
शिव आत्मा शिव जीव:शिवो बन्धुः शरीरिणाम्।
सैवाग्नौ पूज्यते विप्रा वरुणे सैव पूज्यते। अ.106
शिव के साथ पार्वती भी अनेक नामाेें से सर्वत्र पूजित होती थी। इनमें नन्दपर्वतवासिनी 'नन्दा महादेवी' मध्य हिमालयीय जन-जन की उपास्या थीं (अ.22)। देवी अपने चण्डिकादि घोर रूपों में तथा कोटरा, कोटवी, मालिका आदि स्थानीय नामों में भी सम्पूजित थी। शिवपूजा-स्थलों में गणनायक ‘घण्टाकर्ण' की भी पूजा होती थी (अ.15)।
शिव महिमा की अतिशयता तिहत्तरवें अध्याय में मिलती है जहाँ सम्पूर्ण मानसभूमि को ही शिव का शयनागार बताया गया है। भगवान् शिव ने नन्द एवं कैलास के मध्यवर्ती शिखरों पर अपने शिरों को और दारुपर्वत में अपने चरणों को स्थापित किया है। उन्होंने अपनी ग्रीवा जीवारपर्वत पर, नाभि वागीश्वर में, वाम भुजा भुवनेश्वर में तथा दक्षिण भुजा विभाण्डेश्वर में स्थापित की है। यही नहीं, मानसखण्ड-कार शिवलिंंगों से युक्त पृथ्वी को नवखण्डों में विभक्त किया। पंचम अध्याय में इन नवखण्डों के नाम दिये गये हैं। एटकिन्सन ने इन नवखण्डों में से चार खण्ड ही हिमालय में बतलायें हैं - हिमाद्रिखण्ड, मानसखण्ड, कैलासखण्ड तथा केदारखण्ड (.304) । परन्तु प्रकाशित संस्करण के सम्पादक श्री पाण्डेय अनुसार, ग्रन्थकार ने मानसखण्ड नामक भुखण्ड का ही नवखण्डात्मक विभाग किया है। (प्रस्तावना पृ. 74)। इस प्रकार, उक्त वर्णित त्रिविध प्रयास द्वारा सम्पूर्ण मानसभूमि शिवमय बतायी गयी है। किन्तु इससे यह नहीं समझना चाहिए कि इस ग्रन्था की रचना के समय शैवधर्म यहाँ इतना व्याप्त था। ये उत्साही शिव-भक्त ही थे जो मध्यकाल में शिव महिमा के प्रचारार्थ इन माहात्म्य 'खण्डों' की रचना कर रहे थे।
शिवोपासना की तुलना में विष्णु-उपासना के नगण्य संकेत'मानसखण्ड' में मिलते हैं। एक स्थान पर विष्णु कहते हैं - 'मेरा निवास श्वेतद्वीप है। नारदादि मुनियों से संस्तुत हिमालय मेरा ही रूप है' (अ.3) । काषायपर्वत पर 'रामशिला' का उल्लेख हुआ है। फिर भी, 'केदारखण्ड' ग्रन्थ के समान, यहाँ भी शिव विष्णु का अभिन्नता पर बल दिया गया है। सूर्योपासना का भी अधिक उल्लेख नहीं है। 'बडादित्य' नामक एकमात्र प्रसिद्ध सौर-स्थल था जिसके सम्बन्ध में वर्णित है कि वटशिला-मध्य स्थित सूर्य की बडादित्य संज्ञा हुई (अ.38)।
बौद्धधर्म 'मानसखण्ड' की रचना के समय प्राय: विलुप्त हो चुका था। तथापि अल्प बौद्ध-स्थल अब भी विद्यमान थे। सरयूतटवर्ती क्षेत्र में 'बौद्धसर' तथा 'बौद्धशिला' थी (अ. 94)। वहीं 'बौद्धतीर्थ' का भी उल्लेख है (अ. 95)। ये स्थल उस काल अर्चित अवस्था में थे। सरयू के निचले क्षेत्र में 'बौद्धेशशंकर' (अ. 134), पिण्डारका-घाटी में 'बौद्धनाग' तथा पिण्डारका-बोधनी संगम पर बौद्धरूपधारी महाविष्णु के उल्लेख धार्मिक प्रवाहों को समझने के लिए महत्वपूर्ण हैं। इनसे विदित होता है कि मध्यकाल में ये पुराने बौद्ध स्थल पौराणिक देवमन्दिरों में परिवर्तित कर दिये गये थे।
विदित होता है कि पौराणिक देवों की उपासना के साथ-साथ इस समय आदिकालीन लोकधर्म समाज में बहुप्रचलित था। लोक में यक्ष, कुबेर, गुह्यक के साथ नाग-पूजा खूब प्रचलित थी। रामगढ़ा (पू.) तटीय 'यक्षतीर्थ' तथा काषायपर्वत पर 'यक्षिणी' का उल्लेख मिलता है। नागभूमि में अवस्थित पातालभुवनेश्वर नाग-पूजा का भी केन्द्र था। इस काल में भी हिन्दू लोग तीर्थों में मरणेच्छा प्रकट करते थे। मानसरोवर में, गोमती-सरयू सहूम पर तथा सरयू-श्यामा संगम पर शरीर त्याग के संकेत 'मानसखण्ड' में मिलते हैं।